गुरुवार, 28 मार्च 2013

लोकार्पण : ''भाषा, संस्कृति और लोक''


लोकार्पण समारोह : ''भाषा, संस्कृति और लोक'' [ प्रो. दिलीप सिंह/ वाणी प्रकाशन/2012] : अध्यक्ष- प्रो. केशरी लाल वर्मा; मुख्य अतिथि- प्रो. वी. रा. जगन्नाथन; विशिष्ट अतिथि- प्रो.हीरालाल बाछोतिया, प्रो.गंगा प्रसाद विमल;
 साथ में - एम. सीतालक्ष्मी एवं प्रो.ऋषभदेव शर्मा :
 हैदराबाद: 10 मार्च 2013.
10 मार्च 2013 को दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के हैदराबाद केंद्र में डॉ. दिलीप सिंह द्वारा संपादित ग्रंथ 'भाषा, संस्कृति और लोक' का लोकार्पण-समारोह संपन्न हुआ. अध्यक्ष थे प्रो. केशरी लाल वर्मा और मुख्य अतिथि प्रो. वी. रा. जगन्नाथन. ग्रंथ  की पृष्ठभूमि पर स्वयं प्रो.दिलीप सिंह ने प्रकाश डाला और सामग्री का परिचय प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने दिया.

स्मरणीय है कि कुछ समय पूर्व प्रो.ऋषभ देव शर्मा ने इस ग्रंथ पर एक संक्षिप्त टिप्पणी अपने ब्लॉग ऋषभ उवाच पर लिखी थी. यहाँ हम उसे उद्धृत कर रहे है....

भाषा, संस्कृति और लोक' : संपादक - प्रो. दिलीप सिंह
- ऋषभ देव शर्मा 

दो महीने से प्रतीक्षा थी इस किताब की. कल जब प्रो. दिलीप सिंह ने ज़िक्र छिड़ने पर औचक ही बैग  से प्रति निकाल कर दिखाई तो मेरा उछलना स्वाभाविक था. 'पं. विद्यानिवास मिश्र स्मृति ग्रंथमाला' [प्रधान संपादक डॉ. दयानिधि मिश्र] के अंतर्गत प्रो. दिलीप सिंह के संपादन में यह पहली किताब आई है. अत्यंत भावुकता और श्रद्धा के साथ उन्होंने सम्पादकीय में लिखा है - मुझे बराबर यह लगता रहा कि उनके अकादमिक व्यक्तित्व को जो भी अर्पित किया जाए वह उनकी विराटता के सामने अपनी लघुता ही प्रकट कर पाएगा.

प्रो. सिंह ने इस कृति ''भाषा, संस्कृति और लोक'' को ''भाषाविज्ञान की व्यावहारिक पीठिका'' उपशीर्षक दिया है जो इसकी विषयवस्तु की स्वतःघोषणा है. पंडित जी के प्रिय क्षेत्रों को ध्यान में रखकर यहाँ सात खण्डों में बीस लेखकों के चौबीस चिंतनपूर्ण आलेख संजोए गए हैं. स्वयं पं. विद्यानिवास मिश्र के ''भारतीय भाषादर्शन की पीठिका'' तथा प्रो. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव  के ''आधुनिक भाषाविज्ञान और भारतीय भाषाचिंतन'' , ''भाषिक प्रतीकों की प्रकृति'' और ''धूप की छाँव में : पं. विद्यानिवास मिश्र'' जैसे दस्तावेजी आलेख इस कृति की धुरी हैं जिसके गिर्द अत्यंत विवेकपूर्वक भाषा, संस्कृति एवं लोक विषयक सारी सामग्री को इस तरह संजोया गया है कि पाठक को अपने आप यह बोध होने लगता है कि यह सब मानो पंडित जी के ही विचारलोक का स्वाभाविक विस्तार है - संपादक ने सप्रमाण यह दर्शाया भी है.

इन  सम्मिलित लेखकों में  हैं - प्रो. सुरेश कुमार , डॉ. हीरालाल बाछोतिया, प्रो. कैलाश चंद्र भाटिया, प्रो. गोपाल शर्मा, प्रो. सूरज भान सिंह, डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, डॉ. ऋषभ देव शर्मा, डॉ.पियूष कुमार श्रीवास्तव, डॉ. कविता वाचकनवी , प्रो. चतुर्भुज सही, प्रो. जगदीश प्रसाद डिमरी, प्रो. भारत सिंह, डॉ. बलविंदर कौर, डॉ. देव शंकर नवीन, डॉ.अंजू श्रीवास्तव, प्रो. देवराज, प्रो. एम.वेंकटेश्वर एवं प्रो. दिलीप सिंह. 

निस्संदेह 'आधुनिक भाषावैज्ञानिक चिंतन के व्यावहारिक पक्ष को यह किताब जगह-जगह विश्लेषणात्मक पद्धति को अपनाते हुए उजागर करती है. वैचारिक स्तर पर पुस्तक पठनीय है तो आत्मीय धरातल पर पंडित जी के प्रति एक भावभीनी श्रद्धांजलि!' 

भाषा,संस्कृति और लोक 
प्रधान संपादक - डॉ. दयानिधि मिश्र
संपादक प्रो. दिलीप सिंह 
वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली 110002
2012 - प्रथम संस्करण 
204 पृष्ठ - सजिल्द
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