गुरुवार, 22 दिसंबर 2022

स्मरण में है आज जीवन : 2

डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया

मैं पा रहा हूं तुझ में कुछ अपनी आहटें


अलीगढ़ गया था। यूनिवर्सिटी के ओरिएंटेशन कार्यक्रम में व्याख्यान देने। भाटिया जी अलीगढ़ में ही रहते थे। कुछ महीनों पहले कमरे में गिर गए थे, कूल्हे की हड्डी टूट गई। उम्र के कारण हड्डियाँ सूख गई थीं, कुछ किया न जा सका। बिस्तरे पर आ गए। फिर न जाने कैसे पक्षाघात भी हो गया। बेटी रचना (भाटिया) से उनका हाल मिलता रहता था। बेचैनी बढ़ जाती थी। मन उनसे मिलने को व्याकुल रहता था कि अलीगढ़ जाने का संयोग हुआ।

विश्वविद्यालय का पूरा हिंदी विभाग दुखी था। वे इसी में प्रोफेसर रहे थे। दूसरे दिन सुबह जल्दी निकल कर उनके घर पहुँचा। उनके डॉक्टर पुत्र से पहले ही तय कर लिया था, वे बाहर ही मिले। भीतर के कमरे में डॉ. भाटिया बिस्तर पर चादर ओढ़े चित लेटे थे। मुझे देखा तो जोर से मुस्कुराए। हाथ की उंगलियों में हरकत करके अपने पास बैठने का संकेत किया। मैंने चरण स्पर्श किया तो उनकी आँखों के दोनों कोरों से आँसू बह आए। मैं भी विगलित होने लगा था। एक कुर्सी उनके पलंग से सटा कर लगा दी गई थी, मैं बैठ गया। भावावेग में मैंने अपना हाथ उनके हाथ पर रख दिया। वे मुझे कुछ देर अपलक देखते रहे। फिर अस्पष्ट-सा कुछ बोले। उनके बेटे भाटिया जी के ये अस्फुट स्वर समझ लेते थे। उन्होंने बताया कि पूछ रहे हैं कि बहू और बच्चे कैसे हैं? मैंने उन्हीं के चेहरे पर आँखें गड़ा कर उत्तर दिया। सुन कर हल्का-सा हंसे।

इसी तरह देर तक उनसे बातें हुईं। उसी समय मेरी पुस्तक ‘हिंदी भाषा चिंतन’ आई थी, उन्हीं को समर्पित की थी। प्रकाशक से कहा था कि एक प्रति भाटिया जी को अवश्य भिजवा दें। उन्हें मिल गई थी। पुस्तक की तारीफ़ की। उनके बेटे ने बताया कि सुबह और शाम कोई-न-कोई उन्हें नई किताबों के कुछ पृष्ठ पढ़कर सुनाता है। धीरे-धीरे भाटिया जी मुखर हो रहे थे। मुझसे ढेरों बातें करना चाहते थे। उनके भृत्य, जो चाय लेकर आए थे बोले कि आपको देख कर आज बाबूजी बहुत खुश हैं। उनके बिना पूछे मैं उन्हें तरह-तरह की जानकारियाँ देता रहा। वे शांतचित्त सुनते रहे, कभी अपनी आँखें बंद कर लेते, कभी खोल लेते। मैं चलने के लिए उठा तो बोले – बैठो। उनका यह आग्रह मैं समझ गया था। अपने बेटे की ओर देख कर थोड़ी देर तक लड़खड़ाती जबान से कुछ बोलते रहे। उन्होंने कहा था कि इनसे पूछो कि आजकल क्या लिख-पढ़ रहे हैं, अपने संस्थान में नया क्या कर रहे हैं? मेरी आँख डबडबा आई थी। मैं बताता रहा, वे कान लगा कर सुनते रहे। उनके पास से उठने का मन नहीं कर रहा था। चलते समय चरण स्पर्श किया तो उनके नेत्र आशीर्वाद के भाव में हिले। बाहर निकला तो उनके बेटे ने कहा कि पिताजी बहुत कष्ट में हैं। ऐसी स्थिति में दर्द बहुत होता है। पर सहने की इनमें बहुत शक्ति है। आप फिर अलीगढ़ आएं तो जरूर आइए।

फिर जाना नहीं हुआ। तीन महीने बाद पूज्य भाटिया जी के देहावसान की खबर मिली।

कितनी-कितनी यादें बसी हैं डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया की मेरे अंतर्मन में। एक-से-एक, बहुमूल्य – एक-एक याद, उम्र का हासिल कहें जिसे। कहाँ से शुरू करूँ - उथलपुथल मची हुई है। उनका स्मरण अवसाद से नहीं भरता, आत्मबल प्रदान करता है। जीवन की राह पर कैसे चलें, इसकी सीख देता है। वे सिखाने वाली आत्मा थे। उपदेश नहीं, परामर्श। ये परामर्श उनका अपना जीवन-सत्य थे अतः गहरा असर छोड़ते थे। इन्हें मानने-अपनाने का मन करता था। भाटिया जी के प्रति विनत होने का भी। उनके साथ मेरा संबंध एकदम अलहदा था, जैसा उनके जैसे किसी अन्य वरिष्ठ के साथ नहीं था। उनके संसर्ग में मधुरता बरसती थी, प्रसन्नता नाचती थी। वे मुझे दिलीप पुकारते थे पर ‘आप’ सर्वनाम के साथ। मुझे दिलीप कहने वाले बस दो लोग और थे – पं. विद्यानिवास मिश्र और डॉ. रमानाथ सहाय। ये दोनों ही मुझे ‘तुम’ सर्वनाम देते थे। बस, इनके अलावा यहाँ तक कि रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, एस.के. वर्मा और नामवर सिंह भी मुझे ‘आप’ सर्वनाम देते हुए दिलीप जी कहते थे। भाटिया जी का - दिलीप आप शाम को मुझसे मिलिए. जैसे वाक्य कहना मुझे बहुत अच्छा लगता था। दिलीप के साथ ‘आपका’ मेल सिर्फ और सिर्फ वे ही मेरे लिए करते थे।

पहली बार मैं कब मिला उनसे? ठीक-ठीक याद नहीं पड़ता। शायद 1981 में, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा की एक बैठक में। उनकी पुस्तक प्रयोजनमूलक हिंदी आ चुकी थी। मेरी किताब व्यावसायिक हिंदी भी 1980 में आ गई थी। बैठकों में जैसा होता है, सबने अपनी-अपनी बात रखी। वे ‘चेयर’ कर रहे थे। ध्यान से सबकी बातें सुन रहे थे, नोटबुक पर कुछ टीप भी ले रहे थे। तब वे राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी, मसूरी में भाषा-विभाग के निदेशक थे। मैं संस्थान में ही था। शाम को उनसे मिलने गया। बड़े ही अपनत्व भाव से मिले। मेरी किताब की प्रशंसा की। बात ही बात में परामर्श दिया कि प्रयोजनमूलक हिंदी का क्षेत्र बहुत व्यापक है पर इस पर काम कम हो रहा है। आप जैसे लोगों को ध्यान देना चाहिए। अनुवाद के पाठ्यक्रम के साथ इसे जोड़ना चाहिए क्योंकि साहित्येतर अनुवाद ही हिंदी का भविष्य तय करेगा। फिर हम देर तक इधर-उधर की बातें करते रहे। इधर-उधर की याने तब हिंदी में पनप रहे शैलीविज्ञान पर, समाजभाषाविज्ञान पर, अनुवाद पर...। मैंने इंगित किया कि उनके सिरहाने रवींद्रनाथ श्रीवास्तव की ताज़ा-ताज़ा पुस्तक संरचनात्मक शैलीविज्ञान रखी हुई थी। हिंदी में या हिंदी के लिए कुछ नया हो तो उन्हें लगता था कि उनके जीवन में कुछ नया हो रहा है।

मैं ‘83 में आगरे से पुनः उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, हैदराबाद आ गया था। डॉ. भाटिया की बात मेरे ध्यान में थी। स्नातकोत्तर अनुवाद डिप्लोमा का पाठ्यक्रम बनना था। उनकी सीख को रूपाकार देने के लिए पाठ्यक्रम को दो खंडों में बाँटा गया - सैद्धांतिक तथा व्यवहारिक। व्यवहारिक खंड में वैज्ञानिक, प्रशासनिक, बैंकिंग, व्यापार-वाणिज्यिक पाठांशों के अनुवाद को जगह दी गई। श्रीवास्तव जी और एस.के. वर्मा ने पाठ्यक्रम को अंतिम रूप दिया था। पाठ्यक्रम की एक प्रति मैंने भाटिया जी को भिजवाई कि – ‘आपके सपनों को साकार करने का यत्न किया है, आशीर्वाद दीजिए।’ उनका पोस्टकार्ड मिला जिस पर आशीर्वादों की झड़ी लगी हुई थी। आशीर्वाद देने में भाटिया जी तनिक भी कोताही नहीं करते थे, मेरे लिए तो कभी ही नहीं।

कई वर्षों तक मैं आंध्र सभा की हिंदी मासिक पत्रिका पूर्णकुंभ का संपादक था। अंक उन्हें नियमित भेजे जाते। कोई अंक उन्हें पसंद आता तो अपनी प्रतिक्रिया अवश्य भेजते, हम उसे खुशी-खुशी छापते। फिर उनका एक पोस्टकार्ड आता। वे पोस्टकार्ड ही लिखते थे। नीली स्याही से चिट्ठी लिखते थे और फिर भूली-बिसरी बातें लाल पेन से, सारे हाशियों को अनुराग के रंग में रंग डालते थे। उन्हें पूर्णकुंभ के कई विशेषांक पसंद आए थे – हिंदी-उर्दू-हिंदुस्तानी वाला, मानकीकरण वाला, रवींद्रनाथ श्रीवास्तव वाला, और भी कई। हमें उनकी भरपूर आशीष मिली थी। पूर्णकुंभ के लिए वे मेरे अनुरोध पर लिखते भी थे। एक बार उनकी पाती आई तो हाशिये पर लाल रंग से लिखा था कि हमें पूर्णकुंभ का एक अंक डॉ. हरदेव बाहरी पर निकालना चाहिए। दोनों परम मित्र थे। दोनों कोशकार और हिंदी वैय्याकरण। इस अंक के निर्माण के लिए मैं उनसे सुझाव लेता रहा - खुद उन्होंने भी अपना एक लेख भेजा। उनकी सदाशयता का; मेरे लिए तो, कोई अंत ही नहीं था। कहाँ मिलेगा अब ऐसा सदाशय दानिशमंद। आप हिंदी के निमित्त कोई सार्थक काम शुरू कीजिए, वे आपके साथ हो जाएंगे।

एक बार, संभवतः 2000 में हैदराबाद में साहित्येतर अनुवाद पर एक बड़ी गोष्ठी आयोजित की गई थी – तीन दिन की। अनुवाद विज्ञान की भिन्न दिशाओं में कार्य करने वाले दिग्गज उपस्थित हुए थे। भाटिया जी भी आए। उन्हें और सुरेश कुमार जी को उस्मानिया यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में टिकाया गया था कि दोनों आराम से रह सकें। कुछ लोग सभा में ही रुके थे, थोड़े-से द्वारका होटल, लकड़ी का पुल में। पहले दिन सुबह दोनों को कार ले आई, खैरताबाद। खासी दूरी है। दोनों ने विद्वानों का जमघट देखा। भाटिया जी मुझसे बोले - दिलीप आप हमें भी यहीं रुका देते, सबका साथ रहता। वहाँ हम दोनों एकांत में पड़े हैं। मैं शरमा के रह गया। इस भव्य आयोजन से वे मुदित थे। सत्रों में खूब बोले। एक सत्र में रवींद्रनाथ श्रीवास्तव की पुस्तक हिंदी संरचना का विमोचन कार्यक्रम था। श्रीवास्तव की मृत्यु के बाद छपी इस किताब का संपादन भाटिया जी और सहाय साहब ने किया था। विमोचन के बाद भाटिया जी को किताब पर बोलना था। शुरू तो उन्होंने पुस्तक से किया पर जल्दी ही श्रीवास्तव जी की स्मृतियों में खो गए। संस्मरणों की बाढ़ आ गई। उनके हृदय का बांध मानो टूटने लगा था, उसके कोर-किनारे दरक चुके थे। अचानक सबने देखा कि वे सुबक रहे हैं। रो-रो कर बोल रहे हैं। बोलते-बोलते रो रहे हैं। चहुँओर सन्नाटा छा गया। बहुत भावुक थे भाटिया जी। जी हल्का हुआ तो थोड़े सयंत हुए - सुनते हैं कुछ रो लेने से, जी हल्का हो जाता है।

एक बड़ी प्रेरक और एक बड़ी मजेदार याद है उनकी। एनसीईआरटी की कार्यशाला थी। अन्य कई प्रोग्राम भी चल रहे थे। गेस्ट हाउस ठसाठस था। मेरा सौभाग्य कि मुझे और भाटिया जी को एक ही कमरे में ठहराया गया। वे जल्दी सो कर जल्दी उठते थे और मैं देर में सोकर देर से उठने वाला। हम भोजन करके आए तो मैंने आध-पौन घंटा टेबल पर काम करके उनकी सुविधा के लिए लाइट बंद कर दी। वे आँख बंद करके लेटे थे, उसी मुद्रा में बोले - दिलीप आप अपना काम कीजिए, मैं अपनी आँख पर तौलिया रख कर सो जाऊँगा। मैंने आनाकानी की, पर वे न माने। सुबह भी मुझे लगता है कि उन्होंने अपने दैनिक कर्म अतिरिक्त सावधानी के साथ किए होंगे क्योंकि मुझे कोई आवाज नहीं आई। एक हल्के-से खुटके से भी मेरी नींद उचट जाती है। कितना स्नेह भरा था भाटिया जी के हृदय में। खुद तकलीफ सहकर दूसरों को सुख देना, भला कितनों को आता है?

इसी कार्यशाला की बात है। हम दोनों शाम को कमरे में आए तो हाथ-मुँह धोने के बाद बोले - चलिए दिलीप, आज आपको बनारसी रंग की चीजें खिलाऊँ। उनका यह अलग रंग मैं पहली बार देख रहा था, पूछा – कहाँ? बोले, आपको अपने प्रकाशकों से मिलाऊँगा, दरियागंज चलेंगे। हम बस से दरियागंज पहुँचे। फिर रिक्शे से प्रभात प्रकाशन के दफ्तर। भाटिया जी की एकाधिक पुस्तकें यहीं से छपी हैं। खूब सत्कार हुआ। प्रकाशक से ही अपनी नयी पुस्तक हिंदी का शब्द सामर्थ्य मंगवा कर उन्होंने मुझे भेंट की। दरियागंज देसी खानपान का खास इलाका है। कटोरीनुमा पत्ते के दोने में दो-दो गरम-गरम गुलाब जामुन आए। छोले के साथ समोसा आया। पहले नमकीन फिर मीठा। वाणी प्रकाशन जाकर लस्सी पी गई। एनपीएच के यहाँ दो-दो स्पंजी रसगुल्लों का भोग लगा। गली-गली होकर पैदल ही दरियागंज मेन रोड से वापसी की बस पकड़ी गई। भोजन करने का तो सवाल ही नहीं था। कपड़े-वपड़े बदल कर हम दोनों बिस्तर पर लेट गए। उस दिन मैं भी भाटिया जी के समय से ही सो गया। मैंने देखा कि प्रकाशकों में उनका कितना सम्मान है। सब उनसे नई किताब देने का निहोरा कर रहे थे। हिंदी भाषा की इतनी महान विभूति और इतनी सरल? उस दिन भाटिया जी मुझे सिखा गए कि एक गहरे अध्येता को सरल और तरल किस भांति होना चाहिए।

डॉ. भाटिया हिंदी भाषा के धुनी थे। आठों पहर उन्हें हिंदी की धुन लगी रहती थी। कितना-कितना काम कर गए हैं वे। उनका अभिव्यक्ति कोश और व्यावहारिक हिंदी तो मील का पत्थर हैं। उन्हीं की तरह ‘सिखाने वाली’ दो शिखर रचनाएँ। मुझे याद आ रहा है कि गोवा में एक कार्यशाला थी। हिंदी की बारहवीं कक्षा के लिए एनसीईआरटी एक व्याकरण तैयार करवाना चाहती थी। दिल्ली में दो कार्यशालाएँ इस बाबत हो चुकी थीं। नाम भी तय कर लिया गया था - मानक हिंदी व्याकरण। गोवा में दो दिन के लिए श्रीवास्तव जी भी शामिल हुए। भाटिया जी और सहाय साहब भी थे। कुछ और विद्वान और मैं भी। पहले-दूसरे दिन खूब बहसें हुईं। श्रीवास्तव सहाय की टक्कर देख कर मजा गया। भाटिया जी को पुस्तक के अनुसार पाठवार ढाँचा बनाने का काम दिया गया। मैंने और सूरजभान सिंह ने उनका साथ दिया। दूसरे दिन ढाँचे पर बातचीत हुई। श्रीवास्तव जी ने भलीभाँति निर्देश देकर सभी को एक-एक पाठ तैयार करने को दे दिए। तय हुआ कि पाठों का सूक्ष्म अवलोकन करके भाटिया जी और सहाय साहब सामग्री का संपादन करेंगे। स्वीकृत पाठों के प्रश्न-अभ्यास बनाने का काम मुझे सौंपा गया। दूसरे दिन शाम को श्रीवास्तव जी चले गए। हम काम में जुटे, उसी क्रम से। मुझे पहली बार इन दो हिंदी वैय्याकरणों के साथ इतने निकट रहकर गंभीर बातचीत करने का अवसर मिला था। ढेरों-ढेर सीखने को मिला। भाटिया जी प्रश्न-अभ्यास देखकर प्रसन्न हो रहे थे। जहाँ कमी लगे मुझे सुधार के लिए सुझाव दे रहे थे। कितने मनोयोग से काम करते थे ये लोग। पढ़ने-पढ़ाने में श्रम करने और ईमानदार रहने का पाठ मुझे भाटिया जी जैसे सहृदय विद्वानों ने ही पढ़ाया है। मैं अपना चाम बेचकर भी इनका ऋण नहीं चुका सकता।

एक बार पुणे में भाटिया जी अपनी पत्नी हर्षनंदिनी भाटिया को साथ लेकर आए थे। तब वे सेवानिवृत्त होकर वृंदावन शोध संस्थान, वृंदावन में शोध-सलाहकार का दायित्व निभा रहे थे। ब्रजभूमि और राधा-कृष्ण उनके प्राणों में बसे थे। उनकी आध्यात्मिक आत्मा को अब एक दिशा मिल गई थी। सहधर्मिणी भी उन्हीं के रंग राची थीं। वृंदावन प्रवास में उनके साथ ही रहतीं। बहुत सात्विक विचारों की महिला थीं। संध्या को उन्होंने मुझे अपने कमरे में बुलाया। मैं अब थोड़ा-बहुत हिंदी जगत में जाना जाने लगा था। हर्षनंदिनी जी ने बताया कि उन्होंने भारत के वृक्ष परिवार पर एक पुस्तक लिखी है। पुस्तक मुझे भेंट की गई। पता चला कि इस पुस्तक के लिए श्रीमती भाटिया को वृंदावन के राधा-कृष्ण संप्रदायों से खूब सराहना मिली है। भाटिया जी की इच्छा थी कि इस पुस्तक पर हिंदी विद्वानों से लेख मंगा कर एक पुस्तिका निकाली जाय। दंपत्ति ने मुझसे भी एक लेख लिखने का अनुरोध किया। मैं मन ही मन उपकृत हो रहा था। रात में ही पूरी किताब पढ़ गया – अद्भुत। पीपल, वटवृक्ष, बेल, नीम, आम, जामुन, पलाश आदि के वृक्षों की पौराणिक, सांस्कृतिक और लौकिक व्याख्या। कुछ ही दिनों बाद मैंने उन्हें अपना लेख भेज दिया – पिपरा के पतवा सरीखे डोले मनवा। भाटिया जी का लाल-नीला पोस्टकार्ड तुरंत मिला।

एक बार मैं उनसे दिल्ली में मिलने गया था। उन दिनों वे अपनी बेटी के पास आए हुए थे। रचना केंद्रीय मुक्त विद्यालय संगठन में प्रवक्ता थी। मेरे आग्रह पर वही मुझे ले गई थी। भाटिया जी ड्राइंग रूम में ही बैठे थे। कुछ लिख रहे थे। मुझे देखते ही खिल उठे। बहुत स्वस्थ नहीं थे। हर्षनंदिनी जी उन्हें छोड़कर चली गई थीं। लगातार बातें करते रहे। स्मृतियों का खजाना था उनके पास। किशोरी दास बाजपेयी, धीरेंद्र वर्मा, रामविलास शर्मा, बाबू गुलाब राय की। श्रीवास्तव, भोलानाथ तिवारी, देवेंद्रनाथ शर्मा, हरदेव बाहरी की। स्मरणों की यह मंजूषा वे मेरे सामने अक्सर खोल कर बैठ जाते थे। उनके पास बातचीत की आकर्षक शैली थी। मन करता सुनते ही जायं। उनकी इस मंजूषा से मुझे अगणित माणिक-मोती मिले हैं। चाय के बाद वे भीतर के कमरे में चले गए और एक गंदली-सी फाइल लेकर आए। उन्होंने बताया कि इस फाइल में हिंदी भाषा पर काम करने वाले शीर्षस्थ लोगों का परिचय है, उनके काम का अंकन है। मैंने देखा आधा पेज, एक पेज, दो पेज की टिप्पणियाँ अलग-अलग समय पर भिन्न आकार और रंगों के कागज़ पर लिखी हुई थीं। ये कागज़ उनकी स्मरण शक्ति और अध्ययनशीलता के दस्तावेज़ थे। उन्होंने मुझसे कहा कि आप यह फाइल ले जाइए और इसे संपादित करके प्रकाशित कराने का यत्न कीजिए। उनकी यह बात सुनकर मुझे अपार कष्ट हुआ कि – ‘अब मुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि यह श्रम कर सकूँ।’ उनकी यह भी इच्छा थी कि पुस्तक ‘वाणी प्रकाशन’ से छपे। मैं उनसे क्या कहता। वापस चला आया। पन्ने-पन्ने की छनाई शुरू की। उचित क्रम दिया। अद्यतन सूचनाएँ भरीं और टंकित करा दिया। अपने हिसाब से एक शीर्षक भी दे दिया - हिंदी भाषा के अध्येता। उनके आदेश का पालन करने के बाद पांडुलिपि उन्हें भिजवा दी, इस अनुरोध के साथ कि वे ‘दो शब्द’ लिख दें। तुरंत पोस्टकार्ड आ गया। थोड़े दिन बाद पांडुलिपि और ‘दो शब्द’ भी मिल गए। ‘दो शब्द’ उन्होंने किसी से बोल कर लिखवाए थे। हाथ कांपने लगे थे। पोस्टकार्ड के अक्षर भी टेढ़े-मेढ़े थे। मैंने वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी से बात की। वे भी डॉ. भाटिया का बहुत आदर करते थे। किताब आकर्षक रूप में शीघ्र ही छप कर आ गई। ‘दो शब्द’ में डॉ. भाटिया ने मेरा नाम लेकर मुझे आशीर्वाद दिया है। यह आशीर्वाद आज तक मेरे जीवन का पाथेय है।

डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया मेरे लिए मात्र एक व्यक्ति या विद्वान नहीं हैं। साक्षात प्रेरणा हैं। प्रेरणाओं के पुंज। पिछले जनम के पुण्य से ही किसी को भाटिया जी जैसी सज्जन आत्मा का स्नेह मिलता है। मेरे जीवन के वे मधुर स्वर थे। उनके साथ होते हुए लगता था किसी वृक्ष की घनी छाया में बैठा हूँ। सुकून ही सुकून। खुशी ही खुशी। संतोष ही संतोष। सर्वांग पूर्ण जागृति। कि भीतर का सुप्त भी जाग उठे। हिंदी भाषा को भी उन्होंने इसी किस्म का जागरण दिया था। हिंदी भाषा की सोई हुई संभावनाओं को उन्होंने अपने स्नेह का स्पर्श दे-देकर मुखर बना दिया था। मुझे वे क्या-क्या नहीं दे गए हैं। ज्ञान ही नहीं संस्कार भी, दृष्टिकोण ही नहीं दृष्टि भी, सजगता ही नहीं सहजता भी। उनके उदात्त आचरण की छाया में यह सब अनायास ही मिलता चला जाता था। उनकी स्मृतियों का अंबार लगा है मेरे पास। सबको समेटने चलूँ तो पस्त हो जाऊँगा। इतना भर लिखने ने ही बेकस कर दिया है। मन हो रहा है कि छाती कूट डालूँ या सिर पीट लूँ। भाटिया जी मुझसे दूर जाकर; महसूस होता है, अपनी दी गई खुशियाँ ही छीन ले गए हैं। जीवन की जिस सुंदरता का एहसास उनके सान्निध्य में सतत् होता रहा है वह उजाड़-उजाड़ सा भासित होता है। लगता है वे मेरे लिए सारे जहाँ के हुस्न को वीराना कर गए।

स्मरण में है आज जीवन: 1

प्रो. एम.वेंकटेश्वर

तुम न जाने किस जहाँ में खो गए

अचानक चले गए वेंकटेश जी। मैं उन्हें इसी तरह संबोधित करता था। दक्षिण भारत (चेन्नई) से मैं 2014 में अमरकंटक आ गया। मेरे इस निर्णय से वे बहुत दुखी हुए थे। खिन्न भी हुए। पर फोन पर लगातार बतियाते रहे - उन्हें मुझसे और मुझे उनसे बात करके बड़ा सुख मिलता था। अस्पताल से फोन पर बताया उन्होंने कि उनकी तबीयत ठीक नहीं है। मुझे यकीन ही नहीं आया। वे बीमार भी हो सकते हैं कभी जाना ही न था। स्वस्थ शरीर और मन के मालिक थे वे – सर्वप्रसन्न, खुशदिल और किताबों की दुनिया में जीने वाले। कुछ दिनों बाद मैंने फोन किया। चिंता लगी हुई थी। संतोष हुआ कि वे घर आ गए हैं। खुश थे। आवाज में भी खनक लौट आई थी कि दो ही दिन बाद मनहूस खबर मिली कि...। तकलीफ चिरे घाव-सी पीड़ा देने लगी। बात हुई थी कि मैं अगस्त में हैदराबाद आने वाला हूँ। बोले - जल्दी आइए डॉक्टर साहब। जल्दी आने का अवसर उन्होंने नहीं दिया।

वेंकटेश जी और मेरे संबंध बहुत पुराने थे और बहुत-बहुत आत्मीय भी। कई डोरें थीं जिन्होंने हम दोनों को मजबूती के साथ बांध रखा था। एक डोर थी – अध्ययनशीलता। वे खूब पढ़ते थे। हिंदी, अंग्रेजी, तेलुगु का साहित्य। अंग्रेजी साहित्य में इतना गहरे तक डूबा और कोई हिंदी अध्यापक मैंने नहीं देखा। बोलचाल की अंग्रेजी पर भी उनका पूर्ण अधिकार था। फर्राटे से बोलते थे। उनकी हिंदी सुनकर तो कहीं से भी नहीं लगता था कि वे हिंदीभाषी नहीं हैं। प्रांजल, साफ और सही अनुतान और बलाघात के साथ हिंदी बोलते थे। प्रभावशाली हिंदी। मंच पर उनकी हिंदी और भी प्रखर, और भी सजीली हो जाती थी। हिंदी की तीनों शैलियाँ उनकी उंगलियों की पोर पर नाचती थीं। उन्हें सुनकर, उनसे बात करके सम्मोहन हो आता था।

वेंकटेश जी बस पढ़ते नहीं थे, गुनते थे। पढ़े हुए को मथते थे। किताबों के भीतर पैठने की उनकी अपनी ही रीति थी। मैंने उन्हें किसी रचना को हल्के में लेते नहीं देखा। जो हल्के में देखते थे, उनकी वे अच्छी खबर लेते थे। कोई समझौता नहीं। साहित्य की हेठी होते देख बिफर पड़ते थे। सेमिनारों में कई बार मैंने उन्हें उथले विचारों से टकराते हुए देखा है। साहित्य और भाषा के प्रति यह उनकी सत्यनिष्ठा थी, जिस पर मैं रीझा रहता था। वे भी इस बात को जानते थे। भाषाविज्ञान में मेरी निष्ठा और समर्पण का वे आदर करते थे। एक दीवाना ही दूसरे दीवाने का दर्द पहचानता है। साहित्य और भाषा के लिए यह दीवानगी भी हमें आपस में बांधने वाली एक मजबूत डोर थी। इस नजरिए से मैं उन पर मुग्ध था और वे मुझपर। ऐसा मोह-छोह रखने वाला अब मुझे कहाँ मिलेगा? वेंकटेश जी मेरा आत्मबल बढ़ाने वाले परम सखा थे। अपने साथ वे मेरे आत्मबल का एक अंश लेकर चले गए हैं।

वेंकटेश जी की स्मृतियों का अंत नहीं है। वे मेरे अंतरंग ही नहीं, मुझसे अभिन्न थे। मेरे भीतर समाए हुए। हम दोनों सिनेमा के रसिया थे। उनसे सिनेमा पर बात करके आनंद आ जाता था। हिंदी सिनेमा उनकी रग-रग में बसा हुआ था। हम दोनों सिनेमा पर सोचते थे और सिने-कला की बारीकियों पर बहस करते थे। वे तो अंग्रेजी और तेलुगु सिनेमा के भी मर्मज्ञ थे। हिंदी फिल्मों के संगीत पर हम दोनों मुग्ध थे। वे अपनी कार में मुझे कहीं ले जाते तो स्टीरियो चालू कर देते - पुरानी हिंदी फिल्मों के गाने। कैसी परिष्कृत रुचि थी उनकी। फिर हम उन गीतों के इतिहास में जा पैठते। गीत की भाषा और लय के माधुर्य पर चर्चा करते चलते। रास्ता चुटकियों में कट जाता। मेरी तो कम, पर उनकी अंग्रेजी फिल्मों पर भी गहन पकड़ थी। निधन से कुछ ही माह पूर्व उन्होंने अपनी सद्य प्रकाशित पुस्तक – विश्व साहित्य और हॉलीवुड मुझे भिजवाई थी। विश्वविख्यात तेईस क्लासिक उपन्यासों पर आधारित अंग्रेजी में निर्मित फिल्मों पर वेंकटेश जी ने इसमें तबसिरा किया है। साहित्य और सिनेमा से उनके गहरे लगाव का यह किताब स्वतः प्रमाण है। मैंने उन्हें फोन करके पुस्तक को ‘अद्भुत’ कहा तो सकुचा गए। ऐसा वे अक्सर करते थे, उनकी सराहना करता तो झेंप जाते, बात बदल देते।

वेंकटेश जी के इसरार पर मैंने कई तेलुगु फिल्में भी देख डालीं। मुझे याद है, एक बार फोन पर उन्होंने मुझसे 1957 की तेलुगु फिल्म माया बाज़ार देखने का इसरार किया। कहानी भी बता गए और यह भी कि इसमें युवा एन.टी.रामा राव, अक्कीनेनी नागेश्वर राव, जेमिनी गनेसन, सावित्री और एस.वी.रंगा राव ने अभिनय किया है। इतना ही नहीं, इस फिल्म पर अपना एक लिखा एक लेख भी ई-मेल कर दिया। मैंने फिल्म देखी। ‘महाभारत’ के एक प्रसंग को दर्शाती इस फिल्म ने मुझ पर जादू सा कर दिया था। ऐसे अनेक उपकार वे मुझ पर करते रहते थे - कभी कोई किताब या लेख भेज कर, कभी कोई फिल्म भेज कर तो कभी हिंदी की किसी पुरानी रचना की समीक्षा भेज कर। भाषा और साहित्य के अध्येताओं में बहुत कम ही ऐसे होंगे, वेंकटेश जी की तरह जिनके प्राण सिनेमा में बसते हों। इस ‘स्मरण’ का शीर्षक मैंने जानबूझ कर हिंदी सिनेमा के गीत की पंक्ति से दिया है। सज़ा (1951) फिल्म का गीत है जिसे साहिर लुधियानवी ने लिखा था, एस.डी. बर्मन ने धुन बनाई थी और लता मंगेशकर ने गाया था - तुम न जाने किस जहाँ में खो गये / हम भरी दुनिया में तनहा हो गये। यह गीत वेंकटेश जी को बहुत प्रिय था। एक बार उनकी गाड़ी में यह गाना बज रहा था तो उन्होंने अति उत्साह के साथ मुझे बताया था कि लंदन के एल्बर्ट हॉल में लता मंगेश्कर ने इस गाने को गाया था और यह भी कि इस कार्यक्रम के पहले एल्बर्ट हॉल में किसी भारतीय का परफॉर्मेंस नहीं हुआ था। कार्यक्रम दो दिन का था। दिलीप कुमार और मुकेश भी ट्रूप के साथ गए थे। पहले दिन मुकेश और लता ने कुछ ड्युएट्स और कुछ अपने सोलो गीत गाए। उसी रात मुकेश को दिल का दौरा पड़ा और उनका देहांत हो गया। दूसरे दिन सुबह ही उनके पार्थिव शरीर को भारत भेज दिया गया। दूसरे दिन शाम के कार्यक्रम की शुरुआत अपने “मुकेश भैया” को याद करते हुए लता जी ने इसी गीत से की थी। मुकेश जी को वे अपना बड़ा भाई कहती और मानती थीं। मैं चकित था। ऐसी न जाने कितनी अतिरिक्त जानकारियाँ फिल्मी गीतों के बारे में, फिल्मों के बारे में, साहित्यिक कृतियों के बारे में वे मुझे देते रहते थे।

हम दोनों ने एक साथ बहुत काम किया। कई बरस तक। कोई अकादमिक कार्य हो, हम दोनों अभिन्न थे। सेमिनार-वर्कशॉपों की कोई गिनती नहीं है। सभा की पाठ्यपुस्तकों के नवीकरण, दूरस्थ शिक्षा के लिए बी.ए. और एम.ए. स्तर के पाठ तथा बी.एड. के लिए पुस्तक निर्माण जैसे कामों में वे प्राणपण से मेरा हाथ बंटाते थे। ग्रुप के अन्य सदस्यों से खूब बहस करते थे, इसके बाद ही कोई निर्णय लिया जाता था। सामग्री उत्कृष्ट हो, नयी हो, नया दृष्टिकोण हो, इन बातों के वे हिमायती थे। सभी लोग उनकी इस प्रवृत्ति की सराहना करते थे। अकादमिक कामों के साथ उनका लगाव संक्रामक था। खाने जा रहे हैं, खाना खा रहे हैं, खा कर वापस लौट रहे हैं - विषय का सूत्र उनसे छूटता नहीं था। उनका यह ‘पैशन’ अन्य सबके लिए उत्प्रेरक का काम करता था।

हिंदी साहित्य उनका ओढ़ना-बिछौना था। वे उस्मानिया विश्वविद्यालय में रहे, विदेशी और अंग्रेजी भाषा संस्थान में रहे - उनकी सदैव यह इच्छा रहती थी कि हिंदी के मूर्धन्य हिंदी लेखक-आलोचक हैदराबाद पधारें। नामवर सिंह, मैनेजर पांडेय, राजेंद्र यादव, शैलेश मटियानी, अशोक वाजपेयी, और भी कई उनके और मेरे प्रयास से हैदराबाद आए। वेंकटेश जी के लिए तो मानो भगवान आ गए। उनका सामाजिक आचरण अत्यंत शिष्ट था। बड़े-बड़े लोग उनके मोहपाश में बंध जाते थे। मैं उनके हर कार्यक्रम में अनिवार्यतः रहता था और वे मेरे। हम दोनों का एक-दूसरे के बिना काम नहीं चलता था।

मेरा वे बहुत ध्यान रखते थे। किसी काम से हम दिल्ली गए थे। नामवर जी से मिलने का कार्यक्रम बना। दूरी बहुत थी। रास्ते भर वेंकटेश जी मेरी सुध लेते रहे। आधे रास्ते पर जबरन मुझे मुसम्मी का रस पिलाया। उनका प्रेम, स्नेह, आदर और सत्कार मुझ पर बरसा करता था। अब यह बारिश थम गई है। सूखा पड़ा हुआ है। क्या करूं? मेरे लिए वेंकटेश जी रसधार थे। खाने के शौकीन थे, मैं भी था। बताते थे कि रविवार को सब्जी लेने के लिए मंडी वे स्वयं जाते हैं - ताज़ी-ताज़ी अपने पसंद की तरकारी। ‘हैदराबादी क्विज़ीन’ हम दोनों की कमजोरी थी। वे इनके सारे अड्डे जानते थे। पैराडाइज़, थ्री-एसेज़, ब्लू फॉक्स और न जाने कितने देसी ढाबों में उन्होंने मुझे जिमाया है। भोजन करना उनके लिए एक उत्सव होता था। पाक कला में भी वे पारंगत थे। ‘डिशेज़’ की ऊँच-नीच समझते थे। खाते समय भी उस व्यंजन के गुण-दोष पर टिप्पणी करते चलते थे। ज्यादा गड़बड़ लगी तो मैनेजर को बुला कर समझाते भी थे कि उसे अपने रेस्त्रां की ‘रेप्युटेशन’ का ध्यान रखना चाहिए। एक बार ‘पैराडाइज़’ के बैरे से बोले कि बिरयानी देग के बीच से निकाल कर ले आना। मैंने पूछा ऐसा क्यों? तो कहने लगे कि मसाला और अन्य तत्व बीच में आकर स्थित जाते हैं। किनारे से निकाल कर ले आएगा तो ज़ायका कमज़ोर हो जाएगा। वेंकटेश जी हर बात में परफेक्शन चाहते थे। सामान्य और विशिष्ट दोनों का वे तल तक जाकर अन्वेषण करते थे। उन्हें छिछले-उथले रूप में कोई भी चीज़ रास नहीं आती थी।

यह गहराई या गंभीरता उनके लेखन में दीख पड़ती है, उनके वक्तृत्व में भी थी। उन्हें सुनते हुए लगता था कि वे विषय को झकझोर डालेंगे। उनके व्याख्यान हमें सोचने का उकसावा देते थे। एक बार एम.फिल. के पाठ्यक्रम के लिए ‘मनोवैज्ञानिक आलोचना’ के दृष्टांत के रूप में विश्लेषण के लिए जैनेंद्र कुमार की कहानी ‘पाजेब’ चुनी गई थी। हिंदी उपन्यासों के मनोवैज्ञानिक अध्ययन पर भी उनका विशेष कार्य है, यह सोच कर मैंने उनसे यह अनुरोध किया कि यह पाठ वे ही लिखें। मैं रात में भोजन के लिए जाने को उनके कमरे में गया तो वे ‘पाजेब’ कहानी सामने रख कर ‘नोट्स’ बनाने में जुटे हुए थे। यह थी उनकी कार्यनिष्ठा। वे हमेशा इसी तरह लिखते-पढ़ते थे। कभी आप यह पाठ पढ़ेंगे तो जान सकेंगे कि वह कितना अनमोल है।

कई पत्रिकाओं के विशेषांकों का उन्होंने संपादन किया - इसी निष्ठा के साथ। हिंदी विभागों और हिंदी की प्रतिष्ठित संस्थाओं के लिए जुट कर काम किया - इसी निष्ठा के साथ। अनेक सम्मान अर्जित किए, यूरोप में हिंदी का परचम लहराया, हिंदी भाषा और साहित्य के वैविध्य में अपने को रचाया-बसाया तो इसी निष्ठा के कारण। वे काम नहीं करते थे, जूझ जाते थे। स्वयं को उसमें खपा देते थे। अपने को उसी में मगन कर लेते थे। साहित्य और भाषा का काम उन्हें परमानंद प्रदान करता था। मैं अनगिनत बार उनके इस विभोर-भाव का साक्षी रहा हूँ। उनका यह दुर्लभ गुण मेरे अंतर को भी बांध लेता था। वे खुल कर बात करते थे – बेबाक। कुछ लोगों को उनकी यह बेबाकी रास नहीं भी आती थी। पर ऐसे लोगों की वे परवाह नहीं करते थे। वेंकटेश जी भाषा, साहित्य, सिनेमा, आलोचना पर वाद-विवाद-संवाद करना चाहते थे। अपनी मनमानी चलाने वालों को उनका यह तरीका पसंद नहीं आता था। जब वे इनसे बहस करते तो ये सब अपने खोल में दुबक जाते। और एक मैं था कि उनकी इसी अदा पर फिदा था। मैं उनके साथ दो-चार करने के लिए मैदान में उतर पड़ता था - उन्हें मज़ा आ जाता था, वे लहकने लगते थे।

मेरे साथ उनके घरेलू संबंध बन गए थे। भाभी जी महिला महाविद्यालय, कोठी में शिक्षिका थीं। मुझे अपने यहाँ बुलाती रहती थीं। वेंकटेश जी जब चेन्नई आते तो एक-दो शाम घर पर ज़रूर आते थे। मेरी पत्नी अंग्रेजी में एम.ए. हैं। इन दोनों की खूब पटती। मेरी बेटी निधि हर तरह का अंग्रेजी साहित्य पढ़ती थी। जासूसी और थ्रिलर उसे विशेष पसंद थे। ‘मर्डर इन दि ओरियंट एक्सप्रेस’ (अगाथा क्रिस्टी), ‘एडवेंचर्स ऑफ शरलॉक होम्स’ (सर आर्थर कॉनन डॉयल), ‘दि साइलेंस ऑफ दि लैंब्स’ (थॉमस हैरिस), ‘दि दा विंची कोड’ तथा ‘एंजेल्स एंड डीमंस’ (डैन ब्राउन) वह न जाने कितनी-कितनी बार पढ़ चुकी थी। वेंकटेश जी उसकी इस रुचि को जानते थे। दोनों में बहस छिड़ जाती। दोनों अपना-अपना नज़रिया रखते। जब वे चले जाते तो निधि अचरज से पूछती कि – पापा, अंकल हिंदी के प्रोफेसर हैं या अंग्रेजी के? ऐसी ही खुली चर्चा वे पत्नी के साथ गंभीर अंग्रेजी साहित्य और अंग्रेजी आलोचना पर करते थे। अद्भुत मेधा थी उनकी।

अभी जब उन्होंने ‘विश्व साहित्य और हॉलीवुड’ पुस्तक भेजी तो मेरी छोटी साली दिल्ली से आई थी। कुछ ही दिनों बाद उसे वापस जाना था, सो उसने किताब हथिया ली। उसके जाने के बाद पत्नी उसका पारायण करने लगीं। मैं किताब की सिर्फ ‘भूमिका’ ही पढ़ पाया था। फोन किया तो उन्होंने पूछा कि - आपने किताब पढ़ ली? मैंने झेंपते हुए वस्तुस्थिति से अवगत कराया। खिल उठे, बोले - भाभी जी से कहिएगा कि पढ़ने के बाद मुझे फोन करें। अब तो मैंने भी पूरी पुस्तक पढ़ ली है। पर उन्होंने तो फोन करने का मौका ही नहीं दिया। उठ कर न जाने कहाँ चले गए। उनकी किताब पर विस्तार से लिखने का मन था। पर अब तो वह उछाह ही बैठ गया है।

मुझे वे भर-भर के आदर स्नेह और प्यार देते थे। मुझे अपने साथ पा कर वे निहाल हो जाते थे। हैदराबाद पहुँचते ही मैं उन्हें फोन करता था। दिन-भर वे मेरे साथ ‘कार्यशाला’ करते। शाम को हम कहीं भटकने निकल जाते - कभी टैंक बंड, कभी बिरला मंदिर, कभी पब्लिक गार्डन तो कभी नेकलेस रोड। मन करता तो हम लॉन्ग ड्राइव पर सिकंदराबाद तक निकल जाते। मधुर, पुराने हिंदी फिल्मों के गीत सुनते हुए। किसी दिन नामी रेस्त्रां में डिनर लिया जाता। वेंकटेश जी अभिजात रुचि के मनुष्य थे। परिष्कृत। यही परिष्करण उनकी अध्ययन वृत्ति ने भी था। सबसे अलग। सिनेमा पर हम दोनों के पास ढेरों किताबें थीं। वे मेरी रुचि जानते थे। वर्कशॉप में आए तो बोले कि दिलीप कुमार की आत्मकथा आई है (DILIP KUMAR : The Substance and the Shadow – An Autobiography)। लंच के बाद मुझे अपनी कार से एबिड्स ले गए। संतोष-सपना थियेटर के पास वाले बुक-स्टोर बेस्ट बुक सेंटर से यह साढ़े चार सौ पृष्ठों की किताब खरीदी गई। वापस आए तो कार्यशाला ठप-सी पड़ी थी, सारे सदस्य हम दोनों को रहस्य भरी नज़रों से देख रहे थे। गुरुदत्त, नौशाद, देव आनंद, सचिन देव बर्मन पर छपी किताबें मैंने हैदराबाद के अलग-अलग प्रवास में वेंकटेश जी के साथ ही खरीदी हैं। वे मुझे ये किताबें खरीदवाते हुए परम प्रसन्न होते थे। उनकी वह प्रसन्नवदन छवि इस समय मेरे मन मानस में तैर रही है।

लोग चले जाते हैं पर उनकी यादें नहीं जातीं। वेंकटेश जी जैसों की स्मृतियों का तो कोई ओर-छोर ही नहीं। कितनी जगहों पर, कितने-कितने दिन वे मेरे साथ रहे हैं। रात-दिन का साथ रहा है। उनकी हँसी, उनकी मुस्कान, उनका गांभीर्य और उनके खुले व्यवहार की अनंत छवियों को समेटा नहीं जा सकता। इनमें से कोई कभी तो कोई कभी यहाँ-वहाँ सूर्य की किरणों की भाँति छिटकी फिरती हैं। स्थूलकाय और हमेशा सुरुचिपूर्ण वस्त्रों में सज्जित वेंकटेश जी आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। उनकी शारीरिक और मानसिक उपस्थिति हमें आश्वस्त करती थी। उनकी मुलायमियत भी मुझे प्रिय थी और उनकी कठोरता भी। ज्ञान के क्षेत्र में अडिग और कठोर हुए बिना काम चलता भी नहीं। हमारी वैचारिक सघनता कुछ भी स्वीकार कर लेने से हमें बार-बार बरजती है। व्यापक अनुभव और विस्तृत अध्ययन ने उन्हें वैसा बनाया था, जैसे वे थे। मेरे लिए वे कर्मठ सहयोगी, बहसों के साझीदार, सहृदय मित्र और संयत अध्येता थे। अपने इन्हीं रूपों की विविध आकृतियों में वे मेरी यादों में बसे हैं और बसे रहेंगे। सेमिनारों और कार्यशालाओं में बिना मुझे बताए तो वे कभी अपने कमरे में भी नहीं गए। फिर इतनी दूर मुझसे पूछे बगैर कैसे चले गए। क्यों चले गए। यह आपने अच्छा नहीं किया वेंकटेश जी।

स्मरण में है आज जीवन

स्मरण में है आज जीवन

निःशेष जीवन

जीवन के इस पड़ाव (सत्तर वर्ष) तक आते-आते मेरे अनगिन आत्मीय ब्रह्मलीन हो गये हैं। बरसों से मन इन सबकी स्मृतियों को संजोने को व्याकुल था – ‘निराला’ की एक पंक्ति “मेरे प्रिय सब चले गये” का शीर्षक भी सोच लिया था। पर बाद मे यह पंक्ति मुझे विलाप जैसी महसूस हुई। मृतात्माओं के नाम पर विलाप करना हमारे संस्कार में नहीं है। मरण तो जीवन का पुनरारंभ है। भारतीय जीवन दर्शन मृत्यु को उत्सव मानता है। मृत्यु का दर्शन चाहे कुछ भी हो, जानेवाले की याद सालती तो है। जी कचोटता है पर एक अलहदा किस्म का सुख भी मिलता है – जो नहीं है, जो कभी वापस नहीं लौटेगा, उसके साथ होने का, उसके स्मरण में होने का। तो अब ‘निराला’ की ही यह पंक्ति शीर्षक के लिए सर्वथा उपयुक्त लगी – “स्मरण में है आज जीवन”। अपना जीवन आज उनका स्मरण कर रहा है जो कभी हमारे जीवन का अंग थे। आज भी तो हैं। इनकी स्मृतियों से मुक्ति कहाँ, कौन छूटना भी चाहता है उनसे? इन स्मृतियों से भी छूट गये तो फिर बचा ही क्या रह जाएगा जीवन में – एक मूठी छार।

नागार्जुन ने कहीं लिखा था कि – स्मृतियाँ हिरन के छौनों की तरह कुलांचें भरती हैं। सच, कोई भी याद सीधे-सीधे तो चलती ही नहीं। कभी आगे, कभी पीछे। प्रारंभ, मध्य और अंत का कोई सिलसिला ही नहीं। आड़ी-तिरछी, पर असंबद्ध कतई नहीं। दिवंगत आत्मीयों की स्मृतियाँ और भी बेतरतीब ढंग से घेरती हैं।

अभी-अभी, इसी महीने मेरे परमप्रिय सखा प्रो. एम.वेंकटेश्वर का देहांत हो गया है। ऐसी कोई सुनगुन नहीं थी। अचानक। किसी प्रिय का बिछोह मुझे अजीब किस्म के अवसाद से भर देता है, भरता रहा है – मेरे तईं आकाश कुछ मटमैला-सा हो जाता है। वायु अठखेलियाँ करना बंद कर देती है। वृक्ष अवाक् खड़े रह जाते हैं। शाखें थिर हो जाती हैं। फूल बेरंग और धरती गंधहीन।

वैसे तो मेरे इस जीवनकाल में बहुतेरे प्रियवर दिगंत में विलीन हो चुके हैं। सभी का अभाव कसमसा कर रख देता है। इन सभी के जाने पर एक-सा अवसाद मेरे वजूद पर छाया है। सब पर लिख पाना सहज नहीं है। इस श्रृंखला में पच्चीस आत्मीय आत्माओं की यादें आप तक पहुँचाऊंगा। एकदम निजी। इनमें से कुछ मेरे परम आदरणीय हैं। कुछ समव्यस्क बुद्धिजीवी हैं। कई खुले दिलवाले यार हैं तो कुछ जीवन जीना सिखाने वाले महानुभाव हैं...। कैसे-कैसे रंग की कितनी-कितनी स्मृतियाँ बस गयी हैं मन में। किन रास्तों से, कब, कहाँ, कैसे फूट पड़ती हैं कि क्या कहूँ। इनके आने और जाने का अपना ही ढंग है। अपना ही ढब है।

यहाँ नामवर सिंह भी होंगे और शुकदेव सिंह भी। कैलाशचंद्र भाटिया भी आएंगे और भोलानाथ तिवारी भी। शिवप्रसाद सिंह भी कौंधेगे और परमानंद श्रीवास्तव भी। विद्यानिवास मिश्र भी जाग उठेंगे और रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव भी। बालगोविंद मिश्र की भी यादें होंगी और रमानाथ सहाय की भी। हैदराबाद के भी अनेक दिलकश मित्र यहाँ मेरे स्मरण में पुनर्जन्म लेंगे।

यादों का यह सफर प्रो. एम.वेंकटेश्वर की यादों से शुरू कर रहा हूँ। उनके जाने के बाद एक ‘स्मृति-लेख’ लिखने को तड़प रहा था कि मन हुआ कि यहीं से ‘स्मरण में है आज जीवन’ को प्राण दिया जाय। बरसों से अटकी स्मृतियों को जीवन मिल जाएगा। प्रो. एम.वेंकटेश्वर जब हमारे बीच थे तो कई मामलों में वे मेरे प्रेरणास्त्रोत बने हैं। निबुहरे देस (वह देश जहाँ से कोई वापस नहीं आता) में पहुँच कर भी आज वे इस स्मृति-पाठ को संपन्न करने की प्रेरणा देते हुए मेरे समक्ष खड़े हैं। नमस्ते वेंकटेश जी !

एक के बाद एक ये सब लोग आपसे मिलेंगे। इन्हें पृष्ठों पर उतारने का मकसद मात्र इतना ही है कि – हम इन्हें भूलें नहीं, इनके काम को जानें, इन्हें भीतर-बाहर से पहचानें और इन सबको मेरी निगाह से भी देख पाएँ।

मेरे लिए आसान न होगा अपने भीतर के स्मरण को बाहर उंडेलना। पर इतने वर्षों की आनाकानी के बाद अब जाके मन बंधा है। ‘स्त्रवंती’ के पाठकों को मेरी यह भावविह्वल आत्माभिव्यक्ति इन आत्माओं के व्यक्ति और कृत्य के माध्यम से कुछ भावभीने पल दे सके, यही प्रार्थना कर रहा हूँ।

- प्रो. दिलीप सिंह

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2021

महात्मा गांधी का भाषा चिंतन



 महात्मा गांधी का भाषा चिंतन

- प्रो. दिलीप सिंह
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गांधी और भाषा

यह बात कहने की नहीं है कि गांधी जी कोई भाषा वैज्ञानिक नहीं थे। लेकिन कहने की बात यह जरूर है कि वे अपने समय के भारत के भाषाई यथार्थ को जाँच-परख चुके थे – गहराई के साथ। उनके भाषाई चिंतन की पृष्ठभूमि में ये यथार्थ ही अनुभूत रूप में व्यक्त मिलते हैं। गांधी जी सत्य के आग्रही थे, अतः भाषा के प्रश्न को भी वे सत्यबल के साथ हल करने को दृढ़ संकल्प थे। यह ध्यान दें तो अचरज होता है कि गांधी जी के समय का कोई नेता हमें ‘भाषा’ के प्रश्न को इतने व्यापक धरातल पर व्याख्यायित करता या जीवन पर्यंत इनसे जूझता नहीं मिलता। वे भारतीय भाषाओं के लिए लड़े–भिड़े भी और अपने भाषा- दर्शन को सीधे–सच्चे ढंग से देश की जनता तक पहुँचाया भी। लिखकर, और अधिकतर अपने भाषणों के माध्यम से। इन पर दृष्टियात करें तो इस बात में कोई संदेह नहीं रह जाता कि उनकी भाषा–दृष्टि अत्यंत व्यापक थी। दो तरह से, एक तो वे भारतीय भाषाओं को उनका उचित देय दिलाने को दृढ़ प्रतिज्ञ थे और दूसरा कि भाषा के माध्यम से वे भावात्मक, सांस्कृतिक और भाषाई एकता का प्रयास इस तरह से कर रहे थे जो स्वतन्त्रता संग्राम का हिस्सा बन सके। संक्षेप में कहा जाय तो भारत की आत्मा (भाषाई अस्मिता) और भाषाई यथार्थ (बहुभाषिकता-बहुसांस्कृतिकता) की गांधी को स्पष्ट पहचान थी। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो गांधी एक सजग समाज भाषा विज्ञानी सिद्ध होते हैं। आगे यह प्रतिपादन स्वतः प्रमाणित होता जाएगा।

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गांधी का समय और भारतीय भाषा-परिदृश्य

भारत आने के बाद ही (1915) अपनी भारत-यात्रा के दौरान गांधी जी को यह भान हो गया था कि ब्रिटिश शासन अपने समस्त अलगाववादी अस्त्र –शस्त्रों के साथ भारतीय भाषाओं और उनकी अस्मिता के सभी तत्वों को कुचलने के षणयंत्र में लिप्त है। वे भलीभाँति समझ चुके थे कि ब्रिटिश शासन अँग्रेजी भाषा और संस्कृति के वर्चस्व को बढ़ाने की फिक्र में भाषाई धोखाधड़ी तक पर उतर आया है। बहुभाषिक भारत में ‘शिक्षा में भाषा’ के प्रश्न को भारतीय भाषाओं से जोड़ने के बजाय अँग्रेज नीति – नियंताओं ने अँग्रेजी भाषा के दबाव को ‘शिक्षा’ का लक्ष्य निर्धारित करके भारतीय संस्कृति तथा भारतीय भाषाओं को उपयोगी व्यवहार क्षेत्रों (डोमेन्स) में पीछे धकेलने की कसम खा ली थी। इतना ही नहीं भारतीय भाषाओं को देसी और गँवारू (वर्नाकुलर) सिद्ध करने की निंदनीय पहलें भी शुरू हो चुकी थीं। भाषा – अध्ययन के ऐसे –ऐसे पीठ और भाषाविद (?) ब्रिटिश शासन के दुष्चक्रों को साकार करने के लिए खड़े किए गए जो भारत की ‘सामासिक संस्कृति’ से रची- बसी फुलवारी को एक वीराने में तब्दील करने के प्रयास में प्राणप्रण से जुट गए थे। भारत में भाषा – संघर्ष (लैंग्वेज कांफ्लिक्ट) ही भाषाई यथार्थ है, इस तरह के भ्रामक भाषा वैज्ञानिक शोधपत्रों, पुस्तकों और सर्वेक्षण रपटों का अंबार लगा दिया गया था। इस तरह के मिथ्या प्रचारों में आर्य- द्रविड़ भाषाओं, हिन्दी और उसकी बोलियों, सीमावर्ती भाषाओं (बार्डर लैंग्वेजेज़) तथा हिन्दी – उर्दू पर न जाने कितने गलत भाषा वैज्ञानिक निष्कर्ष देकर इनके बीच वैमनस्य फैलाने की कोशिशें की जा रही थीं। सच, भारतीय भाषाओं और हिन्दी भाषा के लिए यह एक बहुत कठिन समय था। ऐसे माहौल में गांधी भारतीय भाषाओं के लिए ढाल बनकर आ खड़े हुए।

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दूरद्रष्टा गांधी

गांधी दूरद्रष्टा थे। वे भारत की सभी समस्याओं को जनसंदर्भ में देखने वाले मनीषी थे। अतः भारतीय भाषाओं पर किए जा रहे इस अनाचार को उन्होंने गहराई से पहचाना। वे अपने भाषाचिंतन में बार–बार यह संकेत देते हैं कि भाषा के टूटने का अर्थ है समाज और संस्कृति की टूटन। गांधी जी यह समझते थे कि भाषा में जोड़ने और तोड़ने की दोनों शक्तियाँ निहित होती हैं। वे समझ चुके थे कि ब्रिटिश शासन भारतीय भाषाओं का इस्तेमाल समाज और संस्कृति को तोड़ने के लिए करने पर आमादा है। ऐसे में वे भाषा द्वारा देश को जोड़ने का संकल्प लेकर आगे आए। गांधी का सपना संगठित राष्ट्र का सपना था। अपने इस सपने को साकार करने के लिए उन्होंने अन्य कई अवरोधों के साथ-साथ उन भाषाई अवरोधों को भी तोड़ने का प्रयास किया जिनकी पालपोस ब्रिटिश सरकार कर रही थी। इस मार्ग पर वे स्वयं चले और असंख्य भारतवासियों को भी इस पर चलने के लिए प्रेरित किया। गांधी जी की इसी भाषाई चेतना ने ‘राष्ट्रभाषा आंदोलन’ की नींव रखी, जिसका एकमात्र लक्ष्य था – राष्ट्रीय एकता की स्थापना।

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राष्ट्रभाषा हिंदी का गांधीवादी यथार्थ

भारतीय भाषाओं के निरंतर क्षरण और अपमान से गांधी जी क्षुब्ध थे। एकता, सहभाव और मेलजोल से निर्मित भारत का भाषाई यथार्थ उन्हें दरकता हुआ दिखाई पड़ने लगा था। भारतीय भाषा परिदृश्य में वे हिंदी भाषा के महत्व को जान चुके थे। एक अखिल भारतीय संपर्क भाषा (पैन इंडियन लिंक लैंग्वेज) के रूप में उसकी ‘जोड़ने वाली’ शक्ति को परख चुके थे। गांधी जी की दृष्टि में राष्ट्रभाषा हिंदी का यथार्थ पाँच मूलभूत क्षमताओं (कांपिटेंस) से आबद्ध था – भारत की प्रमुख संपर्क भाषा के रूप में, सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति की समन्वयक भाषा के रूप में, भारतीय साहित्य के उत्थान एवं आदान–प्रदान के लिए जोड़ भाषा के रूप में, एक वैज्ञानिक भाषा के रूप में तथा देश को एकजुट रखने वाली राष्ट्रभाषा के रूप में। हिंदी भाषा की इन क्षमताओं पर गांधी जी बोलते रहे, लिखते रहे और राष्ट्रभाषा आंदोलन को दिशा देने के लिए अपनी ‘भाषा नीति’ बनाते रहे। अपनी इसी नीति के चलते उन्होंने हिंदी भाषा के प्रचार–प्रसार को स्वतन्त्रता संग्राम का एक अस्त्र बनाया और अपने रचनात्मक कार्यक्रम में खादी के साथ हिंदी को एक महत्वपूर्ण स्थान दिया। कहना न होगा कि ये दोनों प्रतीक गांधी के सामने ही स्वावलंबन और स्वभाषा अस्मिता का पर्याय बन गए थे।

गांधी जी एक राष्ट्र के लिए एक राष्ट्रभाषा के हिमायती थे। उन्हीं के शब्दों में – ‘समूचे हिंदुस्तान के साथ व्यवहार करने के लिए हमको हमारी भाषाओं में से एक ऐसी जबान की जरूरत है जिसे अधिक से अधिक संख्या में लोग जानते और बोलते हैं और जो सीखने में सुगम हो। इसमें शक नहीं कि हिंदी ही ऐसी भाषा है’। गांधी जी के इस विचार में हिंदी भाषा की वकालत उसमें निहित ‘व्यापक व्यवहार की भाषा’ तथा ‘सुगम भाषा’ के गुणों के कारण की गई है। जिसे आगे चलकर उन्होंने राष्ट्रभाषा की संज्ञा दी और जिसके प्रचार–प्रसार के लिए पूरे भारत में, विशेष रूप से दक्षिण भारत में ऐसी अलख जगाई कि राष्ट्रीय एवं भावात्मक एकता की बयार बह चली। ‘राष्ट्रभाषा हिंदी’ के संदर्भ में उन्हीं का एक उद्धरण देखें – ‘अगर हिंदुस्तान को एक राष्ट्र बनाना है तो चाहे कोई माने या न माने, राष्ट्रभाषा हिंदी ही बन सकती है क्योकि हिंदी को जो स्थान प्राप्त है वह किसी दूसरी भाषा को नहीं मिल सकता। अगर स्वराज करोड़ों निरक्षरों का, दलितों और अंत्यजों का हो और हम सब के लिए हो तो हिंदी ही एकमात्र राष्ट्रभाषा हो सकती है’। यहाँ यह देखने की बात है कि गांधी जी ‘राष्ट्र भाषा’ के प्रश्न को भावावेश में नहीं उठा रहे हैं। एक यथार्थ भाषा परिदृश्य सदैव उनके समक्ष है। यहाँ भी वे हिंदी की व्याप्ति को अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में तरजीह दे रहे हैं। ‘हिंदी को जो स्थान प्राप्त है’ वाक्य स्पष्टत: हिंदी की अखिल भारतीय व्याप्ति तथा राष्ट्रीय एकीकरण की उसकी शक्ति की ओर इशारा कर रहा है। इस उद्धरण के दूसरे भाग में वे यह भी कह रहे है कि जो भाषा अभिजन की आकांक्षाओं का साथ दे वही स्वराज के सपने को साकार कर सकती है।

हिंदी भाषा के माध्यम से ‘राष्ट्रीय एकता’ के लक्ष्य की पूर्ति गांधी की ‘राष्ट्रभाषा’ का एक खास पहलू था। वे जानते थे कि एक राष्ट्रभाषा के बिना इस लक्ष्य की प्राप्ति नहीं की जा सकती थी। उन्होंने बार-बार यह उद्घोषणा की कि – भारत को एकता की कड़ी में जोड़ने के लिए हिंदी ही उपयोगी भाषा है। वे पूरे भारत में ‘एकता की भाषा’ के रूप में हिंदी को स्थापित करना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रचार–प्रसार का बीड़ा उठाया जिसकी भूमिका वे अपने प्रसिद्ध ‘इंदौर भाषण’(19 मार्च,1918) में बना चुके थे। इसी वर्ष उन्होंने दक्षिण भारत में हिंदी की एक संस्था स्थापित कर दी – दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास और 18 वर्षीय अपने पुत्र देवदास गांधी को इस कार्य के लिए मद्रास (अब चेन्नई) भेज दिया। इस संस्था का मूल वाक्य है – ‘एक राष्ट्रभाषा हिंदी हो, एक हृदय हो भारत जननी’। यह वास्तव में गांधी जी के ‘राष्ट्रभाषा’ संबंधी चिंतन से सिंचा वाक्य है। गांधी जी स्वयं इस संस्था के आजीवन अध्यक्ष रहे।

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गांधी और ‘हिंदुस्तानी’

हिंदी भाषा की ‘सुगमता’ की बात गांधी जी बहुत सोच–समझ कर कर रहे थे। वे हिंदी भाषा की सुबोधता और संप्रेषणीयता के हामी हैं, यह बात वे कई तरह से कहते चले आ रहे थे। संभवतः इसीलिए कहीं-कहीं उन्होंने राष्ट्रभाषा के लिए ‘हिंदुस्तानी’ शब्द का भी प्रयोग किया है। ‘हिंदुस्तानी’ भारत में प्रचलित बोलचाल की हिंदी का मूल रूप है जिसे आधार बनाकर अँग्रेजी शासन ने बोझिल उर्दू (हाई उर्दू) और संस्कृतनिष्ठ हिंदी (हाई हिंदी) जैसे कृतिम भाषा रूप गढ़ कर हिंदी को हिंदुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा कहकर एक सांप्रदायिक रंग दे दिया था। गांधी जी अंग्रेजों के इस षणयंत्र को समझ रहे थे। इसीलिए वे ज़ोर देकर कह रहे थे कि राष्ट्रभाषा के रूप में वे जिस संपर्क भाषा हिंदी की बात कर रहे हैं, यह वही भाषा रूप है जिसका प्रयोग भारत की आम जनता करती है और जिसे देश के हिंदू और मुसलमान दोनों बोलते समझते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि ‘हिंदुस्तानी’ ही जनभाषा के रूप में भारत के एक बड़े हिस्से में मौखिक संप्रेषण व्यापार की भाषा है। गांधी के इस मंतव्य को उनकी पुस्तिका ‘राष्ट्रभाषा हिंदुस्तानी’ (1947) के भीतरी आवरण पर अंकित इस अनुच्छेद से भलीभाँति समझा जा सकता है – ‘हिंदुस्तानी का मतलब उर्दू नहीं, बल्कि हिंदी और उर्दू की वह खूबसूरत मिलावट है जिसे उत्तरी हिंदुस्तान के लोग समझ सकें और नागरी या उर्दू लिपि में लिखी जा सकती हो। यह पूरी राष्ट्रभाषा है, बाकी अधूरी’। हिंदी–उर्दू के बीच अलगाव पैदा करके हिंदू और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक विद्वेष पैदा करने वाली दूषित ब्रिटिश प्रवृत्ति से गांधी जी को आत्मिक कष्ट हुआ था। इस प्रवृत्ति से टकराने के लिए ही उन्होंने ‘हिंदुस्तानी आंदोलन’ खड़ा किया। भाषा के प्रश्न पर गांधी जी को दो स्तर पर जूझना पड़ रहा था – एक ओर राष्ट्रीय एकता के लिए और दूसरी ओर सांप्रदायिक सद्भाव के लिए। हिंदुस्तानी’ के पक्ष में वे यहाँ तक कह चुके थे कि – उत्तर भारत में मुसलमान और हिंदू दोनों एक ही भाषा बोलते हैं (और वह है हिंदुस्तानी –लें)। गांधी जी के लिए हिंदुस्तानी का तात्पर्य उस आम मौखिक परंपरा वाली हिंदी से था जिसमें भाषा–अवमिश्रण के, आदान–प्रदान के और मेलजोल के बीज विद्मान थे, अर्थात जो सदियों से भारत की समन्वित एकात्मकता का माध्यम थी जिसे ‘भाषा–इतिहास’ में कभी हिंदी, कभी हिंदुई तो कभी हिंदी,रेख्ता या खड़ी बोली और उर्दू के नाम से अभिहित पाते हैं।

वे भलीभाँति यह जानते थे और उन्होंने कहा भी कि ‘अंतर पढ़े-लिखे लोगों ने पैदा किया है’। अपने इस कथन की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा कि – ‘इसका अर्थ यह है कि हिंदू शिक्षित वर्ग ने हिंदी को केवल संस्कृतमय बना दिया है। इस कारण कितने ही मुसलमान उसे समझ नहीं सकते। लखनऊ के मुसलमान भाइयों ने उर्दू में फारसी भर दी है और हिंदुओं के समझने के अयोग्य बना दिया है। यह दोनों केवल पंडिताऊ भाषाएँ हैं और इनको जनसाधारण में कोई स्थान प्राप्त नहीं है। यहाँ इस बात की ओर भी ध्यान दें कि खड़ी बोली में जो जन सहभागिता है, रेख्ता में जो मेलजोल का भाव है, या हिंदी में जो जन समान्य की भाषा का रूपांतर है,वह सब गांधी की ‘हिंदुस्तानी’ के भीतर आ सिमटा है।

यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि ‘खड़ी बोली’ मुसलमानों के भारत आने के बहुत पहले से यहाँ मौजूद थी। यही खड़ी बोली (हिंदी) उर्दू का भी मूलाधार बनी। पं. अंबिका प्रसाद वाजपेयी ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी पर फारसी का प्रभाव’(संवत 2016) में वली मौलवी वहीउद्दीन साहब ‘सलीम’ का यह उद्धरण दिया है – ‘हिंदी को हम अपनी जबान के लिए अमल्लुनिसान (भाषा की जननी) और मूलायअव्वल (मूलतल) कह सकते हैं। उसके बगैर हमारी जबान की कोई हस्ती नहीं है’। गांधी जी हिंदी–उर्दू के इसी मूल तत्व की गवाह ‘हिंदुस्तानी’ के पक्ष में खड़े हुए थे।

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हिंदी–उर्दू की तकरार और गांधी

पर क्या कहें अंग्रेजों की भाषा नीति को, जो सांप्रदायिक भाषावाद फैलाने में लिप्त थी। हिंदी – उर्दू के बीच विभाजन रेखा खींचकर इनके बीच की खाई को गहरा करने में जुटी थी। वे कहते भी हैं, और बार–बार इस बात को दोहराते भी हैं कि – हिंदी और उर्दू दोनों भाषाएँ दो भिन्न भाषाएँ नहीं हैं। इसीलिए वे कृत्रिम हिंदी और कृत्रिम उर्दू के पैरोकारों के सामने ‘हिंदुस्तानी’ का परचम लेकर डटकर खड़े हुए। यहाँ अंग्रेजों ने एक और चाल चली, उन्होंने ‘हिंदुस्तानी’ को उर्दू का पर्याय सिद्ध करने का षणयंत्र शुरू कर दिया। उनके पिट्ठू वैयाकरण ‘हिंदुस्तानी व्याकरण’ के नाम पर ‘उर्दू का व्याकरण’ लिखने में लग गए। गांधी जी यह भी देख रहे थे। वे उर्दू –हिंदी के बीच के बढ़ते विभेद से अचरज में थे। पर वे हारे नहीं। इसका समाधान उन्होंने अपनी ज़िंदगी में ही ढूंढा। तर्क दिए, बहसें कीं,समझावन की, विरोध सहे। यह सब गांधी चिंतन में लिपिबद्ध है। अंतत: वे अपनी बात कहते–कहते ही चले गए। गांधी के चले जाने के बाद हिंदी–उर्दू के उलझे प्रश्न को सुलझाने के यत्न कई भाषाविदों ने जारी रखे जिनमें धीरेन्द्र वर्मा, किशोरी दास वाजपेयी, रामविलास शर्मा, रवीन्द्र नाथ श्रीवास्तव, अशोक केलकर और पं. विद्यानिवास मिश्र का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है।

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लिपि का प्रश्न और गांधी

हिंदी–उर्दू के बढ़ते विभेद से गांधी जी खिन्न थे। एक जगह तो उन्होंने यह भी कह दिया है कि – ‘हम हिंदी – उर्दू के झगड़े में पड़कर अपना बल क्षीण नहीं करेंगे। लिपि की कुछ तकलीफ जरूर है। राष्ट्र में दोनों को स्थान मिलना चाहिए। इसमें कुछ कठिनाई नहीं है। अंत में जिस लिपि में ज्यादा सरलता होगी, उसकी विजय होगी’। यहाँ ध्यान दें कि हिंदी – उर्दू अस्मिता का प्रश्न लिपि की अस्मिता का प्रश्न भी बन गया था। हिंदू–मुसलमान एक होकर रहें इसलिए उन्होंने दोनों लिपियों में ‘हिंदुस्तानी’ लिखने की बात कहीं थी। गांधी जी समन्वय की भाषा, सम्प्रेषण की उस मौखिक भाषा ‘हिंदुस्तानी’ को राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन करने की जद्दोजहद कर रहे थे और समस्या आ खड़ी हुई लिखी जाने वाली भाषा के लिपि चयन की, (अर्थात वही कृत्रिम हिंदी, कृत्रिम उर्दू को लिखे जाने की)। गांधी जी के सपने टूटने के कगार पर थे। भाषा को लिखने का माध्यम ‘भाषाई अस्मिता’ का प्रश्न बना दिया गया था। इसीलिए लिपि के प्रश्न को ‘परेशानी का कारण’ मानते हुए उन्होंने दोनों लिपियों के प्रयोग की स्वीकृति दी थी। इस स्वीकृति के लिए उन्हें घोर विरोध का भी सामना करना पड़ा – यह सब लिखित रूप में दर्ज है। गांधी की यह दृढ़ मान्यता थी कि इस प्रकार के लेखन से उच्च हिंदी या उच्च उर्दू को बढ़ावा नहीं मिलेगा। पं. विद्यानिवास मिश्र ने कहीं यह व्यंग किया था कि ‘उर्दू के धनी–धौरी नागरी लिपि से लाभ तो लेना चाहते हैं, पर अलग लिपि के बिना उन्हें अपना अस्तित्व प्रमाणित नजर नहीं आता’। गांधी के सामने भी कुछ ऐसा ही प्रश्न खड़ा था जहाँ एक संप्रदाय अपनी लिपि की मान्यता का अनावश्यक आग्रह कर रहा था,जिस पर गांधी को समझौते का मार्ग भी अपनाना पड़ा और जिससे वे विलग हुए अपनी मृत्यु के ठीक पाँच दिन पहले ‘हरिजन सेवक’ (25 मार्च, 1948) में यह लिखकर कि ‘ नागरी और उर्दू लिपि के बीच में जीत नागरी की होगी’।अपने अंतिम दिनों तक गांधी जी भाषा के माध्यम से राष्ट्रीय एकता एवं सांप्रदायिक सद्भाव के लिए लड़ते रहे। देश–विभाजन ने उनके भाषाई–सौहार्द्र के सपने को चकनाचूर कर दिया था। गांधी का भाषा चिंतन राष्ट्र निर्माण के सपने से संबद्ध था। उन्होंने ‘सच’ के बल पर अपनी बातें कहीं। संपर्क भाषा, राष्ट्रभाषा, शिक्षा में भाषा, स्वभाषा गौरव पर विचार किया। राष्ट्रभाषा हिंदी और हिंदुस्तानी के प्रचार–प्रसार के लिए प्राणप्रण से जुटे। भारतीय भाषाओं और उनके साहित्य को भरपूर मान दिया।

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गांधी के भाषा चिंतन के आयाम

गांधी जी ने जीवन भर हिन्दी में बोलने का प्रण ले रखा था। अपनी विनम्रता के चलते वे यह कहते रहे थे कि ‘मेरी हिन्दी अच्छी नहीं है’ या यह भी कि ‘मैं भारत कि भाषाओं को बोलने वालों के मन की बहुत अच्छे से नहीं जनता’ पर वे दोनों ही को खूब जानते-पचानते थे। उनकी खुद की हिन्दी सरल संप्रेषणीय और मर्मभेदी हिन्दी का ऐसा वाजिब पाठ है जिसने भारत के जनसमूह (चाहे वे किसी प्रांत के हों) की आत्मा को झकझोर कर रख दिया था। दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा वे आते रहते थे। मेरे चेन्नई प्रवास के दस वर्षो में कई बुजुर्ग हिन्दी सेवियों ने अलग-अलग शब्दों में यह बताया था कि अपनी प्रार्थना समाओं में गांधी जी हिन्दी में अधिक से अधिक दस वाक्य बोलते थे जो श्रोताओं पर सीधी चोट करते थे। उनकी बोली-गई हिन्दी के रिकार्ड सुन कर या उनकी लिखी हिन्दी पढ़ कर ‘भाषा की सरलता’ से उनका क्या तात्पर्य था, इसका पता चल जाता है।

गांधी जी अंग्रेजी भाषा को अतिरिक्त महत्व देने के सख्त खिलाफ थे। बनारस में (1916) जब उनका स्वागत अंग्रेजी मे किया गया तो उन्होंने खूब फटकारा और यहाँ तक कह दिया कि ‘हिन्दी भाषी प्रांतो में अंगेजी ज्यादा झाड़ते हैं और अंग्रेजी कि गुलामी में प्रसन्न हैं’। शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व को उन्होंने चुनौती दी। गांधी जी का मानना था कि शिक्षा का संदर्भ राष्ट्र की प्रकृति के अनुरूप होना चाहिए जब कि ब्रिटिश शासन द्वारा निर्धारित शिक्षा के आधार भूत सिद्धांत राष्ट्र विरोधी थे। गांधी जी ने अंग्रेजी शिक्षा का विरोध करते हुए कड़े शब्दो में यह कहा था कि – ‘करोड़ो लोगो को अंग्रेजी कि शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है’। अंग्रेजी पोषित भारतीय शिक्षा-पद्धति को गांधी जी भारत को गुलाम बनाए रखने की सजिश मानते थे –‘मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी’। भारतीयों के अंग्रेजी मोह की भी उन्होंने कस कर भर्त्सना की। कांग्रेस की सभाओं में लोगो को अंग्रेजी में अपनी बात कहते हुए सुनकर उन्होंने कहा था कि –‘यह कितने दुख की बात हैं कि हम स्वराज की बात भी पराई भाषा में करते हैं’। काशी में (1916) नागरी प्रचारिणी सभा के सम्मेलन में उन्होंने वकीलों और छात्रों से अंग्रेजी का प्रयोग छोड़ कर हिन्दी का व्यवहार करने की अपील की थी। 1916 मे ही स्वभाषा: स्वराज विषय पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय के अपने ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने खुलकर कह दिया था कि – ‘विदेशी भाषा में बोलना स्वदेश में अप्रतिष्ठा और अपमान की बात है’। गांधी जी कि दृष्टि में अंग्रेजी बनाम भारतीय भाषाओं का परिदृश्य एकदम स्पष्ट था। उनका दृढ़ विश्वास था कि भारतीय भाषाओं की निकटता, चाहे वह भाषाई हो या सांस्कृतिक, जिस तरह की है, वहाँ तक अंग्रेजी भाषा की पहुँच हो ही नहीं सकती।

भारत में भाषाओं के सहअस्तित्व को वे भारत की सबसे बड़ी शक्ति मानते थे। समाज, भाषा और संस्कृति के अंतस्संबंधों की उन्होंने सटीक ढंग से विवेचना की है। गांधी जी का जीवन से गहरा संबंध था। वे भारतीय लोक और उसकी आकांक्षाओं को नजदीक से जांच-परख चुके थे। इसीलिए भाषा को उन्होंने जीवन और समाज के सामने रख कर देखा। एक समाजचेता भाषाचिंतक की तरह।

संभवत: इसीलिए भारतीय भाषा यथार्थ के मूल तक गांधी की सजह पहुँच थी। इतनी सहज कि उनकी वाणी ने साहित्यकारों को आंदोलित कर सृजनात्मक लेखन में ‘हिंदुस्तानी’ के प्रवाह को समोने के लिए प्रेरित कर दिया। हिन्दी में प्रेमचंद इसके शीर्ष प्रवक्ता बने।

संक्षेप में कहा जाय तो गांधी का भाषा-चिंतन उनके अपने व्यावहारिक अनुभवों के मंथन का परिणाम है। उनके इस चिंतन में तत्कालीन भारत का वर्तमान और ‘हिन्द स्वराज’ वाले भविष्य का परस्पर द्वन्द मुखरित है। भाषा पर बात शुरू करते ही उनके समक्ष पूरा राष्ट्र और उसके लोग खड़े हो जाते थे। वो लोग जो अपने दैनिक व्यवहार में आमफहम हिंदुस्तानी बोलते थे और वे भी जो हिन्दी का प्रयोग संपर्क भाषा (लिंक लैंग्वेज) या व्यापक संप्रेषण की भाषा (लैंग्वेज फार वाइडर कम्युनिकेशन) के रूप में भारत के हर प्रांत में कर रहे थे। गांधी जी का विरोध भी हुआ। उनसे कई प्रश्न भी पूछे गए। बहसें की गईं। उधर ब्रिटिश शासन भारतीय बहुभाषिक यथार्थ को वैमनस्य और संघर्ष में बदल डालने पर आमादा था। पर गांधी जी अपनी राह चलते रहे। भाषा पर किसी राजनेता की गांधी जी जैसे गहरी संलग्नता उनके समय के और आज के भी किसी नेता में दिखाई नहीं देती। इस मामले में गांधी जी अपनी मिसाल आप हैं। उनके भाषा संबंधी विचारो के पीछे भारत का भाषिक यथार्थ मुखरित है अत: इनका बारंबार विवेचन करने की जरूरत आज भी है और आगे भी हमेशा पड़ती रहेगी।

निदेशक
लुप्तप्राय भाषा केंद्र
इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय अमरकंटक (म॰प्र॰)
मो॰ 8989105802

शनिवार, 28 जून 2014

लाल रेखा - कहाँ कहाँ से गुजर गया

किताबों के बहाने - 8                                                 प्रो. दिलीप सिंह 

लाल रेखा/ कुशवाहाकान्त/
चिंगारी प्रकाशन/ वाराणसी/
प्रकाशन वर्ष - 1954/ मूल्य - 3रु.