शनिवार, 28 जून 2014
रविवार, 25 मई 2014
मेरे प्रिय सब चले गए
- प्रो. दिलीप सिंह
बीज भाषण : 29 मार्च 2014 : बेलगाम संगोष्ठी
मेरे प्रिय सब चले गए
- प्रो. दिलीप सिंह
हिंदी साहित्य के लिए साल 2013 और 2014 के आरंभिक दो महीने बहुत ही मनहूस, दुखदायी और नुकसानदेह साबित हुए हैं.
इन चौदह महीनों में हिंदी भाषा और साहित्य के कई नक्षत्र बुझ गए. ये वे नक्षत्र थे जिन्होंने अपने पाठकों को नई राह दिखाई, बहुत कुछ समझाया और दृष्टि संपन्न किया.
विजयदान देथा गए : राजस्थानी लोक कथाओं को हिंदी में लाकर जिन्होंने हिंदी की लोकभूमि को देशव्यापी मान्यता दिलवाई. लोक कथाओं में छिपी मानवीय संवेदनाओं और समस्याओं की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया. मनुष्य की जिजीविषा, उसके संघर्षों और उसके सपनों को अभिव्यक्ति देने वाले सरल कथानक को पाठकों का मित्र बनाया.
फिर के.पी.सक्सेना भी हमें छोड़ गए. लखनऊ में रहने वाले हास्य कथाकार. धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, मनोरमा आदि पत्र-पत्रिकाओं और हिंदी दैनिकों के माध्यम से वे आधे दशक तक पाठकों के कंठहार बने रहे. वे अपने पर भी हँस सकते थे. अपनी वृद्धावस्था और पोपले होते मुँह पर भी. मध्य वर्ग के पारिवारिक जीवन पर उन्होंने ‘मैं’ शैली में जैसी कथा यात्रा की है वह रोचक और शिक्षाप्रद है. के.पी. ने लखनऊ के निम्न मध्यवर्गीय मुस्लिम समाज को हँस हँस कर रचा जिससे लखनऊ की तहज़ीब के दर्शन भी हमें हुए और उनकी दशा-दुर्दशा के भी. उनके ‘बड़े मियाँ’, ‘छोटे मियाँ’ और ‘नवाब मियाँ’ जैसे पात्रों ने मुस्लिम जीवन के अनेक पहलू हमारे समक्ष खोल डाले. के.पी. का साहित्य ‘अल्पसंख्यक’ समुदाय केंद्रित लेखन पर बात करने वालों के ध्यान में आना चाहिए.
फिर डॉ. रघुवंश भी नहीं रहे – इलाहाबाद की नाक थे डॉ. साहब. हाथ से लाचार थे तो पैर से लिखने का अभ्यास कर लिया. अपनी तरह के काव्य आलोचक. केंद्रीय हिंदी संस्थान में व्याख्यान दिए जो ‘समसामयिक हिंदी कविता’ के शीर्षक से छपे. वे पहले साहित्य के गंभीर पाठक थे, फिर आलोचक. हिंदी में उनके जैसी आलोचना की परंपरा उन्हीं से शुरू होकर उन्हीं पर खत्म हो जाती है.
और चले गए बाल साहित्य के शालीन प्रणेता श्रीप्रसाद जी. काशीवाशी. इतने सरल की सरलता भी शर्म कर जाए. शिशु गीत से लेकर बाल कविता, बाल कहानी से लेकर बाल नाटक तक उन्होंने लिखे - हम लोगों ने उन्हें बचपन में भी पढ़ा, जवानी में भी और बुढापे में भी.
शैलेश मटियानी - ‘भोगे हुए यथार्थ’ को वाणी देने वाले कथाकार - भी इसी अवधि में हमारे बीच से चले गए. मटियानी जी का जीवन अत्यंत कठिन रहा था. उन्होंने मजदूरी की, चाय की दूकान में जूठे बर्तन धोए, बूचड़ की दूकान में गोश्त काटा और हमेशा एक ‘मजदूर’ का जीवन जिया. मार्क्सवाद के ‘सर्वहारा’ का जीवन उन्होंने खुद जी कर देखा, सहा पर इससे डरे-घबड़ाए बिना कलम उठा ली. उनकी कलम ‘कटु यथार्थ’ की अभिव्यंजना का हथियार बन गई. मटियानी जी ने अपने लेखन द्वारा हमें कठिन से कठिन जीवन जीने की, और जिंदगी की तल्खियों से लड़ने की कला सिखाई. उनके समीक्षात्मक आलेख भी साहित्यिक छद्म के सारे पर्दों को तार तार कर देने वाले रहे हैं. गरीबी की शान ही उनका जीवन था.
अभी अभी गए हैं – अमरकांत. बलिया निवासी. ‘कहानी’ के संपादक. इलाहाबाद में लंबी साहित्य साधना. कस्बाई जीवन के पोर पोर से अमरकांत जी परिचित थे. उनकी कहानियाँ निम्न मध्यवर्ग और मध्यवर्ग के छोटे छोटे सुखों-दुखों-आकांक्षाओं का महाकाव्य हैं. वे लिखते नहीं थे – बोलते थे. अपने पहले ही उपन्यास ‘सूखा पत्ता’ से उन्होंने कथा-शिल्प का एक नया स्वरूप ही रच दिया. बलिया शहर इस उपन्यास का कथानायक है.
ये चार रचनाकार जिनका पुण्य स्मरण करने आज हम यहाँ एकत्रित हैं, इसी विध्वंसक कालखंड में हमारे बीच से उठ गए. ये सब क्या उठे, इनके कामों पर मान करने वाला हिंदी का गौरवान्वित मस्तक पीड़ा से चकरा गया, संज्ञाशून्य हो गया. क्योंकि ये सभी अपनी तरह की अकेली ही नहीं, पथप्रदर्शक तथा अपने अपने क्षेत्र की प्रवर्तक प्रतिभाएँ थीं.
गज़ब यह कि ये चारों मुझ से अति निकट या निकटता से आबद्ध थे. कैलाश चंद्र भाटिया मेरे पितृतुल्य थे. वे भी मुझे बेटे से कम नहीं समझते, मानते थे. मेरे आरंभिक अकादमिक रूप को संवारने में उनकी भूमिका भूले से नहीं भूलती. इतना संतोष अवश्य है कि उनके अवसान से दो महीने पहले अलीगढ़ में उन्हें देख आया था. हिंदी भाषा के वे हितचिंतक अध्येता थे. एक संपूर्ण हिंदी भाषाविद.
परमानंद जी ने मुझे पाठक के रूप में भी सदा प्रेरित किया – चाहे उनका कवि रूप हो या आलोचक का. वे थोड़े समय ‘आलोचना’ के संपादक भी थे. उनकी कविता जीवन की तल्खी और कमीनगी को भी कमनीय बनाकर रखती है. पर संवेदना की सच्चाई उसके भीतर छिपी करुणा, आक्रोश अथवा संघर्ष के पाठ को काव्यात्मक ढंग से प्रकट कर ही देती है. परमानंद जी आलोचक भी विशिष्ट थे. उनकी निजता सिर्फ उनकी ही थी. नए कवियों को वे अपनी आलोचना के केंद्र में लाने में कभी भी पीछे नहीं हटे. हिंदी के पुरोधा रचनाकारों की आलोचना में भी उनकी आलोचना दृष्टि सदैव तटस्थ रही – ऊँचा उठाने या नीचे गिराने की प्रचलित आलोचना प्रणाली के लिए वे जीवनपर्यंत एक प्रतिरोध की भूमिका में खड़े रहे. उनकी आलोचना में काव्यभाषा के प्रति उनकी सजगता भी प्रकट होती रहती है. वे रूपवादी या शैलीवैज्ञानिक आलोचना के उस तरह कटु आलोचक नहीं थे जैसे कि उनके अन्य समकालीन आलोचक थे बल्कि उन्होंने अपनी तरह से शैलीवैज्ञानिक और रूपवादी आलोचना पद्धति को अपनी आलोचना में जगह दी. वे वास्तव में हिंदी आलोचना में ‘नई राहों के अन्वेषी’ आलोचक थे.
राजेंद्र यादव का चले जाना एक धाकड़ और निडर व्यक्तित्व के अवसान जैसा है. उनका खुलापन, उनकी राजनैतिक चेतना, उनके सामाजिक सरोकार जगजाहिर हैं. अतिशयोक्ति को भी उन्होंने विमर्श का जरूरी हिस्सा बना दिया. साहित्य जगत में बखेड़े खड़े करके क्रमशः उन्हीं बखेड़ों को गंभीर विमर्श में बदल डालने की उनकी प्रतिभा बेजोड़ थी. वे किसी भी पाखंड को कभी न बख्शने की कसम खाकर आगे बढ़ने वाले रचनाकार और संपादक थे. समसामयिक भारत के खून में पल रहे पाखंड रूपी कैंसर को उन्होंने तेज नश्तर से कुरेदना शुरू किया तो हाहाकार मच गया. सबसे बड़ी बात यह कि उन्होंने ‘सच’ को ज़बान दी. सच के लिए जब वे झूठ से लड़ने निकले तो जानते थे कि इस लड़ाई में ‘ललकार’ अनिवार्य है. आलोचना, सभ्यता समीक्षा और सामाजिक सरोकारों पर ‘हंस’ के संपादकीय के माध्यम से ललकार की अनेक प्रोक्तियाँ राजेंद्र यादव ने रचीं. कई रूढ़ि बन गईं तो कई ने हिंदी लेखन और आलोचना की नई भाषा गढ़ने में मदद की. स्त्री, दलित और आदिवासी विमर्श की पहचान को शाश्वत बनाकर उन्होंने एक रास्ता दिखाया. कहीं कहीं यह रास्ता ठोकर देने वाला भी है. पर उनका लेखन इन ठोकरों से बच पाने का विवेक भी अपने पाठक में निरंतर विकसित करता रहता है. राजेंद्र यादव अपनी रचनाशीलता के आरंभ से ही अपने अन्य समकालीन कथाकारों से अनूठे थे. और जाते समय तक वे अपने इस अनूठेपन के नए नए साक्ष्य हमें देते रहे – कभी हमें शॉक देकर, कभी हमारे भीतर तिलमिलाहट भरकर तो कभी अपना मुरीद बनाकर.
ओमप्रकाश वाल्मीकि ‘दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’ तैयार करके हमें देने वाले हिंदी के पहले और संभवतः आखिरी रचनाकार थे. उनकी आत्मकथा ने दलितों के प्रति चिंतन करने को हम सबको मजबूर कर दिया था. उनकी दलित कविताओं की संवेदना के भीतर दलित जीवन की छोटी छोटी चित्रावलियाँ एक विराट काव्यसत्य में जब बदलने लगती हैं तो कडुवाहट, आक्रोश, घृणा और शर्म तथा और भी न जाने कितने भाव सहृदय पाठक के मन को मथने लगते हैं. वाल्मीकि हिंदी में दलित साहित्य लेखन के प्रवर्तक ही नहीं, स्वयं हिंदी दलित साहित्य का एक आंदोलन बन चुके थे. उनके जाने से ऐसा लग रहा है मानो किसी नदी का प्रवाह कुछ समय के लिए ठहर गया हो.
आज इस समय हम हिंदी साहित्य और भाषा के एक सूने सूने परिवेश में खड़े हैं. इतना सूनापन शायद हम सबने पिछले पचास वर्षों में एक साथ इतने गहन रूप में कभी महसूस न किया था. हम आज इस सुनसान में खड़े होकर यह सोचने को विवश है कि अब आगे क्या होगा! ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ के संदेश पर मानो हमारा विश्वास डगमगा गया है.
परमपिता परमात्मा इन सभी की आत्मा को शांति देने की हम सबकी, आज की इस संगोष्ठी के माध्यम से, प्रार्थाना को स्वीकार करे. अब इससे अधिक हम और कर भी क्या सकते हैं? सिवाय प्रार्थना और आयोजनों के!
मंगलवार, 1 अप्रैल 2014
(वीडियो) प्रो. कैलाश चंद्र भाटिया को प्रो. दिलीप सिंह की श्रद्धांजलि
डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया (1926/27-2013) हिंदी के प्रमुख आधुनिक भाषाचिंतक थे. 29-30 मार्च 2014 को उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के बेलगाम (कर्नाटक) केंद्र में आयोजित द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का एक सत्र उनकी स्मृति को समर्पित था. इस सत्र में प्रो. ऋषभ देव शर्मा, प्रो. एम. वेंकटेश्वर, प्रो. हीरालाल बाछोतिया एवं प्रो. रामजन्म शर्मा ने संस्मरण और आलेख प्रस्तुत किए. अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ भाषाचिंतक प्रो. दिलीप सिंह ने अत्यंत भावपूर्ण वक्तव दिया और हिंदी जगत का ध्यान डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया के अप्रतिम योगदान की ओर आकृष्ट किया. प्रस्तुत है प्रो. दिलीप सिंह का अध्यक्षीय वक्तव्य.
मंगलवार, 25 मार्च 2014
गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014
[व्याख्यान] 'सूं सां माणस गंध' पर प्रो. दिलीप सिंह
[व्याख्यान] 'सूं सां माणस गंध' पर प्रो. दिलीप सिंह
6/9/2013 को दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद में डॉ. ऋषभ देव शर्मा के छठे कविता-संग्रह ''सूं सां माणस गंध'' का लोकार्पण करते हुए दिया गया वरिष्ठ साहित्य-भाषा-चिंतक प्रो. दिलीप सिंह का अत्यंत सारगर्भित दो-टूक वक्तव्य.
मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014
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