किताबों के बहाने - 1
- प्रो. दिलीप सिंह
कलम कुल्हाड़ा लेखक : कौतुक बनारसी प्रकाशक : आनंद पुस्तक भवन, वाराणसी वर्ष : 1949, मूल्य : 2 रुपए पचास पैसे तीसरा संस्करण : 1963 (जो मेरे पास है) |
[यह शृंखला आलोचना तो कतई नहीं
है। समीक्षा भी इसे नहीं कहा जा सकता। यह किसी पढ़ी गई रचना के साथ पाठक की संलग्नता
के आड़े-तिरछे पहलुओं पर बस ज़हन पर अंकित असरों के ठहर जाने की कैफ़ियत है। साहित्य और
साहित्य पर किताबें पढ़ते समय भी ऐसा शायद सबको लगता है कि अरे! ऐसा ही तो मैं भी सोचता
हूँ, इसने तो मेरे मन की बात कह दी, यह पात्र या जगह तो मेरी भी जानी-पहचानी है........।
पढ़ते समय कई बार यह भी तो होता है कि हमारी अपनी ज़िंदगी
के
साथ कुछ प्रसंगों, कथनों, भावों का रिश्ता जुड़ जाता है। यह सब होता है। पर
हमारी आलोचना इन बातों का ख्याल नहीं करती। तो क्या आलोचक किसी रचना को एक पाठक की
तरह नहीं पढ़ता? क्या सिर्फ़ आलोचकीय औज़ार ही रचना के अच्छे–बुरे या प्रभावकारी होने
की कसौटी हैं? क्या कोई रचना पढ़ जाने के बाद हमारी ज़िंदगी से कट जाती है?
मेरे साथ यह सब नहीं होता, आप के साथ भी अवश्य ही न होता होगा। कुछ पढ़ते समय काफ़ी कुछ
हमारे आसपास से, हमारे आसपास का जुड़ने लगता है। आगे के जीवन में भी यह जुड़ाव मिटता
नहीं धुंधला तक नहीं पड़ता बल्कि निरंतर घुमड़ा करता है और कभी सामने आ खड़ा हो कर समझाता,
सहलाता, चेताता, या हँसाता-रुलाता और रास्ता दिखाता है।
यह भी बात पढ़ने
में खास हो जाती कि हमने किसी रचना को कब पढ़ा – किस उम्र में, तब हम किस कक्षा में
पढ़ रहे थे। कैसे और कहाँ से मिली थी वह किताब या किसने हमें दी थी? कहाँ बैठ कर (या
लेट कर) पढ़ा था उसे? स्कूली जीवन में पढ़ी गई कोई किताब बरसों बाद फ़िर से हाथ लग जाए
तो पढ़ते समय पहली बार पढ़ी जाते समय कौन-सी बातें पकड़ाई में नहीं आईं थीं, उन्हें पकड़
पाने का आनंद भी तो बाद में पढ़ने पर भरपूर आता है। किससे-कब
किसी किताब पर बातचीत हुई किसी किताब या लेखक पर किसी संगोष्ठी में क्या-क्या चर्चाएँ
हुईं जिनसे अपने पढ़े-समझे में सुधार हुआ या कोई और हमारी बातचीत-चर्चा से सुधरा। ये
बातें पाठक के रूप में मेरे मन में बसी रहतीं हैं इससे इनकार नहीं। किताब के साथ बहुत
कुछ असंबद्ध भी आ जुड़ता है – अखबार की कोई ख़बर, कोई फ़िल्म, किसी फ़िल्म का कोई गीत
– और भी न जाने क्या-क्या! इस विचार शृंखला
में ऐसी ही बहकी-बहकी दृश्यावलियाँ आपको मिलेंगी।
अपने संदर्भ में मैं इन्हें पाठक की रचनाधर्मिता के अहम पड़ाव मानता हूँ। शायद इस भूमिका
से सब कुछ साफ़ न हो सका हो क्योंकि एक किताब हमें कब, क्या
और कैसे दे जाती है इसका सही बयान किसी पढ़ी जा चुकी किताब को मन-दर्पण के सामने रख
कर ही किया जा सकता है। तो चलिए किताबों के बहाने आप के साथ अपने ज़हन की कैफ़ियतों को
साझा करूँ। और इस बहाने और भी बहुत सारी बातों को भी, जो किताब, उसके लेखक, अपने और
उसके माहौल को अपनी समझ में उतारती रही हैं और पढ़ने की क्रिया को और भी आत्मीय, और
भी प्रेरक, और भी जागरूक बनाती रही हैं।]
यह किताब पहली बार नवीं या दसवीं कक्षा में पढ़ी थी।
स्कूल लाइब्रेरी से ले कर। तब ऐसी ही किताबें रुचती थीं। समय 1965-1966 का जब घर पर
“धर्मयुग”, “साप्ताहिक हिंतुस्तान” नियमित आते थे। “मुसीबत है”, “कार्टून कोना ढब्बूजी”
सभी सबसे पहले पढ़ते थे – एक के कार्टूनिस्ट रवींद्र थे दूसरी के आबिद
सुरती। धर्मयुग का “बैठे-ठाले” और “साप्ताहिक हिंदुस्तान” का “फ़ुरसत से” स्तंभ अच्छा
लगता था। बनारस के बेढब बनारसी, बेधड़क बनारसी और सूँड़ बनारसी भी इनमें छ्पते थे। फ़िर
होली के अवसर पर दोनों साप्ताहिकों के “होली अंक” और होली अंक के अगले सप्ताह ‘साप्ताहिक
हिंदुस्तान’ का “व्यंग्य विनोद विशेषांक”। ये तीनों मजेदार अंक
होली के पहले ही मिल जाते थे। बनारस का दैनिक “आज’ भी घर पर आता था। इसके मुखपृष्ठ
पर ऊपर केंद्र में कांजीलाल का कार्टून छपता था। कृष्णा मेनन, सर्वपल्ली राधाकृष्णन,
चंद्रभान गुप्त के कार्टून आज भी याद हैं। इन सब को देख भी चुका था। तब इस किताब के
तीसरे पृष्ठ पर यह पढ़कर मन मुदित हो गया था _____ चित्रकार _______ कांजीलाल। मुख पृष्ठ
पर सींकीया पहलवान-सा लेखक हथियार की तरह अपने जितनी लंबी कलम दोनों हाथों से पकड़े
हुए है। अन्नपूर्णानंद वर्मा और बेढब बनारसी आदि की
कई किताबों के कवर भी कांजी लाल ने बनाए थे।
किताब के प्रकाशक के सामने नाम लिखा था – संपूर्णानंद,
एम.ए.। ये हमारे ही विद्यालय में हिंदी के अध्यापक थे। हम इन्हें रोज देखते थे। मुझे
गर्व हुआ था, तब कि वे उस किताब में भागीदार हैं जिसे मैं पढ़ रहा हूँ। ग्यारहवीं–बारहवीं
में उन्होंने हमे हिंदी पढ़ाई फ़िर उनके दो पुत्र दयानन्द और श्रद्धानंद
मेरे
अभिन्न मित्र बने। अगले कुछ सालों में कौतुक की कई किताबें पढ़ डाली – कलम की कमाई,
करमकल्ला, कपोल कल्पना, कुछ कच्चा कुछ पक्का, किचकिच, और कौवारोर। सब एक से बढ़ कर एक।
तब न सोच पाया था आज मालूम होता है कि “क’ वर्ण से कौतुक को विशेष प्रेम था जैसे कि
आज फ़िल्मकार राकेश रोशन को है जिनकी हर फ़िल्म का नाम “के” से शुरु होता है। अपना “पेन
नेम” भी उन्होंने इसी वर्ण को महत्व देते हुए रख रखा था। वैसे उनका नाम था शिवमूर्ति
शिव मिश्र: जन्म: 1923 बनारस में| 1943 से दैनिक “आज” के संपादकीय विभाग में पत्रकार
का जीवन आरंभ किया। संगीत, व्यंग्य चित्रकला और हास्य-अभिनय में भी कौतुक की स्वांत:
सुखाय रुचि थी। हास्य कवि भी थे। “संसार” और “तरंग” जैसे पत्रों के लिए भी कौतुक ने
काम किया। इस किताब की भूमिका हिंदी के धुँआधार हास्य-व्यंग्य लेखक जी.पी.श्रीवास्तव
ने लिखी है जिन्हें “हास्य सम्राट” कहा जाता था। श्रीवास्तव जी गोंडा में वकील थे,
मेरे पापा के परिचित थे, दोंनों का वकालती संबंध भी था। वे हमारे यहाँ आते-जाते भी
थे। पापा के पास उनकी कई किताबें थीं, एक थी “लतखोरी लाल” जिसे मैंने इसी दरम्यान पढ़ा
था। बाद में बाकी किताबें भी पढ़ीं। अभी हाल ही में उनके हास्य निबंधों का संग्रह “बीरबल
ज़िंदा है” पढ़ रहा था। कलम के जोर से हँसी के फ़ौवारे छुड़वाने
में सिद्धहस्त थे श्रीवास्तव साहब। कलम में कितनी ताकत होती है यह उन्हीं को पढ़ कर
पहली बार महसूस हुआ था। भूमिका में श्रीवास्तव जी ने कई गंभीर बातें भी कही हैं। विद्यार्थी
गांठ बाँध लें क्यों कि मोटी–मोटी पुस्तकों में भी इतनी संजीदा बातें उन्हें न मिलेंगी
–“व्यंग भी हास्य का ही एक अंग है। इसकी उत्पत्ति शब्दों के उत्तम चुनाव से होती है।
इसका उद्देश्य सदा बुराइयों को दूर करना रहता है। इस तरह व्यंग हँसमुख सुधारक का काम
करता है।“ आगे वे कहते हैं “व्यंग अपनी हँसमुख प्रकृति से हृदय और दिमाग को अपनी मुट्ठी
में कर लेता है। अत: इसका प्रभाव कभी निष्फ़ल नहीं जाता।“ इन बड़ी-बड़ी बातों में यह भी
शामिल है कि व्यंग्य रचना की सफ़लता अपूर्व कल्पना और अनोखी निरीक्षण शक्ति पर निर्भर
करती है। साथ ही भाषा, विषय, मानवीय प्रकृति तथा सैली में भी काफ़ी सवधानी दरकार है
अन्यथा “तनिक सी लापरवाही से इसका सारा कारबार चौपट हो जाता है”। अब आप समझ गए होंगे
कि हास्य-व्यंग्य लिखने वाले कितने गंभीर होते हैं और इसे लिखने के लिए कितनी रचनात्मक
क्षमता और कौशल की जरुरत पड़ती है। अब “कलम कुल्हाड़ा” पर श्रीवस्तव जी की टिपण्णी भी
पढ़ लें “प्रस्तुत संग्रह कौतुक बनारसी के अनमोल व्यंग निबंधों का है। व्यंग क्षेत्र
में आपकी लेखनी कैसा चमत्कार दिखाती है, यह हिंदी संसार से छिपा नहीं है। आपकी भाषा
साफ़ और सुथरी है। शैली भी आपकी निराली और अपनी है जो रिझाती और गुदगुदाती है। इन निबंधों
में सजीवता और रोचकता ऐसी है जो मन को लुभाए रखती है कि छोड़ने का जी नहीं चाहता”। इस
“सर्टिफ़िकेट” से आप कौतुक बनारसी के रचना कौशल को भली-भँति बूझ चुके होंगे पर कौतुक
खुद अपनी “पैरवी” (भूमिका) में क्या कहते है यह भी सुन लीजिए “ढूँढने से इस किताब में
बहुत कम गुण दिखाई पड़ेंगे जैसे यह बहुत मोटी नहीं है, विचारों में सागर-सी कौन कहे
कुँए–सी भी गहराई नहीं है, भाषा में संस्कृत शब्दों का अभाव है और विषय ऊल-जलूल है।
मगर एक झुंड कमियों के होते हुए भी मेरे मित्रों का आग्रह था तो निबंधों की यह किताब
छप कर आ गई है। यदि इस किताब से आपका कुछ लाभ हुआ हो तो वह आपके पढ़ने का, यदि नहीं
तो वह मेरे लिखने का फ़ल है”। कौतुक की शैली की तेज़ धार का अंदाजा इन चंद सतरों से ही
आपको अवश्य हो गया होगा।
चलिए, अब पैठा जाए “कलम कुल्हाड़ा
के भीतर। पर एक बात और सुन लीजिए पहले कि इस तरह के ”ऊल-जलूल” हास्य
लेखन की सशक्त परंपरा काशी में रही है और कौतुक इसके प्रमुख झंडाबरदा्रों में से एक।
बनारस के पुराने दिनों में टाउन हॉल के मैदान में नुमाइश लगा करती थी। नवंबर अंत से
दिसंबर अंत तक। पूरे मैदान की गोलाई में दुकानें लगती थीं – टिनशेड में। ऊनी कोट, मफ़लर,
टोपी से लैस औरत-मर्द-बच्चे दीख पड़ते थे। भुनी मूंगफ़ली जेब में भरे या गुप्ता जी के
चने चबाते हुए, जो इलाहाबाद से आ कर स्टॉल लगते थे। जब तक मैंने नुमाइश देखी (सालों
देखी)। गुप्ता जी की दुकान घुसते ही दाईं तरफ़ होती थी। नुमाइश के आखिरी दिन कवि सम्मेलन
और मुशयरा होता था – रात नौ से बारह बजे तक। कड़कड़ाती ठंड में। उस दिन लोग कंबल ले कर
पहुँचते थे – सिर से कंबल ओढ़े ढेरों लोग बैठे दिखाई देते थे, ज़मीन पर। इसी तरह के एक
नुमाइशी मुशायरे में कौतुक को सुना था। फ़िराक़ गोरखपुरी भी थे और ख़ामोश गाज़ीपुरी भी
(जिनकी उस समय चढ़ी हुई थी)। यह आयोजन उत्तर प्रदेश के कवियों/ शायरों का होता था –
आज़गढ़, गोरखपुर, बलिया, देवरिया, मेरठ, बरेली, लखनऊ से इनकी आमद होती थी। मुझे याद है खा़मोश गाज़ीपुरी
ने एक गज़ल सुनाई थी जिसका मतला था – हँसने के नतीजे पर यह आँख जो भर आई, हाँ हमने ख़ता
की थी हाँ हमने सज़ा पाई। खामोश के गले में भी दम था और कलाम में भी, सो धूम मच जाती
थी। कौतुक ने एक हास्य कविता सुनाई थी, उसकी भी कुछ पंक्तियाँ मुझे याद रह गईं थीं।
इस कविता का उपयोग कौतुक ने अपने किसी लेख में भी किया था, पढ़ कर उस मुशायरे की याद
ताज़ा हो गई थी। मुझे कविता का पहला बंद हमेशा याद रहा। आप पूरी कविता सुनिए—
मुझ कविवर को प्यार न दोगे?
देख निशा की सुन्दर बेला, फ़ेंक
रहा है कोई ढेला
फ़ूटे अपना इसके पहले, उसका
फ़ोड़ कपार न दोगे?
चल न सकेगा आज बहाना, कल ससुराल
मुझे है जाना
बहुत दिनों से माँग रहा हूँ,
अपना कोट उधार न दोगे?
मुझ पर तुकबंदियाँ बनाता, कपि
कपि कह कर मुझे चिढ़ाता
दुष्ट तुम्हारा है वो बेटा,
उसकी चाल सुधार न दोगे?
कुछ इज़्जत पाने आया हूँ, कविता
छपवाने आया हूँ
पुरस्कार क्या छप जाने पर,
एक अंक अखबार न दोगे
मुझ
कविवर को प्यार न दोगे?
क्या तो माहौल था। हर प्रश्न वाचक वाक्य के आते ही श्रोता
पागल हो जा रहे थे। कौतुक लचक-लचक कर सुना रहे थे। वे कपार फ़ोड़ने के लिए बेढब की तरफ़
इशारा करते तो उधारी कोट के लिए बेधड़क की ओर। लड़के को सुधारने का इसरार वे शंभुनाथ
सिंह से कर रहे थे तो पारिश्रमिक के रूप मे अखबार का एक अंक देने की गुहार ठाकुर प्रसाद
सिंह से लगा रहे थे। अफ़सोस कि इस सम्मेलन में एक ही रचना सुनाने की बंदिश थी। फ़िराक़
ने अपनी चाँद वाली नज़्म सुनाई थी।
“कलम कुल्हाड़ा” बहुत मोटी नहीं
है – एक सौ पैंतालिस पृष्ठों में उन्तीस निबंध हैं। पहली बार पढ़ा तब उम्र और माहौल
के लिहाज़ से “गांधी जी को श्रद्धांजलि” और
“कुछ घरेलू दवाएँ” अच्छी लगी थीं। जब न तब बार-बार इन्हें पढ़ता था। गाँधी जी की हत्या
जनवरी अंत – 1948 में हुई थी। कितना कुछ लिखा गया होगा। मेरे घर में एक फ़ोटो टंगी थी
जिसमें वृत्ताकार और विकासक्रम से गाँधी जी के छोटे-छोटे चित्र थे। सात-आठ साल के गाँधी
जी गोल कढ़ाई वाली टोपी और बंद कोट में, फ़िर मैट्रिक में , फ़िर वकालत पास करने पर, स्वयं
सेवी के रुप में डंडा और धोती-कुर्ता धारण किए हुए, डांडी यात्रा में आगे-आगे कदम बढ़ाते
हुए, सागर तट पर मुट्ठी में नमक उठाते हुए, भारत छोड़ो आंदोलन का भाषण दोनों भुजाएँ
उठा कर देते हुए, फ़िर अपने आश्रम में चरखा कातते हुए। तस्वीर के बीच की खाली और अपेक्षाकृत
बड़ी जगह में उनकी प्रज्वलित चिता का चित्र; चिता के पास एक फ़ैली हुई माला जिसके बीच
में “हे राम” अंकित था। यह तस्वीर हमारे खाने के कमरे में लगी थी। रोज़ दिखाई पड़ती।
हर तस्वीर के नीचे छोटे-छोटे कैप्शन – बचपन में, किशोरावस्था में, बैरिस्टर गाँधी आदि।
जब “कलम कुल्हाड़ा” पढ़ी तब तक आत्म कथा (सत्य के प्रयोग) पढ़ चुका था। मेरा जन्म
1951 में हुआ। पर गाँधी का प्रभाव घर-घर में होश आने के दिनों से साफ़ दिखाई पड़ने लगा
था। यही असर था कि गाँधी जन्मशती वर्ष (1969) वाली नुमाइश में गाँधी आश्रम के स्टॉल
से गाँधी जी की बड़ी-सी तस्वीर पाँच रुपये में खरीदी थी और लहुराबीर पर डीसीएम की बगल
वाले “फ़्रेम हाउस” में मढ़वा कर घर के ओसारे में टाँगी थी जो निरंतर वहाँ रही। इस चित्र
में गाँधी जी शांत मुद्रा में आँखें बंद किये बैठे थे। चश्मे के भीतर मानो एक संत के
चक्षु हों। चादर पीठ की ओर ओढ़ा हुआ था जिसके किनारे दोनों कंधों पर अटके हुए थे। “कौतुक”
ने अपनी अदभुत कल्पना शक्ति से गाँधी की हत्या पर आम आदमी की प्रतिक्रियायों को उनकी
अपनी भाषा में व्यक्त किया है। व्यंग्य या हास्य का काम सिर्फ़ हँसाना नहीं है। मर्मिकता
भी इनके माध्यम से कैसे पैदा की जा सकती है, इसका उदाहरण है यह निबंध। पूरा निबंध एक
श्रृंखला है जिसमें कौतुक ने गाँधी को कैसे-कैसे तो देखा है –
खदेरू की माता जी ने कहा : राम! राम! साधुओ-महातमा के मुँह फ़ुँकवना मार
डललें सब। दुनियाँ कवने रसातल में जाई हे भगवान! (राम! राम! साधु-महात्मा को भी मुँहफ़ुकौनों
ने मार डाला। हे भगवान! दुनिया किस रसातल में जायेगी।)
सहदेव पहलवान ने कहा : गांधी जी वीर थे,
बहादुर थे, नंबर एक लड़ाका थे। उन्होंने अंग्रेजों को ऐसे दाँव से अंटाचित्त उठा पटका
कि उनकी आई-बाई पच गई।
सफ़ेरु खाँ जुलाहे ने कहा : अल्लाताला! यह तूने
क्या किया? गान्ही जी ने जुलाहों के लिए क्या नहीं किया? उन्होंने दुनिया को बता दिया
कि जुलाहा बने बिना दुनिया में गुजर नहीं। ऐ खुदा, तूने हमारे सबसे बड़े जुलाहे बिरादर
को उठा लिया। हमारी तूने कमर तोड़ दी।
बुद्धू झाड़ू लगाने वाले ने कहा : गांधी जी हरिजनों
के सबसे बड़े नेता थे। वे हमसब के सबसे बड़े चौधरी थे।
लछिमन पंडा ने कहा : उन्हीं का परताप है कि अब मंदिरों में सब कोई
छोट-बड़ घुस पावत हैं जेहका वजह से चार पैसा हमनी क आमदनी बढ़ गई।
दशाश्वमेध घाट पर नहाने वाली एक बुढ़िया ने कहा : अच्छा होत भगवान,
तू उनकी जगह हमके मौत देहले होता। (अच्छा होता भगवान, तूने उनकी जगह मुझे मौत दी होती।)
एक तरकारी बेचने वाले ने कहा : जे गान्ही जी मरलेस
ओकर सरबनास हो जाय। (जिसने गांधी जी को मारा उसका सर्वनाश हो जाय।)
हिंदी की भाषा-शैली की निराली छटा इस निबंध की जान है।
सामाजिक शैली का निर्वाह भी खूबी के साथ हुआ है।
“कुछ घरेलू दवाएँ” ने किशोरावस्था
में गुदगुदाता मज़ा दिया था। तब हमारी उम्र के कई दिलफ़ेंक रिक्शे से स्कूल जा रही किसी-न-किसी
लड़की को पीछे-पीछे साइकिल पर चलते हुए स्कूल तक पहुँचाने और स्कूल से घर की गली तक
छोड़ने का काम एकाध मुस्कान की कीमत पर महीनों किया करते थे, अनथक। कौतुक ने ऐसे आशिकों
के लिए कुछ नुस्खे दिए हैं – पता नहीं आजकल ऐसे आशिकों का वजूद है भी कि नहीं, अगर
होगा तो उन्हें इन घरेलू दवाओं से अवश्यमेव लाभ मिलेगा –
प्रेम की बीमारी : यह बीमारी चपत और दुतकार का
काढ़ा पीने से शीघ्र दूर हो जाती है। जिन्हें यह काढ़ा नसीब न हो वे खुशामद की सोर (जड़)
एक माशा, बेहयाई के पत्ते तीन तोला और आवारगी की छाल दो पाव ले कर कूट-पीस कर तीन पाव
पानी में पकावें जब पानी पकते-पकते एक पाव रह जाय तब नित्य सुबह पीयें। बुखार शीघ्र
उतर जाएगा।
कलेजे में चोट : यह चोट बहुत बुरी होती है।
चोटइल लोग कृपा की जड़ एक अंगुल, अनुरोध के दस पत्ते, याचना की छाल दो भर लें। धूप में
सुखावें और सूखने के बाद कूट कर फ़ंकी बना लें। बकरी के दूध के साथ सुबह-शाम सेवन करें।
शीघ्र आराम होगा।
आँख लड़ने पर : इसकी दवा बहुत जरूरी है। इसकी
दवा यह है कि ज्योंही आँख लड़े, संतरे के छिलके का रस आँख में छोड़ दें।
दिल धड़कना : दिल धड़कने की आसान दवा है
कि व्यायाम किया जाय। व्यायाम यों है कि – दायें हाथ से बायाँ कान पकड़ें, बायें हाथ
से दायाँ। दस बार इसी मुद्रा में उठे-बैठें। दो मास के बाद दिल की धड़कन ठीक हो जाएगी।
कल्पना की उड़ान की भी हद होती
है। वैसे इसी संग्रह में कौतुक का एक अत्यंत रोचक हास्य-लेख है – “बेवकूफ़ी की हद नहीं
होती”। बनारसी हास्य में इस तरह की शैतानियाँ खूब मिलती हैं जो पाठक के दिमाग को ग़िज़ा
तो देती ही हैं और तेज़ भी करती हैं। “कलम कुल्हाड़ा” की शेष रचनाएँ कवियों, कवि सम्मेलनों,
संपादकों, छपास की बीमारी, साहित्यिक ठगी पर प्रकाश डालती हैं, खास अपने तरीके से।
कौतुक की इन सभी में खासी घुसपैठ थी। उनके इन निबंधों से यह साफ़ पता चलता है कि वे
साहित्य पढ़ते थे और फ़िर अपनी तरह से उसे बरतते थे। इन निबंधों में उन्होंने ढेरों साहित्यकारों
के नाम भी लिए हैं और ‘पैरवी’ में कहा है – “किताब में अनेक श्रद्धेय महानुभावों के
नाम आए हैं, यदि आपको फ़ज़ूल लगे तो लेखक की लाचारी समझ कर क्षमा कर दीजिएगा, यदि उचित
लगे तो कोई शाबासी का कार्ड भेजने का कष्ट मत उठाइएगा”। मैंने एम.ए. करते हुए जब दसवीं
या बीसवीं बार यह संग्रह पढ़ा तो इन साहित्य-मार्का हास्य लेखों ने अजीब-सी चुलबुली
पैदा कर दी थी। साहित्यिक ठगी,
यानी एक ही रचना को कई जगह छपने भेज देना, कुछ रचनाओं की कतरनों से एक नई रचना तैयार
कर देना, कुछ शब्द-पंक्तियाँ बदल कर किसी सशक्त रचना को अपनी बना लेना, जैसे साहसिक
कृत्यों को कौतुक “कला” का दर्जा देते हैं, इस सुझाव के साथ कि “साहित्यिकों को इस
कला का सम्मान करना चाहिए”। अखिल स्वर्गीय
कवि सम्मेलन इंद्र के दरबार में नारद जी के संयोजन में आयोजित कवि-गोष्ठी की
अनूठी झाँकी है। भारतेन्दु बाबू अध्यक्षता कर रहे हैं। आचार्य शुक्ल, महावीर प्रसाद
द्विवेदी, जयशंकर प्रसाद, महाकवि चच्चा ही नहीं इस काव्य संध्या में रसखान, सूरदास
जी, केशव जी और भूषण भी मौजूद हैं। इस लेख की घटनाएँ और टिप्पणियाँ जानमारू हैं –
“शुक्ल जी यहाँ कभी न आते, लेकिन भारतेंदु बाबू का निमंत्रण
था इसलिए आना पड़ा”,
“गोसाईं जी ने बस दो चार चौपाइयाँ सुनाईं, द्विवेदी जी पर स्नेह था इसलिए मंच पर आए।”, “केशव जी ठीक-ठाक कह रहे थे पर श्रोता जल्द ही ऊब गए”।, “प्रसाद जी का नाम पुकारा गया। प्रेमचंद के साथ चल रही बातचीत छोड़ कर उठ खड़े हुए और ‘आँसू’ के छंद सुनाने लगे”। कहना न होगा कि यह होली के अवसर पर एक स्थानीय दैनिक में छपी रपट थी। एक निबंध “साहित्यकारों की खोपड़ी’ भी मज़ेदार है जिसमें प्रगतिशील, रहस्यवादी, ब्रजभाषा के, ग्राम साहित्य रचने वाले साहित्यकरों का “खोपड़ी विवेचन” है। इन श्रेणियों के साहित्यकारों को गहराई से पढ़े बिना ऐसा व्यंग्य नहीं लिखा जा सकता। दो और लेखों की बात जरूर करुँगा जिनकी वस्तु और शैली दोनों बेजोड़ हैं। एक है “अपनी ज़बानी” जिसमें दिनकर, बच्चन, नंददुलारे बाजपेयी, गोपालसिंह नेपाली और जैनेन्द्र कुमार ने अपनी तारीफ़ खुद की है। दिनकर कहते हैं “वादों में जो स्थान धन्यवाद का है, हिंदी जगत में ठीक वही स्थान मेरा है। मैं उछल कूद का कवि नहीं हूँ। मैं हिमालय का कवि हूँ। हिमालय से मेरी दोस्ती है। तूफ़ान मेरे शब्दों में बँधे झूलते हैं। बवंडर मेरी जीभ में सोता रहता है। भूचाल मेरी आँखों की कोर में है। मैंने ‘रेणुका’ से न जाने कितने हीरे पैदा किए। ‘हुंकार’ को घर-घर पहुँचा दिया। मेरी ‘रसवंती’ को कौन भूल सकत है? बलिदानी बहादुरशाह ‘ज़फ़र’ की दिल्ली अंतत: मुझे मिल ही गई”। कौतुक ने दिनकर की नस पहचान ली है, यह तो सिर्फ़ नमूना है “पाठ” का, कहा तो उन्होंने दो पेज में है। ‘बच्चन’ अपने बारे में क्या कहते हैं – ज़रा सुनिए – “मैं बिलकुल कवि हूँ। मैं हाला, प्याला, मधुशाला, मधुबाला ‘वाद’ का बाप हूँ। निशा को पत्र लिखने और निमात्रण देने वाला पागल, एकांत में संगीत टेरने वाला बिसुध, और भी न जाने क्या-क्या हूँ। मैं आपबीती भी लिखता हूँ। ‘सतरंगिनी’ देख रहा हूँ। यह भी समझ चुका हूँ कि ‘नीड़ का निर्माण फ़िर-फ़िर होना चाहिए। ‘जो बीत गयी सो बात गयी’ इसलिए सिर पटक कर फ़ोड़ना नहीं चाहिए। मैं हिंदी का कवि, अंग्रेजी का प्रोफ़ेसर, हृदय का भावुक और शरीर का मजबूत हूँ। मैं सब कुछ हूँ”। अब सुनिए नंददुलारे बाजपेयी “अपनी ज़बानी” क्या कह रहे हैं – “मैं खरा पहचानता हूँ और खोटा भी। चाबुक भी खूब चलाता हूँ। मार्जन आवश्यक समझता हूँ। मैं समालोचक हूँ। मैंने प्रेमचंद को सुनाया है। रामचंद्र शुक्ल को हमउम्र बतलाया है, निराला जी से दोस्ती है। हिंदी साहित्य का इतिहास शुक्ल जी ने पहले लिख दिया नहीं तो मैं ही लिखता। जब मैं भाषण देता हूँ तो आलोचना के सारे पारिभाषिक शब्द सुनाई पड़ जाते हैं। मैं जो लिखता हूँ सब छपने योग्य होता है। मैं नए लेखकों की पूस्तक की भूमिका भी लिख देता हूँ”। और गोपाल सिंह नेपाली का आत्म कहन भी सुन लीजिए – “मेरी नकल होती है। मैं नई शैली, नई गति हिंदी को दे रहा हूँ। मैं मस्ती का कलकल गान हूँ जिसका फ़ायदा सिनेमा वाले भी उठा रहे हैं। प्रेमचंद जी से मेरा परिचय था। ‘हंस’ से उन्होंने मुझे काफ़ी ऊपर भी उठाया। ‘आग पर चलो जवान, आग पर चलो’ मेरा संदेश है। एक और संदेश है ‘तुम किशोर कल्पना करो – तुम नवीन कल्पना करो”। जैनेन्द्र की अबूझ शैली में ‘कौतुक’ का शब्द चातुर्य देखिए – “मैं? तो बिल्कुल ‘मैं’ हूँ। मैं क्या हूँ, यह तो मैं नहीं जानता पर यह जानता हूँ कि मेरा नाम ‘जैनेन्द्र’ है। पर जैनेन्द्र का ‘मैं’ जानना सरल नहीं। ‘परख’ की ‘पूर्णता’ और ‘सुनीता’ की अतृप्ति मेरा जीवन दर्शन है। इन पर रामविलास शर्मा को नाज़ है। महादेवी जी इसे पढ़ती नहीं, देख लेती हैं। मैं कुछ खोया-खोया सा हूँ। क्योंकि मेरा ‘मैं’ कुछ उलझा-उलझा-सा है”।
“गोसाईं जी ने बस दो चार चौपाइयाँ सुनाईं, द्विवेदी जी पर स्नेह था इसलिए मंच पर आए।”, “केशव जी ठीक-ठाक कह रहे थे पर श्रोता जल्द ही ऊब गए”।, “प्रसाद जी का नाम पुकारा गया। प्रेमचंद के साथ चल रही बातचीत छोड़ कर उठ खड़े हुए और ‘आँसू’ के छंद सुनाने लगे”। कहना न होगा कि यह होली के अवसर पर एक स्थानीय दैनिक में छपी रपट थी। एक निबंध “साहित्यकारों की खोपड़ी’ भी मज़ेदार है जिसमें प्रगतिशील, रहस्यवादी, ब्रजभाषा के, ग्राम साहित्य रचने वाले साहित्यकरों का “खोपड़ी विवेचन” है। इन श्रेणियों के साहित्यकारों को गहराई से पढ़े बिना ऐसा व्यंग्य नहीं लिखा जा सकता। दो और लेखों की बात जरूर करुँगा जिनकी वस्तु और शैली दोनों बेजोड़ हैं। एक है “अपनी ज़बानी” जिसमें दिनकर, बच्चन, नंददुलारे बाजपेयी, गोपालसिंह नेपाली और जैनेन्द्र कुमार ने अपनी तारीफ़ खुद की है। दिनकर कहते हैं “वादों में जो स्थान धन्यवाद का है, हिंदी जगत में ठीक वही स्थान मेरा है। मैं उछल कूद का कवि नहीं हूँ। मैं हिमालय का कवि हूँ। हिमालय से मेरी दोस्ती है। तूफ़ान मेरे शब्दों में बँधे झूलते हैं। बवंडर मेरी जीभ में सोता रहता है। भूचाल मेरी आँखों की कोर में है। मैंने ‘रेणुका’ से न जाने कितने हीरे पैदा किए। ‘हुंकार’ को घर-घर पहुँचा दिया। मेरी ‘रसवंती’ को कौन भूल सकत है? बलिदानी बहादुरशाह ‘ज़फ़र’ की दिल्ली अंतत: मुझे मिल ही गई”। कौतुक ने दिनकर की नस पहचान ली है, यह तो सिर्फ़ नमूना है “पाठ” का, कहा तो उन्होंने दो पेज में है। ‘बच्चन’ अपने बारे में क्या कहते हैं – ज़रा सुनिए – “मैं बिलकुल कवि हूँ। मैं हाला, प्याला, मधुशाला, मधुबाला ‘वाद’ का बाप हूँ। निशा को पत्र लिखने और निमात्रण देने वाला पागल, एकांत में संगीत टेरने वाला बिसुध, और भी न जाने क्या-क्या हूँ। मैं आपबीती भी लिखता हूँ। ‘सतरंगिनी’ देख रहा हूँ। यह भी समझ चुका हूँ कि ‘नीड़ का निर्माण फ़िर-फ़िर होना चाहिए। ‘जो बीत गयी सो बात गयी’ इसलिए सिर पटक कर फ़ोड़ना नहीं चाहिए। मैं हिंदी का कवि, अंग्रेजी का प्रोफ़ेसर, हृदय का भावुक और शरीर का मजबूत हूँ। मैं सब कुछ हूँ”। अब सुनिए नंददुलारे बाजपेयी “अपनी ज़बानी” क्या कह रहे हैं – “मैं खरा पहचानता हूँ और खोटा भी। चाबुक भी खूब चलाता हूँ। मार्जन आवश्यक समझता हूँ। मैं समालोचक हूँ। मैंने प्रेमचंद को सुनाया है। रामचंद्र शुक्ल को हमउम्र बतलाया है, निराला जी से दोस्ती है। हिंदी साहित्य का इतिहास शुक्ल जी ने पहले लिख दिया नहीं तो मैं ही लिखता। जब मैं भाषण देता हूँ तो आलोचना के सारे पारिभाषिक शब्द सुनाई पड़ जाते हैं। मैं जो लिखता हूँ सब छपने योग्य होता है। मैं नए लेखकों की पूस्तक की भूमिका भी लिख देता हूँ”। और गोपाल सिंह नेपाली का आत्म कहन भी सुन लीजिए – “मेरी नकल होती है। मैं नई शैली, नई गति हिंदी को दे रहा हूँ। मैं मस्ती का कलकल गान हूँ जिसका फ़ायदा सिनेमा वाले भी उठा रहे हैं। प्रेमचंद जी से मेरा परिचय था। ‘हंस’ से उन्होंने मुझे काफ़ी ऊपर भी उठाया। ‘आग पर चलो जवान, आग पर चलो’ मेरा संदेश है। एक और संदेश है ‘तुम किशोर कल्पना करो – तुम नवीन कल्पना करो”। जैनेन्द्र की अबूझ शैली में ‘कौतुक’ का शब्द चातुर्य देखिए – “मैं? तो बिल्कुल ‘मैं’ हूँ। मैं क्या हूँ, यह तो मैं नहीं जानता पर यह जानता हूँ कि मेरा नाम ‘जैनेन्द्र’ है। पर जैनेन्द्र का ‘मैं’ जानना सरल नहीं। ‘परख’ की ‘पूर्णता’ और ‘सुनीता’ की अतृप्ति मेरा जीवन दर्शन है। इन पर रामविलास शर्मा को नाज़ है। महादेवी जी इसे पढ़ती नहीं, देख लेती हैं। मैं कुछ खोया-खोया सा हूँ। क्योंकि मेरा ‘मैं’ कुछ उलझा-उलझा-सा है”।
एक हास्य-व्यंग्य लेखक की इन
टिप्पणियों को उसकी आलोचकीय दृष्टि मानने में मैं समझता हूँ आपको कोई संकोच न होगा।
आलोचना की “चुटीली पद्धति” भी इसे कहा जा सकता है। हम आलोचना मानें न मानें, कौतुक
की बला से। पर यह तो मानना पड़ेगा कि “कौतुक” साहित्य पढ़ते, समझते और उसे अपनी तरह से
देखते-परखते थे। उन्हें सिर्फ़ हास्य-व्यंग्य लेखक समझने की भूल हम न करें, आपका देश
के प्रसिद्ध सामुद्रिक शास्त्रियों एवं भविष्यवक्ताओं में भी नाम था। बहुमुखी प्रतिभा
के धनी थे कौतुक बनारसी। साहित्य की दुनिया को वे किस तरह तीगते थे इसका बयान उन्होंने
अपने दो संग्रहों में दर्ज कर दिया है – एक तो यही “कलम कुल्हाड़ा” है और दूसरा “कलम
की कमाई”। चलते-चलते ‘भूमिका’ और ‘कला’ पर कौतुक का कलम कुल्हाड़ा कैसे चला है इसकी
बानगी देना मैं अपना पाठकीय कर्तव्य समझता हूँ – निबंधों का शिर्षक है – “भूमिका बांधिए”
और “कला का कचूमर”।
1. भूमिका बहुत सारगर्भित शब्द
है। जिस लेखक ने भूमिका न लिखी उसने कुछ नहीं लिखा। बिना भूमिका के पुस्तक, बिना सिकड़ी-ताले
की अलमारी है। पुस्तक में भूमिका उतनी ही जरुरी है जितनी नयी दुलहिन के ललाट पर टिकुली।
आप यह जान लें कि पुस्तक में लंबी-लंबी बातें कही जाती हैं, भूमिका में गोल-गोल। ग्रंथ
पुरुष है, भूमिका स्त्री है। वह भकुवा है जिसकी स्त्री नहीं है। यह भी समझ लीजिए कि
भूमिका लिखने वाले किराए पर भी मिलते हैं, ठेके पर भी लिख देते हैं।
2. (क) कला अँगीठी है, साहित्य
दमकला है, जीवन जाड़ा है, समालोचक आँख सेंकने वाला जीव है। अत: कलाकार को जाड़ा रुपी
जीवन से घबड़ाना नहीं चाहिए, साहित्य रुपी गरम दमकले का इस्तेमाल करना चाहिए क्योंकि
कलारूपी अँगीठी उसी में निहित है।
(ख) कला सौंदर्यरुपी तेल से
भरी हुई वह कड़ाही है जिसमें साहित्य रूपी पकौड़ी छना करती है और जिसे साहित्यकार रूपी
दुकानदार शब्द रूपी पौने से छानता रहता है।
अब क्या कहेंगे आप? कौतुक से
असहमत ज़रुर हुआ जा सकता है, पर उनकी बात को झटकार कर अलगाया नहीं जा सकता। विषयगत तथ्य
तो यहाँ भी हैं। पहले ऐसी अभिव्यंजना आपकी निगाह से नहीं गुज़री तो कौतुक क्या करें!
कलम को तलवार के रुप में और कुल्हाड़े के रुप में देखने का यही भेद है। पर इतना तो आप
भी मानेंगे कि “उपमान मैले हो गए हैं” वाला सिद्धांत हमने बाद में बूझा, “कौतुक” ने
साहित्य के रूढ़ उपमानों की कैसी ऐसी-तैसी कर दी है, यह उन्हें पढ़ कर ही जाना जा सकता
है।
मैं कहना चाहते हुए भी यह नहीं कहता कि कौतुक
का साहित्य “श्रेष्ठ” की कोटि में रखा जाए क्योंकि इससे कौतुक की ही हेठी होगी। यह
साहित्य एक खास “विधा” का ऐसा पतीला है जिसमें कौतुक ने अपनी कड़छी चलाई है और रोचक
व्यंजन तैयार किए हैं। यह भी ईमानदारी की शपथ ले कर कहता चलूँ कि हिंदी भाषा का सलोना
रुप सीखने में इस तरह के साहित्य ने मेरी बहुत मदद की है। नये-नये शब्द, अनदेखे शब्द-संयोग,
गुदगुदाने वाली वाक्य संरचनाएँ, देसीपन लिए हुए अभिव्यंजनाएँ – और भी काफ़ी कुछ मुझे
कौतुक जैसे रचनाकारों से सीखने को मिला है। ऐसे ही साहित्य ने बाद में शरद जोशी, हरिशंकर
परसाई, फ़िक्र तौंसवी, मुज़्तबा हुसैन को पढ़ने में और उनको समझने में मेरी मदद की। और
उलट-पुलट अभिव्यंजना या उलटबाँसी को समझने में भी। कबीर की नगरी में ही ऐसा घट पाना
संभव था। आज भी मैं रामरिख मनहर, शैल चतुर्वेदी, हुल्लड़ मुरादाबादी, जैमिनी हरियाणवी,
सुरेन्द्र शर्मा को बार-बार पढ़ना चाहता हूँ, हाँ काका हाथरसी को भी। इनके लिए मैं
“धर्मयुग” और “साप्ताहिक हिंदुस्तान” की पुरानी फ़ाइलों को भी जब-तब पलट लेता हूँ। स्वाद
बदल जाता है और दृष्टि भी। लोग कहते हैं कि “सरल लिखना कठिन है, और कठिन लिखना सरल”
– कौतुक, बेढब, चकाचक, चोंच, सूँड़ (सभी “बनारसी”) जैसा लिख पाना तो और भी कठिन है
– सरल होते हुए भी अभिव्यंजक, हास्य होते हुए भी संजीदा, शब्द होते हुए भी शब्दातीत।
चलिए, चलते-चलते यह भी बता ही दूँ कि “कलम कुल्हाड़ा” को “कौतुक” ने कविवर काशीनाथ उपाध्याय
“भ्रमर” (बेधड़क बनारसी) को समर्पित किया है। “बेधड़क” के इस मिथकीय नाम और छायावादी
तख़ल्लुस का पता मुझे “कलम कुल्हाड़ा” से ही चला। यह भी मेरी ज़िंदगी से हमेशा के लिए
जुड़ गया एक साहित्यिक यथार्थ है।
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