बुधवार, 25 दिसंबर 2013
रविवार, 22 दिसंबर 2013
शनिवार, 21 दिसंबर 2013
कलम कुल्हाड़ा : कहाँ-कहाँ से गुजर गया
किताबों के बहाने - 1
- प्रो. दिलीप सिंह
कलम कुल्हाड़ा लेखक : कौतुक बनारसी प्रकाशक : आनंद पुस्तक भवन, वाराणसी वर्ष : 1949, मूल्य : 2 रुपए पचास पैसे तीसरा संस्करण : 1963 (जो मेरे पास है) |
[यह शृंखला आलोचना तो कतई नहीं
है। समीक्षा भी इसे नहीं कहा जा सकता। यह किसी पढ़ी गई रचना के साथ पाठक की संलग्नता
के आड़े-तिरछे पहलुओं पर बस ज़हन पर अंकित असरों के ठहर जाने की कैफ़ियत है। साहित्य और
साहित्य पर किताबें पढ़ते समय भी ऐसा शायद सबको लगता है कि अरे! ऐसा ही तो मैं भी सोचता
हूँ, इसने तो मेरे मन की बात कह दी, यह पात्र या जगह तो मेरी भी जानी-पहचानी है........।
पढ़ते समय कई बार यह भी तो होता है कि हमारी अपनी ज़िंदगी
के
साथ कुछ प्रसंगों, कथनों, भावों का रिश्ता जुड़ जाता है। यह सब होता है। पर
हमारी आलोचना इन बातों का ख्याल नहीं करती। तो क्या आलोचक किसी रचना को एक पाठक की
तरह नहीं पढ़ता? क्या सिर्फ़ आलोचकीय औज़ार ही रचना के अच्छे–बुरे या प्रभावकारी होने
की कसौटी हैं? क्या कोई रचना पढ़ जाने के बाद हमारी ज़िंदगी से कट जाती है?
मेरे साथ यह सब नहीं होता, आप के साथ भी अवश्य ही न होता होगा। कुछ पढ़ते समय काफ़ी कुछ
हमारे आसपास से, हमारे आसपास का जुड़ने लगता है। आगे के जीवन में भी यह जुड़ाव मिटता
नहीं धुंधला तक नहीं पड़ता बल्कि निरंतर घुमड़ा करता है और कभी सामने आ खड़ा हो कर समझाता,
सहलाता, चेताता, या हँसाता-रुलाता और रास्ता दिखाता है।
यह भी बात पढ़ने
में खास हो जाती कि हमने किसी रचना को कब पढ़ा – किस उम्र में, तब हम किस कक्षा में
पढ़ रहे थे। कैसे और कहाँ से मिली थी वह किताब या किसने हमें दी थी? कहाँ बैठ कर (या
लेट कर) पढ़ा था उसे? स्कूली जीवन में पढ़ी गई कोई किताब बरसों बाद फ़िर से हाथ लग जाए
तो पढ़ते समय पहली बार पढ़ी जाते समय कौन-सी बातें पकड़ाई में नहीं आईं थीं, उन्हें पकड़
पाने का आनंद भी तो बाद में पढ़ने पर भरपूर आता है। किससे-कब
किसी किताब पर बातचीत हुई किसी किताब या लेखक पर किसी संगोष्ठी में क्या-क्या चर्चाएँ
हुईं जिनसे अपने पढ़े-समझे में सुधार हुआ या कोई और हमारी बातचीत-चर्चा से सुधरा। ये
बातें पाठक के रूप में मेरे मन में बसी रहतीं हैं इससे इनकार नहीं। किताब के साथ बहुत
कुछ असंबद्ध भी आ जुड़ता है – अखबार की कोई ख़बर, कोई फ़िल्म, किसी फ़िल्म का कोई गीत
– और भी न जाने क्या-क्या! इस विचार शृंखला
में ऐसी ही बहकी-बहकी दृश्यावलियाँ आपको मिलेंगी।
अपने संदर्भ में मैं इन्हें पाठक की रचनाधर्मिता के अहम पड़ाव मानता हूँ। शायद इस भूमिका
से सब कुछ साफ़ न हो सका हो क्योंकि एक किताब हमें कब, क्या
और कैसे दे जाती है इसका सही बयान किसी पढ़ी जा चुकी किताब को मन-दर्पण के सामने रख
कर ही किया जा सकता है। तो चलिए किताबों के बहाने आप के साथ अपने ज़हन की कैफ़ियतों को
साझा करूँ। और इस बहाने और भी बहुत सारी बातों को भी, जो किताब, उसके लेखक, अपने और
उसके माहौल को अपनी समझ में उतारती रही हैं और पढ़ने की क्रिया को और भी आत्मीय, और
भी प्रेरक, और भी जागरूक बनाती रही हैं।]
यह किताब पहली बार नवीं या दसवीं कक्षा में पढ़ी थी।
स्कूल लाइब्रेरी से ले कर। तब ऐसी ही किताबें रुचती थीं। समय 1965-1966 का जब घर पर
“धर्मयुग”, “साप्ताहिक हिंतुस्तान” नियमित आते थे। “मुसीबत है”, “कार्टून कोना ढब्बूजी”
सभी सबसे पहले पढ़ते थे – एक के कार्टूनिस्ट रवींद्र थे दूसरी के आबिद
सुरती। धर्मयुग का “बैठे-ठाले” और “साप्ताहिक हिंदुस्तान” का “फ़ुरसत से” स्तंभ अच्छा
लगता था। बनारस के बेढब बनारसी, बेधड़क बनारसी और सूँड़ बनारसी भी इनमें छ्पते थे। फ़िर
होली के अवसर पर दोनों साप्ताहिकों के “होली अंक” और होली अंक के अगले सप्ताह ‘साप्ताहिक
हिंदुस्तान’ का “व्यंग्य विनोद विशेषांक”। ये तीनों मजेदार अंक
होली के पहले ही मिल जाते थे। बनारस का दैनिक “आज’ भी घर पर आता था। इसके मुखपृष्ठ
पर ऊपर केंद्र में कांजीलाल का कार्टून छपता था। कृष्णा मेनन, सर्वपल्ली राधाकृष्णन,
चंद्रभान गुप्त के कार्टून आज भी याद हैं। इन सब को देख भी चुका था। तब इस किताब के
तीसरे पृष्ठ पर यह पढ़कर मन मुदित हो गया था _____ चित्रकार _______ कांजीलाल। मुख पृष्ठ
पर सींकीया पहलवान-सा लेखक हथियार की तरह अपने जितनी लंबी कलम दोनों हाथों से पकड़े
हुए है। अन्नपूर्णानंद वर्मा और बेढब बनारसी आदि की
कई किताबों के कवर भी कांजी लाल ने बनाए थे।
किताब के प्रकाशक के सामने नाम लिखा था – संपूर्णानंद,
एम.ए.। ये हमारे ही विद्यालय में हिंदी के अध्यापक थे। हम इन्हें रोज देखते थे। मुझे
गर्व हुआ था, तब कि वे उस किताब में भागीदार हैं जिसे मैं पढ़ रहा हूँ। ग्यारहवीं–बारहवीं
में उन्होंने हमे हिंदी पढ़ाई फ़िर उनके दो पुत्र दयानन्द और श्रद्धानंद
मेरे
अभिन्न मित्र बने। अगले कुछ सालों में कौतुक की कई किताबें पढ़ डाली – कलम की कमाई,
करमकल्ला, कपोल कल्पना, कुछ कच्चा कुछ पक्का, किचकिच, और कौवारोर। सब एक से बढ़ कर एक।
तब न सोच पाया था आज मालूम होता है कि “क’ वर्ण से कौतुक को विशेष प्रेम था जैसे कि
आज फ़िल्मकार राकेश रोशन को है जिनकी हर फ़िल्म का नाम “के” से शुरु होता है। अपना “पेन
नेम” भी उन्होंने इसी वर्ण को महत्व देते हुए रख रखा था। वैसे उनका नाम था शिवमूर्ति
शिव मिश्र: जन्म: 1923 बनारस में| 1943 से दैनिक “आज” के संपादकीय विभाग में पत्रकार
का जीवन आरंभ किया। संगीत, व्यंग्य चित्रकला और हास्य-अभिनय में भी कौतुक की स्वांत:
सुखाय रुचि थी। हास्य कवि भी थे। “संसार” और “तरंग” जैसे पत्रों के लिए भी कौतुक ने
काम किया। इस किताब की भूमिका हिंदी के धुँआधार हास्य-व्यंग्य लेखक जी.पी.श्रीवास्तव
ने लिखी है जिन्हें “हास्य सम्राट” कहा जाता था। श्रीवास्तव जी गोंडा में वकील थे,
मेरे पापा के परिचित थे, दोंनों का वकालती संबंध भी था। वे हमारे यहाँ आते-जाते भी
थे। पापा के पास उनकी कई किताबें थीं, एक थी “लतखोरी लाल” जिसे मैंने इसी दरम्यान पढ़ा
था। बाद में बाकी किताबें भी पढ़ीं। अभी हाल ही में उनके हास्य निबंधों का संग्रह “बीरबल
ज़िंदा है” पढ़ रहा था। कलम के जोर से हँसी के फ़ौवारे छुड़वाने
में सिद्धहस्त थे श्रीवास्तव साहब। कलम में कितनी ताकत होती है यह उन्हीं को पढ़ कर
पहली बार महसूस हुआ था। भूमिका में श्रीवास्तव जी ने कई गंभीर बातें भी कही हैं। विद्यार्थी
गांठ बाँध लें क्यों कि मोटी–मोटी पुस्तकों में भी इतनी संजीदा बातें उन्हें न मिलेंगी
–“व्यंग भी हास्य का ही एक अंग है। इसकी उत्पत्ति शब्दों के उत्तम चुनाव से होती है।
इसका उद्देश्य सदा बुराइयों को दूर करना रहता है। इस तरह व्यंग हँसमुख सुधारक का काम
करता है।“ आगे वे कहते हैं “व्यंग अपनी हँसमुख प्रकृति से हृदय और दिमाग को अपनी मुट्ठी
में कर लेता है। अत: इसका प्रभाव कभी निष्फ़ल नहीं जाता।“ इन बड़ी-बड़ी बातों में यह भी
शामिल है कि व्यंग्य रचना की सफ़लता अपूर्व कल्पना और अनोखी निरीक्षण शक्ति पर निर्भर
करती है। साथ ही भाषा, विषय, मानवीय प्रकृति तथा सैली में भी काफ़ी सवधानी दरकार है
अन्यथा “तनिक सी लापरवाही से इसका सारा कारबार चौपट हो जाता है”। अब आप समझ गए होंगे
कि हास्य-व्यंग्य लिखने वाले कितने गंभीर होते हैं और इसे लिखने के लिए कितनी रचनात्मक
क्षमता और कौशल की जरुरत पड़ती है। अब “कलम कुल्हाड़ा” पर श्रीवस्तव जी की टिपण्णी भी
पढ़ लें “प्रस्तुत संग्रह कौतुक बनारसी के अनमोल व्यंग निबंधों का है। व्यंग क्षेत्र
में आपकी लेखनी कैसा चमत्कार दिखाती है, यह हिंदी संसार से छिपा नहीं है। आपकी भाषा
साफ़ और सुथरी है। शैली भी आपकी निराली और अपनी है जो रिझाती और गुदगुदाती है। इन निबंधों
में सजीवता और रोचकता ऐसी है जो मन को लुभाए रखती है कि छोड़ने का जी नहीं चाहता”। इस
“सर्टिफ़िकेट” से आप कौतुक बनारसी के रचना कौशल को भली-भँति बूझ चुके होंगे पर कौतुक
खुद अपनी “पैरवी” (भूमिका) में क्या कहते है यह भी सुन लीजिए “ढूँढने से इस किताब में
बहुत कम गुण दिखाई पड़ेंगे जैसे यह बहुत मोटी नहीं है, विचारों में सागर-सी कौन कहे
कुँए–सी भी गहराई नहीं है, भाषा में संस्कृत शब्दों का अभाव है और विषय ऊल-जलूल है।
मगर एक झुंड कमियों के होते हुए भी मेरे मित्रों का आग्रह था तो निबंधों की यह किताब
छप कर आ गई है। यदि इस किताब से आपका कुछ लाभ हुआ हो तो वह आपके पढ़ने का, यदि नहीं
तो वह मेरे लिखने का फ़ल है”। कौतुक की शैली की तेज़ धार का अंदाजा इन चंद सतरों से ही
आपको अवश्य हो गया होगा।
चलिए, अब पैठा जाए “कलम कुल्हाड़ा
के भीतर। पर एक बात और सुन लीजिए पहले कि इस तरह के ”ऊल-जलूल” हास्य
लेखन की सशक्त परंपरा काशी में रही है और कौतुक इसके प्रमुख झंडाबरदा्रों में से एक।
बनारस के पुराने दिनों में टाउन हॉल के मैदान में नुमाइश लगा करती थी। नवंबर अंत से
दिसंबर अंत तक। पूरे मैदान की गोलाई में दुकानें लगती थीं – टिनशेड में। ऊनी कोट, मफ़लर,
टोपी से लैस औरत-मर्द-बच्चे दीख पड़ते थे। भुनी मूंगफ़ली जेब में भरे या गुप्ता जी के
चने चबाते हुए, जो इलाहाबाद से आ कर स्टॉल लगते थे। जब तक मैंने नुमाइश देखी (सालों
देखी)। गुप्ता जी की दुकान घुसते ही दाईं तरफ़ होती थी। नुमाइश के आखिरी दिन कवि सम्मेलन
और मुशयरा होता था – रात नौ से बारह बजे तक। कड़कड़ाती ठंड में। उस दिन लोग कंबल ले कर
पहुँचते थे – सिर से कंबल ओढ़े ढेरों लोग बैठे दिखाई देते थे, ज़मीन पर। इसी तरह के एक
नुमाइशी मुशायरे में कौतुक को सुना था। फ़िराक़ गोरखपुरी भी थे और ख़ामोश गाज़ीपुरी भी
(जिनकी उस समय चढ़ी हुई थी)। यह आयोजन उत्तर प्रदेश के कवियों/ शायरों का होता था –
आज़गढ़, गोरखपुर, बलिया, देवरिया, मेरठ, बरेली, लखनऊ से इनकी आमद होती थी। मुझे याद है खा़मोश गाज़ीपुरी
ने एक गज़ल सुनाई थी जिसका मतला था – हँसने के नतीजे पर यह आँख जो भर आई, हाँ हमने ख़ता
की थी हाँ हमने सज़ा पाई। खामोश के गले में भी दम था और कलाम में भी, सो धूम मच जाती
थी। कौतुक ने एक हास्य कविता सुनाई थी, उसकी भी कुछ पंक्तियाँ मुझे याद रह गईं थीं।
इस कविता का उपयोग कौतुक ने अपने किसी लेख में भी किया था, पढ़ कर उस मुशायरे की याद
ताज़ा हो गई थी। मुझे कविता का पहला बंद हमेशा याद रहा। आप पूरी कविता सुनिए—
मुझ कविवर को प्यार न दोगे?
देख निशा की सुन्दर बेला, फ़ेंक
रहा है कोई ढेला
फ़ूटे अपना इसके पहले, उसका
फ़ोड़ कपार न दोगे?
चल न सकेगा आज बहाना, कल ससुराल
मुझे है जाना
बहुत दिनों से माँग रहा हूँ,
अपना कोट उधार न दोगे?
मुझ पर तुकबंदियाँ बनाता, कपि
कपि कह कर मुझे चिढ़ाता
दुष्ट तुम्हारा है वो बेटा,
उसकी चाल सुधार न दोगे?
कुछ इज़्जत पाने आया हूँ, कविता
छपवाने आया हूँ
पुरस्कार क्या छप जाने पर,
एक अंक अखबार न दोगे
मुझ
कविवर को प्यार न दोगे?
क्या तो माहौल था। हर प्रश्न वाचक वाक्य के आते ही श्रोता
पागल हो जा रहे थे। कौतुक लचक-लचक कर सुना रहे थे। वे कपार फ़ोड़ने के लिए बेढब की तरफ़
इशारा करते तो उधारी कोट के लिए बेधड़क की ओर। लड़के को सुधारने का इसरार वे शंभुनाथ
सिंह से कर रहे थे तो पारिश्रमिक के रूप मे अखबार का एक अंक देने की गुहार ठाकुर प्रसाद
सिंह से लगा रहे थे। अफ़सोस कि इस सम्मेलन में एक ही रचना सुनाने की बंदिश थी। फ़िराक़
ने अपनी चाँद वाली नज़्म सुनाई थी।
“कलम कुल्हाड़ा” बहुत मोटी नहीं
है – एक सौ पैंतालिस पृष्ठों में उन्तीस निबंध हैं। पहली बार पढ़ा तब उम्र और माहौल
के लिहाज़ से “गांधी जी को श्रद्धांजलि” और
“कुछ घरेलू दवाएँ” अच्छी लगी थीं। जब न तब बार-बार इन्हें पढ़ता था। गाँधी जी की हत्या
जनवरी अंत – 1948 में हुई थी। कितना कुछ लिखा गया होगा। मेरे घर में एक फ़ोटो टंगी थी
जिसमें वृत्ताकार और विकासक्रम से गाँधी जी के छोटे-छोटे चित्र थे। सात-आठ साल के गाँधी
जी गोल कढ़ाई वाली टोपी और बंद कोट में, फ़िर मैट्रिक में , फ़िर वकालत पास करने पर, स्वयं
सेवी के रुप में डंडा और धोती-कुर्ता धारण किए हुए, डांडी यात्रा में आगे-आगे कदम बढ़ाते
हुए, सागर तट पर मुट्ठी में नमक उठाते हुए, भारत छोड़ो आंदोलन का भाषण दोनों भुजाएँ
उठा कर देते हुए, फ़िर अपने आश्रम में चरखा कातते हुए। तस्वीर के बीच की खाली और अपेक्षाकृत
बड़ी जगह में उनकी प्रज्वलित चिता का चित्र; चिता के पास एक फ़ैली हुई माला जिसके बीच
में “हे राम” अंकित था। यह तस्वीर हमारे खाने के कमरे में लगी थी। रोज़ दिखाई पड़ती।
हर तस्वीर के नीचे छोटे-छोटे कैप्शन – बचपन में, किशोरावस्था में, बैरिस्टर गाँधी आदि।
जब “कलम कुल्हाड़ा” पढ़ी तब तक आत्म कथा (सत्य के प्रयोग) पढ़ चुका था। मेरा जन्म
1951 में हुआ। पर गाँधी का प्रभाव घर-घर में होश आने के दिनों से साफ़ दिखाई पड़ने लगा
था। यही असर था कि गाँधी जन्मशती वर्ष (1969) वाली नुमाइश में गाँधी आश्रम के स्टॉल
से गाँधी जी की बड़ी-सी तस्वीर पाँच रुपये में खरीदी थी और लहुराबीर पर डीसीएम की बगल
वाले “फ़्रेम हाउस” में मढ़वा कर घर के ओसारे में टाँगी थी जो निरंतर वहाँ रही। इस चित्र
में गाँधी जी शांत मुद्रा में आँखें बंद किये बैठे थे। चश्मे के भीतर मानो एक संत के
चक्षु हों। चादर पीठ की ओर ओढ़ा हुआ था जिसके किनारे दोनों कंधों पर अटके हुए थे। “कौतुक”
ने अपनी अदभुत कल्पना शक्ति से गाँधी की हत्या पर आम आदमी की प्रतिक्रियायों को उनकी
अपनी भाषा में व्यक्त किया है। व्यंग्य या हास्य का काम सिर्फ़ हँसाना नहीं है। मर्मिकता
भी इनके माध्यम से कैसे पैदा की जा सकती है, इसका उदाहरण है यह निबंध। पूरा निबंध एक
श्रृंखला है जिसमें कौतुक ने गाँधी को कैसे-कैसे तो देखा है –
खदेरू की माता जी ने कहा : राम! राम! साधुओ-महातमा के मुँह फ़ुँकवना मार
डललें सब। दुनियाँ कवने रसातल में जाई हे भगवान! (राम! राम! साधु-महात्मा को भी मुँहफ़ुकौनों
ने मार डाला। हे भगवान! दुनिया किस रसातल में जायेगी।)
सहदेव पहलवान ने कहा : गांधी जी वीर थे,
बहादुर थे, नंबर एक लड़ाका थे। उन्होंने अंग्रेजों को ऐसे दाँव से अंटाचित्त उठा पटका
कि उनकी आई-बाई पच गई।
सफ़ेरु खाँ जुलाहे ने कहा : अल्लाताला! यह तूने
क्या किया? गान्ही जी ने जुलाहों के लिए क्या नहीं किया? उन्होंने दुनिया को बता दिया
कि जुलाहा बने बिना दुनिया में गुजर नहीं। ऐ खुदा, तूने हमारे सबसे बड़े जुलाहे बिरादर
को उठा लिया। हमारी तूने कमर तोड़ दी।
बुद्धू झाड़ू लगाने वाले ने कहा : गांधी जी हरिजनों
के सबसे बड़े नेता थे। वे हमसब के सबसे बड़े चौधरी थे।
लछिमन पंडा ने कहा : उन्हीं का परताप है कि अब मंदिरों में सब कोई
छोट-बड़ घुस पावत हैं जेहका वजह से चार पैसा हमनी क आमदनी बढ़ गई।
दशाश्वमेध घाट पर नहाने वाली एक बुढ़िया ने कहा : अच्छा होत भगवान,
तू उनकी जगह हमके मौत देहले होता। (अच्छा होता भगवान, तूने उनकी जगह मुझे मौत दी होती।)
एक तरकारी बेचने वाले ने कहा : जे गान्ही जी मरलेस
ओकर सरबनास हो जाय। (जिसने गांधी जी को मारा उसका सर्वनाश हो जाय।)
हिंदी की भाषा-शैली की निराली छटा इस निबंध की जान है।
सामाजिक शैली का निर्वाह भी खूबी के साथ हुआ है।
“कुछ घरेलू दवाएँ” ने किशोरावस्था
में गुदगुदाता मज़ा दिया था। तब हमारी उम्र के कई दिलफ़ेंक रिक्शे से स्कूल जा रही किसी-न-किसी
लड़की को पीछे-पीछे साइकिल पर चलते हुए स्कूल तक पहुँचाने और स्कूल से घर की गली तक
छोड़ने का काम एकाध मुस्कान की कीमत पर महीनों किया करते थे, अनथक। कौतुक ने ऐसे आशिकों
के लिए कुछ नुस्खे दिए हैं – पता नहीं आजकल ऐसे आशिकों का वजूद है भी कि नहीं, अगर
होगा तो उन्हें इन घरेलू दवाओं से अवश्यमेव लाभ मिलेगा –
प्रेम की बीमारी : यह बीमारी चपत और दुतकार का
काढ़ा पीने से शीघ्र दूर हो जाती है। जिन्हें यह काढ़ा नसीब न हो वे खुशामद की सोर (जड़)
एक माशा, बेहयाई के पत्ते तीन तोला और आवारगी की छाल दो पाव ले कर कूट-पीस कर तीन पाव
पानी में पकावें जब पानी पकते-पकते एक पाव रह जाय तब नित्य सुबह पीयें। बुखार शीघ्र
उतर जाएगा।
कलेजे में चोट : यह चोट बहुत बुरी होती है।
चोटइल लोग कृपा की जड़ एक अंगुल, अनुरोध के दस पत्ते, याचना की छाल दो भर लें। धूप में
सुखावें और सूखने के बाद कूट कर फ़ंकी बना लें। बकरी के दूध के साथ सुबह-शाम सेवन करें।
शीघ्र आराम होगा।
आँख लड़ने पर : इसकी दवा बहुत जरूरी है। इसकी
दवा यह है कि ज्योंही आँख लड़े, संतरे के छिलके का रस आँख में छोड़ दें।
दिल धड़कना : दिल धड़कने की आसान दवा है
कि व्यायाम किया जाय। व्यायाम यों है कि – दायें हाथ से बायाँ कान पकड़ें, बायें हाथ
से दायाँ। दस बार इसी मुद्रा में उठे-बैठें। दो मास के बाद दिल की धड़कन ठीक हो जाएगी।
कल्पना की उड़ान की भी हद होती
है। वैसे इसी संग्रह में कौतुक का एक अत्यंत रोचक हास्य-लेख है – “बेवकूफ़ी की हद नहीं
होती”। बनारसी हास्य में इस तरह की शैतानियाँ खूब मिलती हैं जो पाठक के दिमाग को ग़िज़ा
तो देती ही हैं और तेज़ भी करती हैं। “कलम कुल्हाड़ा” की शेष रचनाएँ कवियों, कवि सम्मेलनों,
संपादकों, छपास की बीमारी, साहित्यिक ठगी पर प्रकाश डालती हैं, खास अपने तरीके से।
कौतुक की इन सभी में खासी घुसपैठ थी। उनके इन निबंधों से यह साफ़ पता चलता है कि वे
साहित्य पढ़ते थे और फ़िर अपनी तरह से उसे बरतते थे। इन निबंधों में उन्होंने ढेरों साहित्यकारों
के नाम भी लिए हैं और ‘पैरवी’ में कहा है – “किताब में अनेक श्रद्धेय महानुभावों के
नाम आए हैं, यदि आपको फ़ज़ूल लगे तो लेखक की लाचारी समझ कर क्षमा कर दीजिएगा, यदि उचित
लगे तो कोई शाबासी का कार्ड भेजने का कष्ट मत उठाइएगा”। मैंने एम.ए. करते हुए जब दसवीं
या बीसवीं बार यह संग्रह पढ़ा तो इन साहित्य-मार्का हास्य लेखों ने अजीब-सी चुलबुली
पैदा कर दी थी। साहित्यिक ठगी,
यानी एक ही रचना को कई जगह छपने भेज देना, कुछ रचनाओं की कतरनों से एक नई रचना तैयार
कर देना, कुछ शब्द-पंक्तियाँ बदल कर किसी सशक्त रचना को अपनी बना लेना, जैसे साहसिक
कृत्यों को कौतुक “कला” का दर्जा देते हैं, इस सुझाव के साथ कि “साहित्यिकों को इस
कला का सम्मान करना चाहिए”। अखिल स्वर्गीय
कवि सम्मेलन इंद्र के दरबार में नारद जी के संयोजन में आयोजित कवि-गोष्ठी की
अनूठी झाँकी है। भारतेन्दु बाबू अध्यक्षता कर रहे हैं। आचार्य शुक्ल, महावीर प्रसाद
द्विवेदी, जयशंकर प्रसाद, महाकवि चच्चा ही नहीं इस काव्य संध्या में रसखान, सूरदास
जी, केशव जी और भूषण भी मौजूद हैं। इस लेख की घटनाएँ और टिप्पणियाँ जानमारू हैं –
“शुक्ल जी यहाँ कभी न आते, लेकिन भारतेंदु बाबू का निमंत्रण
था इसलिए आना पड़ा”,
“गोसाईं जी ने बस दो चार चौपाइयाँ सुनाईं, द्विवेदी जी पर स्नेह था इसलिए मंच पर आए।”, “केशव जी ठीक-ठाक कह रहे थे पर श्रोता जल्द ही ऊब गए”।, “प्रसाद जी का नाम पुकारा गया। प्रेमचंद के साथ चल रही बातचीत छोड़ कर उठ खड़े हुए और ‘आँसू’ के छंद सुनाने लगे”। कहना न होगा कि यह होली के अवसर पर एक स्थानीय दैनिक में छपी रपट थी। एक निबंध “साहित्यकारों की खोपड़ी’ भी मज़ेदार है जिसमें प्रगतिशील, रहस्यवादी, ब्रजभाषा के, ग्राम साहित्य रचने वाले साहित्यकरों का “खोपड़ी विवेचन” है। इन श्रेणियों के साहित्यकारों को गहराई से पढ़े बिना ऐसा व्यंग्य नहीं लिखा जा सकता। दो और लेखों की बात जरूर करुँगा जिनकी वस्तु और शैली दोनों बेजोड़ हैं। एक है “अपनी ज़बानी” जिसमें दिनकर, बच्चन, नंददुलारे बाजपेयी, गोपालसिंह नेपाली और जैनेन्द्र कुमार ने अपनी तारीफ़ खुद की है। दिनकर कहते हैं “वादों में जो स्थान धन्यवाद का है, हिंदी जगत में ठीक वही स्थान मेरा है। मैं उछल कूद का कवि नहीं हूँ। मैं हिमालय का कवि हूँ। हिमालय से मेरी दोस्ती है। तूफ़ान मेरे शब्दों में बँधे झूलते हैं। बवंडर मेरी जीभ में सोता रहता है। भूचाल मेरी आँखों की कोर में है। मैंने ‘रेणुका’ से न जाने कितने हीरे पैदा किए। ‘हुंकार’ को घर-घर पहुँचा दिया। मेरी ‘रसवंती’ को कौन भूल सकत है? बलिदानी बहादुरशाह ‘ज़फ़र’ की दिल्ली अंतत: मुझे मिल ही गई”। कौतुक ने दिनकर की नस पहचान ली है, यह तो सिर्फ़ नमूना है “पाठ” का, कहा तो उन्होंने दो पेज में है। ‘बच्चन’ अपने बारे में क्या कहते हैं – ज़रा सुनिए – “मैं बिलकुल कवि हूँ। मैं हाला, प्याला, मधुशाला, मधुबाला ‘वाद’ का बाप हूँ। निशा को पत्र लिखने और निमात्रण देने वाला पागल, एकांत में संगीत टेरने वाला बिसुध, और भी न जाने क्या-क्या हूँ। मैं आपबीती भी लिखता हूँ। ‘सतरंगिनी’ देख रहा हूँ। यह भी समझ चुका हूँ कि ‘नीड़ का निर्माण फ़िर-फ़िर होना चाहिए। ‘जो बीत गयी सो बात गयी’ इसलिए सिर पटक कर फ़ोड़ना नहीं चाहिए। मैं हिंदी का कवि, अंग्रेजी का प्रोफ़ेसर, हृदय का भावुक और शरीर का मजबूत हूँ। मैं सब कुछ हूँ”। अब सुनिए नंददुलारे बाजपेयी “अपनी ज़बानी” क्या कह रहे हैं – “मैं खरा पहचानता हूँ और खोटा भी। चाबुक भी खूब चलाता हूँ। मार्जन आवश्यक समझता हूँ। मैं समालोचक हूँ। मैंने प्रेमचंद को सुनाया है। रामचंद्र शुक्ल को हमउम्र बतलाया है, निराला जी से दोस्ती है। हिंदी साहित्य का इतिहास शुक्ल जी ने पहले लिख दिया नहीं तो मैं ही लिखता। जब मैं भाषण देता हूँ तो आलोचना के सारे पारिभाषिक शब्द सुनाई पड़ जाते हैं। मैं जो लिखता हूँ सब छपने योग्य होता है। मैं नए लेखकों की पूस्तक की भूमिका भी लिख देता हूँ”। और गोपाल सिंह नेपाली का आत्म कहन भी सुन लीजिए – “मेरी नकल होती है। मैं नई शैली, नई गति हिंदी को दे रहा हूँ। मैं मस्ती का कलकल गान हूँ जिसका फ़ायदा सिनेमा वाले भी उठा रहे हैं। प्रेमचंद जी से मेरा परिचय था। ‘हंस’ से उन्होंने मुझे काफ़ी ऊपर भी उठाया। ‘आग पर चलो जवान, आग पर चलो’ मेरा संदेश है। एक और संदेश है ‘तुम किशोर कल्पना करो – तुम नवीन कल्पना करो”। जैनेन्द्र की अबूझ शैली में ‘कौतुक’ का शब्द चातुर्य देखिए – “मैं? तो बिल्कुल ‘मैं’ हूँ। मैं क्या हूँ, यह तो मैं नहीं जानता पर यह जानता हूँ कि मेरा नाम ‘जैनेन्द्र’ है। पर जैनेन्द्र का ‘मैं’ जानना सरल नहीं। ‘परख’ की ‘पूर्णता’ और ‘सुनीता’ की अतृप्ति मेरा जीवन दर्शन है। इन पर रामविलास शर्मा को नाज़ है। महादेवी जी इसे पढ़ती नहीं, देख लेती हैं। मैं कुछ खोया-खोया सा हूँ। क्योंकि मेरा ‘मैं’ कुछ उलझा-उलझा-सा है”।
“गोसाईं जी ने बस दो चार चौपाइयाँ सुनाईं, द्विवेदी जी पर स्नेह था इसलिए मंच पर आए।”, “केशव जी ठीक-ठाक कह रहे थे पर श्रोता जल्द ही ऊब गए”।, “प्रसाद जी का नाम पुकारा गया। प्रेमचंद के साथ चल रही बातचीत छोड़ कर उठ खड़े हुए और ‘आँसू’ के छंद सुनाने लगे”। कहना न होगा कि यह होली के अवसर पर एक स्थानीय दैनिक में छपी रपट थी। एक निबंध “साहित्यकारों की खोपड़ी’ भी मज़ेदार है जिसमें प्रगतिशील, रहस्यवादी, ब्रजभाषा के, ग्राम साहित्य रचने वाले साहित्यकरों का “खोपड़ी विवेचन” है। इन श्रेणियों के साहित्यकारों को गहराई से पढ़े बिना ऐसा व्यंग्य नहीं लिखा जा सकता। दो और लेखों की बात जरूर करुँगा जिनकी वस्तु और शैली दोनों बेजोड़ हैं। एक है “अपनी ज़बानी” जिसमें दिनकर, बच्चन, नंददुलारे बाजपेयी, गोपालसिंह नेपाली और जैनेन्द्र कुमार ने अपनी तारीफ़ खुद की है। दिनकर कहते हैं “वादों में जो स्थान धन्यवाद का है, हिंदी जगत में ठीक वही स्थान मेरा है। मैं उछल कूद का कवि नहीं हूँ। मैं हिमालय का कवि हूँ। हिमालय से मेरी दोस्ती है। तूफ़ान मेरे शब्दों में बँधे झूलते हैं। बवंडर मेरी जीभ में सोता रहता है। भूचाल मेरी आँखों की कोर में है। मैंने ‘रेणुका’ से न जाने कितने हीरे पैदा किए। ‘हुंकार’ को घर-घर पहुँचा दिया। मेरी ‘रसवंती’ को कौन भूल सकत है? बलिदानी बहादुरशाह ‘ज़फ़र’ की दिल्ली अंतत: मुझे मिल ही गई”। कौतुक ने दिनकर की नस पहचान ली है, यह तो सिर्फ़ नमूना है “पाठ” का, कहा तो उन्होंने दो पेज में है। ‘बच्चन’ अपने बारे में क्या कहते हैं – ज़रा सुनिए – “मैं बिलकुल कवि हूँ। मैं हाला, प्याला, मधुशाला, मधुबाला ‘वाद’ का बाप हूँ। निशा को पत्र लिखने और निमात्रण देने वाला पागल, एकांत में संगीत टेरने वाला बिसुध, और भी न जाने क्या-क्या हूँ। मैं आपबीती भी लिखता हूँ। ‘सतरंगिनी’ देख रहा हूँ। यह भी समझ चुका हूँ कि ‘नीड़ का निर्माण फ़िर-फ़िर होना चाहिए। ‘जो बीत गयी सो बात गयी’ इसलिए सिर पटक कर फ़ोड़ना नहीं चाहिए। मैं हिंदी का कवि, अंग्रेजी का प्रोफ़ेसर, हृदय का भावुक और शरीर का मजबूत हूँ। मैं सब कुछ हूँ”। अब सुनिए नंददुलारे बाजपेयी “अपनी ज़बानी” क्या कह रहे हैं – “मैं खरा पहचानता हूँ और खोटा भी। चाबुक भी खूब चलाता हूँ। मार्जन आवश्यक समझता हूँ। मैं समालोचक हूँ। मैंने प्रेमचंद को सुनाया है। रामचंद्र शुक्ल को हमउम्र बतलाया है, निराला जी से दोस्ती है। हिंदी साहित्य का इतिहास शुक्ल जी ने पहले लिख दिया नहीं तो मैं ही लिखता। जब मैं भाषण देता हूँ तो आलोचना के सारे पारिभाषिक शब्द सुनाई पड़ जाते हैं। मैं जो लिखता हूँ सब छपने योग्य होता है। मैं नए लेखकों की पूस्तक की भूमिका भी लिख देता हूँ”। और गोपाल सिंह नेपाली का आत्म कहन भी सुन लीजिए – “मेरी नकल होती है। मैं नई शैली, नई गति हिंदी को दे रहा हूँ। मैं मस्ती का कलकल गान हूँ जिसका फ़ायदा सिनेमा वाले भी उठा रहे हैं। प्रेमचंद जी से मेरा परिचय था। ‘हंस’ से उन्होंने मुझे काफ़ी ऊपर भी उठाया। ‘आग पर चलो जवान, आग पर चलो’ मेरा संदेश है। एक और संदेश है ‘तुम किशोर कल्पना करो – तुम नवीन कल्पना करो”। जैनेन्द्र की अबूझ शैली में ‘कौतुक’ का शब्द चातुर्य देखिए – “मैं? तो बिल्कुल ‘मैं’ हूँ। मैं क्या हूँ, यह तो मैं नहीं जानता पर यह जानता हूँ कि मेरा नाम ‘जैनेन्द्र’ है। पर जैनेन्द्र का ‘मैं’ जानना सरल नहीं। ‘परख’ की ‘पूर्णता’ और ‘सुनीता’ की अतृप्ति मेरा जीवन दर्शन है। इन पर रामविलास शर्मा को नाज़ है। महादेवी जी इसे पढ़ती नहीं, देख लेती हैं। मैं कुछ खोया-खोया सा हूँ। क्योंकि मेरा ‘मैं’ कुछ उलझा-उलझा-सा है”।
एक हास्य-व्यंग्य लेखक की इन
टिप्पणियों को उसकी आलोचकीय दृष्टि मानने में मैं समझता हूँ आपको कोई संकोच न होगा।
आलोचना की “चुटीली पद्धति” भी इसे कहा जा सकता है। हम आलोचना मानें न मानें, कौतुक
की बला से। पर यह तो मानना पड़ेगा कि “कौतुक” साहित्य पढ़ते, समझते और उसे अपनी तरह से
देखते-परखते थे। उन्हें सिर्फ़ हास्य-व्यंग्य लेखक समझने की भूल हम न करें, आपका देश
के प्रसिद्ध सामुद्रिक शास्त्रियों एवं भविष्यवक्ताओं में भी नाम था। बहुमुखी प्रतिभा
के धनी थे कौतुक बनारसी। साहित्य की दुनिया को वे किस तरह तीगते थे इसका बयान उन्होंने
अपने दो संग्रहों में दर्ज कर दिया है – एक तो यही “कलम कुल्हाड़ा” है और दूसरा “कलम
की कमाई”। चलते-चलते ‘भूमिका’ और ‘कला’ पर कौतुक का कलम कुल्हाड़ा कैसे चला है इसकी
बानगी देना मैं अपना पाठकीय कर्तव्य समझता हूँ – निबंधों का शिर्षक है – “भूमिका बांधिए”
और “कला का कचूमर”।
1. भूमिका बहुत सारगर्भित शब्द
है। जिस लेखक ने भूमिका न लिखी उसने कुछ नहीं लिखा। बिना भूमिका के पुस्तक, बिना सिकड़ी-ताले
की अलमारी है। पुस्तक में भूमिका उतनी ही जरुरी है जितनी नयी दुलहिन के ललाट पर टिकुली।
आप यह जान लें कि पुस्तक में लंबी-लंबी बातें कही जाती हैं, भूमिका में गोल-गोल। ग्रंथ
पुरुष है, भूमिका स्त्री है। वह भकुवा है जिसकी स्त्री नहीं है। यह भी समझ लीजिए कि
भूमिका लिखने वाले किराए पर भी मिलते हैं, ठेके पर भी लिख देते हैं।
2. (क) कला अँगीठी है, साहित्य
दमकला है, जीवन जाड़ा है, समालोचक आँख सेंकने वाला जीव है। अत: कलाकार को जाड़ा रुपी
जीवन से घबड़ाना नहीं चाहिए, साहित्य रुपी गरम दमकले का इस्तेमाल करना चाहिए क्योंकि
कलारूपी अँगीठी उसी में निहित है।
(ख) कला सौंदर्यरुपी तेल से
भरी हुई वह कड़ाही है जिसमें साहित्य रूपी पकौड़ी छना करती है और जिसे साहित्यकार रूपी
दुकानदार शब्द रूपी पौने से छानता रहता है।
अब क्या कहेंगे आप? कौतुक से
असहमत ज़रुर हुआ जा सकता है, पर उनकी बात को झटकार कर अलगाया नहीं जा सकता। विषयगत तथ्य
तो यहाँ भी हैं। पहले ऐसी अभिव्यंजना आपकी निगाह से नहीं गुज़री तो कौतुक क्या करें!
कलम को तलवार के रुप में और कुल्हाड़े के रुप में देखने का यही भेद है। पर इतना तो आप
भी मानेंगे कि “उपमान मैले हो गए हैं” वाला सिद्धांत हमने बाद में बूझा, “कौतुक” ने
साहित्य के रूढ़ उपमानों की कैसी ऐसी-तैसी कर दी है, यह उन्हें पढ़ कर ही जाना जा सकता
है।
मैं कहना चाहते हुए भी यह नहीं कहता कि कौतुक
का साहित्य “श्रेष्ठ” की कोटि में रखा जाए क्योंकि इससे कौतुक की ही हेठी होगी। यह
साहित्य एक खास “विधा” का ऐसा पतीला है जिसमें कौतुक ने अपनी कड़छी चलाई है और रोचक
व्यंजन तैयार किए हैं। यह भी ईमानदारी की शपथ ले कर कहता चलूँ कि हिंदी भाषा का सलोना
रुप सीखने में इस तरह के साहित्य ने मेरी बहुत मदद की है। नये-नये शब्द, अनदेखे शब्द-संयोग,
गुदगुदाने वाली वाक्य संरचनाएँ, देसीपन लिए हुए अभिव्यंजनाएँ – और भी काफ़ी कुछ मुझे
कौतुक जैसे रचनाकारों से सीखने को मिला है। ऐसे ही साहित्य ने बाद में शरद जोशी, हरिशंकर
परसाई, फ़िक्र तौंसवी, मुज़्तबा हुसैन को पढ़ने में और उनको समझने में मेरी मदद की। और
उलट-पुलट अभिव्यंजना या उलटबाँसी को समझने में भी। कबीर की नगरी में ही ऐसा घट पाना
संभव था। आज भी मैं रामरिख मनहर, शैल चतुर्वेदी, हुल्लड़ मुरादाबादी, जैमिनी हरियाणवी,
सुरेन्द्र शर्मा को बार-बार पढ़ना चाहता हूँ, हाँ काका हाथरसी को भी। इनके लिए मैं
“धर्मयुग” और “साप्ताहिक हिंदुस्तान” की पुरानी फ़ाइलों को भी जब-तब पलट लेता हूँ। स्वाद
बदल जाता है और दृष्टि भी। लोग कहते हैं कि “सरल लिखना कठिन है, और कठिन लिखना सरल”
– कौतुक, बेढब, चकाचक, चोंच, सूँड़ (सभी “बनारसी”) जैसा लिख पाना तो और भी कठिन है
– सरल होते हुए भी अभिव्यंजक, हास्य होते हुए भी संजीदा, शब्द होते हुए भी शब्दातीत।
चलिए, चलते-चलते यह भी बता ही दूँ कि “कलम कुल्हाड़ा” को “कौतुक” ने कविवर काशीनाथ उपाध्याय
“भ्रमर” (बेधड़क बनारसी) को समर्पित किया है। “बेधड़क” के इस मिथकीय नाम और छायावादी
तख़ल्लुस का पता मुझे “कलम कुल्हाड़ा” से ही चला। यह भी मेरी ज़िंदगी से हमेशा के लिए
जुड़ गया एक साहित्यिक यथार्थ है।
शनिवार, 23 नवंबर 2013
सोमवार, 21 अक्टूबर 2013
प्रो. दिलीप सिंह विचार कोश - 4
भाषा की भीतरी परतें भाषाचिंतक प्रो. दिलीप सिंह अभिनंदन ग्रंथ प्रधान संपादक - ऋषभदेव शर्मा वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012 प्रथम संस्करण, ९९५/- |
कवि : जन-कवि
कवि की भावनागत पावनता, निर्मलता और स्वच्छता ही उसके हृदय में अपने से इतर लोगों की भावनाओं को प्रतिबिंबित कर सकती है. ऐसा कवि ही जन-कवि बनता है. उसकी वाणी असंख्य लोगों के दिलों की आवाज बन जाती है और उसका शब्द-शब्द लोगों के मन को बेध जाता है. (बच्चन का काव्यशास्त्र; पाठ विश्लेषण; पृ.59)
कविता
कविता भाषा में आबद्ध सबसे संश्लिष्ट रचना है, अतः इसे सूक्ष्मता के साथ पढ़ना-पढ़ाना अपेक्षित है. किसी भी साहित्यिक कृति को 'पढ़ना' एक ओर अर्थ-बोध है तो दूसरी ओर काव्य वस्तु की पुनः सर्जना भी है. (साहित्य शिक्षण; भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण; पृ.156)
कविता : प्रयोजन
कविता का प्रयोजन जब पाठक/ श्रोता को संस्कार देने से आ जुड़ता है तब कवि और कविता से पाठक की अपेक्षाएँ काफी बढ़ जाती है. (बच्चन का काव्यशास्त्र; पाठ विश्लेषण; पृ. 60)
कविता मनुष्य को पूर्णकाम बनाए तभी वह जन-प्रिय भी हो सकती है, लोगों को जीने का ढंग सिखा सकती है और निरंतर उनके साथ चल सकती है, उनकी अपनी बनकर. (बच्चन का काव्यशास्त्र; पाठ विश्लेषण; पृ. 60)
आम भाषा का परिष्कार भी आज की कविता का अहम काव्य-लक्ष्य है. (सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ भाषा; पाठ विश्लेषण; पृ.74)
कविता : भाषा प्रयोग
कविता अपने गर्भ में अतीत से लेकर समसामायिकता तक के पूरे आयाम को समेटे रहती है और उसमें शैलीय नाम के धरातल पर निम्नतम श्रेणी के भाषा प्रयोग से लेकर उच्चतम श्रेणी तक के भाषा प्रयोग का संश्लेषण होता है. (साहित्य शिक्षण की भाषाविज्ञानिक दृष्टि अन्य भाषा शिक्षण के बृहत संदर्भ; पृ.120)
कविता : भावक
आज के काव्य चिंतन में कविता को 'उत्पाद' और भावक को 'उपभोक्ता' के रूप में देखने की दृष्टि अपने उत्कर्ष पर है. (बच्चन का काव्यशास्त्र; पाठ विश्लेषण; पृ. 59)
कविता का कथ्य
मनुष्य का अतीत और वर्तमान कविता के कथ्य को ही नहीं उसके अभिव्यक्ति माध्यम भाषा को भी दरेरते, कुरेदते हैं. (छायावादोत्तर काव्यभाषा; पाठ विश्लेषण; पृ.53)
कविता की भाषा
कविता का क्षेत्र हमारे जीवन की ही भाँति विविधरूपी होता है. ... कविता भाषा में ही और भाषा के माध्यम से ही रची-समझी जाती है. कविता की भाषा में उतनी ही सर्जनात्मकता होती है जितनी हमारे मस्तिष्क की. (साहित्य शिक्षण की भाषावैज्ञानिक दृष्टि; अन्य भाषा शिक्षण के बृहत संदर्भ; पृ.119)
सभी भाषाई तत्व या उसकी शक्तियाँ जब एक निर्धारित चौखटे में आती हैं तब उसे हम उस भाषा समुदाय की कविता की भाषा कह सकते हैं. (साहित्य शिक्षण की भाषावैज्ञानिक दृष्टि, अन्य भाषा शिक्षण के बृहत संदर्भ; पृ.120)
कविता पाठ विश्लेषण
प्रसिद्ध भाषा चिंतक तथा शैलीविज्ञानिक रोमन याकोब्सन ने कविता पाठ विश्लेषण की एक सूक्ष्म तकनीक का जिक्र किया है (सेलेक्टेड राइटिंग्स : 1971 : मूतों, द हेग). इस तकनीक में उन्होंने कविता को सबसे पहले बंध/ छंद (स्टैंजा) मैं बाँटने को कहा है. फिर यह देखने का आग्रह किया है कि बंधों के व्याकरणिक मदों का सममित (सिमेट्रिकल) वितरण किस तरह हुआ है कि अलग-अलग बंध मिलकर पूरे पाठ (कविता) का समूहन करते हैं, उन्हें एक 'प्रोक्ति' बनाते हैं. इस संदर्भ में उन्होंने व्याकरणिक दृष्टि से बेमेल तथा एक जैसे बंधों को एक समग्र पाठ के रूप में समन्वित करके देखने की प्रणाली भी हमें दी है. ('पटकथा' को यहाँ, यहाँ और यहाँ से भी देखो; पाठ विश्लेषण; पृ.90-91)
सोमवार, 23 सितंबर 2013
प्रो. दिलीप सिंह विचार कोश - 3
कथा पाठ विश्लेषण : चार स्तर
कथा पाठ के चार स्तर बनते हैं - कहानी का प्रारंभ, कहानी के भीतर निहित विवरण, कहानी के बिंदु का प्रस्तुतीकरण और कहानी द्वारा किसी अन्य घटना या क्रिया को उठा लेना. (हिंदी कहानी की भाषा; पाठ विश्लेषण. पृ. 112)
कथा भाषा :
कथा भाषा में सामाजिक परिस्थिति, सामाजिक संबंध और भाषा प्रयोग के विविध संदर्भ घुल मिले हैं. (साहित्य शिक्षण; भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण; पृ.139)
कहानी के संदर्भ में भाषा की बात अभी तक अधूरे और अपर्याप्त ढंग से ही जा रही है, जबकि कहानी सामाजिक जीवन को समष्टिगत ढंग से व्यक्त करने वाली सबसे सशक्त गद्य विधा है और हिंदी भाषा भी अपनी वैविध्यपूर्ण संभावनाओं को सामाजिक संदर्भों के साथ व्यक्त करने वाली व्यापक प्रयोग क्षेत्र की भाषा. (हिंदी कहानी की भाषा; पाठ विश्लेषण; पृ.103)
कथा भाषा के विविध स्तर :
कथा भाषा के स्तर - लेखक सापेक्ष (Emotive), पाठ सापेक्ष (Conative), लेखक-पाठक के संबंध पर आधारित (Phatic), कोड पर आधारित (Meta-Linguistic), संदेश पर आधारित (Poetic) और संदर्भ पर आधारित (Refrential). (हिंदी कहानी की भाषा; पाठ विश्लेषण; पृ.112)
भाषा की भीतरी परतें भाषाचिंतक प्रो. दिलीप सिंह अभिनंदन ग्रंथ प्रधान संपादक - ऋषभदेव शर्मा वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012 प्रथम संस्करण, ९९५/- |
शुक्रवार, 20 सितंबर 2013
प्रो. दिलीप सिंह विचार कोश - 2
आधुनिकीकरण
आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में अनुवाद और पारिभाषिक शब्दावली की भूमिका प्रमुख होती है. (भाषा अध्ययन की आधुनिक संकल्पनाएँ, भाषा का संसार, पृ. 167)
उच्च हिंदी
उच्च हिंदी शैली अति औपचारिक होती है. साहित्य में ऐतिहासिकता, पौराणिक और मिथकीय पृष्ठभूमि (हिंदू मान्यताओं से संबंधित) को उभारने के लिए इस शैली को अपनाया जाता है. (साहित्य शिक्षण; भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण, पृ. 103)
उर्दू : हिंदी
उर्दू कोई भाषा नहीं है, हिंदी की विभाषा है. (भाषायी यथार्थ बनाम भाषा का संकट, स्रवंति, वर्ष-55, अंक-4, जुलाई-2010, पृ.15)
उच्च हिंदी शैली अति औपचारिक होती है. साहित्य में ऐतिहासिकता, पौराणिक और मिथकीय पृष्ठभूमि (हिंदू मान्यताओं से संबंधित) को उभारने के लिए इस शैली को अपनाया जाता है. (साहित्य शिक्षण; भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण, पृ. 103)
उर्दू : हिंदी
उर्दू कोई भाषा नहीं है, हिंदी की विभाषा है. (भाषायी यथार्थ बनाम भाषा का संकट, स्रवंति, वर्ष-55, अंक-4, जुलाई-2010, पृ.15)
भाषा की भीतरी परतें भाषाचिंतक प्रो. दिलीप सिंह अभिनंदन ग्रंथ प्रधान संपादक - ऋषभदेव शर्मा वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012 प्रथम संस्करण, ९९५/- |
रविवार, 8 सितंबर 2013
प्रो. दिलीप सिंह विचार-कोश - 1
अनुवाद
अनुवाद की भूमिका
भारत में प्रयोजनमूलक रूप में भारतीय भाषाओं के विकास में अनुवाद की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता. (अपनी बात, अनुवाद का सामायिक परिप्रेक्ष्य)
अनुवादक की भूमिका
अनुवादक की भूमिका बहुआयामी होती है - पाठक की, भाषा विश्लेषक की और द्विभाषी की. (अपनी बात, अनुवाद का सामायिक परिप्रेक्ष्य)
अनुवाद अपनी प्रकृति में एक अनुप्रयुक्त विधा है अतः वह प्रयोजन और प्रयोक्ता के दबाव से मुक्त नहीं हो सकता. (‘समतुल्यता का सिद्धांत और अनुवाद’; अनुवाद : सिद्धांत और समस्याएँ; (सं) रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, कृष्णकुमार गोस्वामी, पृ.47)
एक भाषा के किसी पाठ (Text) का सहपाठ (Co-text) के रूप में रच्नान्तार्ण अनुवाद कहलाता है. (‘समतुल्यता का सिद्धांत और अनुवाद’; अनुवाद : सिद्धांत और समस्याएँ; (सं) रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, कृष्णकुमार गोस्वामी, पृ.44)
अनुवाद करते समय स्रोत भाषा के पाठ के भाषिक उपादानों के समतुल्य लक्ष्य भाषा के भाषिक उपादान चुन लिए जाते हैं. (‘समतुल्यता का सिद्धांत और अनुवाद’; अनुवाद : सिद्धांत और समस्याएँ; (सं) रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, कृष्णकुमार गोस्वामी, पृ.45)
आज अनुवाद केवल पाठ की संरचना तक सीमित न रहकर भाषा चयन, भाषा वैविध्य और भाषा के शैलीय पक्षों तक विस्तृत है. (अपनी बात, अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य)
अनुवाद की भूमिका
भारत में प्रयोजनमूलक रूप में भारतीय भाषाओं के विकास में अनुवाद की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता. (अपनी बात, अनुवाद का सामायिक परिप्रेक्ष्य)
अनुवादक की भूमिका
अनुवादक की भूमिका बहुआयामी होती है - पाठक की, भाषा विश्लेषक की और द्विभाषी की. (अपनी बात, अनुवाद का सामायिक परिप्रेक्ष्य)
भाषा की भीतरी परतें भाषाचिंतक प्रो. दिलीप सिंह अभिनंदन ग्रंथ प्रधान संपादक - ऋषभदेव शर्मा वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012 प्रथम संस्करण, ९९५/- |
मंगलवार, 20 अगस्त 2013
धूप ने कविता लिखी है गुनगुनाने के लिए
ऋषभदेव शर्मा का कवि-कर्म :
तेवरी, तरकश, ताकि सनद रहे और देहरी
पाठविश्लेषक प्रो. दिलीप सिंह और कवि प्रो. ऋषभदेव शर्मा |
:: 1 ::
’ऋषभदेव जी’ इसी तरह मैं उन्हें पुकारता हूँ। मान और स्नेह, दोनों भाव इस संबोधन में
निहित हैं। ’डॉक्टर शर्मा’ कहूँ तो मामला अति औपचारिक हो जाए और ’ऋषभ’ बुलाऊँ तो बदसलूकी लगेगी। वे मुझे ’डॉक्टर साहब’ या ’सर’ ही कहते हैं और आदर बड़े
भाई जैसा देते हैं। पहली भेंट उनसे मद्रास में बरसों पहले हुई थी। एक बैठक थी।
अटैची लिए सभा (दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा)
प्रांगण में घुसा ही था कि प्रो. भीमसेन ’निर्मल’ दिख गये। अटैची वहीं धर के हम
दोनों डाकख़ाने वाले चबूतरे पर बैठ गए। बातें होने लगीं कि एक स्वस्थ-सुदर्शन-सा
नवयुवक नमस्कार-नमस्कार करते हुए सामने आया। निर्मल जी ने परिचय कराया। मैं चलने
को हुआ कि बिना किसी संकोच के युवक ने मेरी अटैची उठा ली और अतिथि-गृह के कमरे
तक पहुँचा दिया। उनकी इस सरलता ने मन मोह
लिया। फिर वे हैदराबाद आ गए, मेरे साथ काम करने। और मेरे साथ आत्मीयता का इतिहास रचा।
छोटे कद, भारी शरीर और गौरवर्ण के ऋषभ जी ’देखनउक’ लगते हैं। फ़िट-फ़ाट रहते हैं – हर धजा उन पर फबती भी खूब है।
हमारी तरफ़ देसी मेलों में मिट्टी का ’बबुआ’ मिलता है – बैठा हुआ, सुदर्शन, गोल-मटोल; ऋषभ जी को देखकर अजाने ही उसकी याद आती है। यह बबुआ
बड़ा लोकप्रिय है। सभी उसे लेते हैं, अपने घर में सजाते हैं। उसे प्यार करते हैं।
हैदराबाद के हिंदी जगत् में ऋषभदेव जी अत्यंत लोकप्रिय हैं। सब उनका साथ चाहते
हैं, और वे
भी किसी को निराश नहीं करते।
शुरू शुरू में हैदराबाद आए तो कुछ अलग-अलग से रहे। सन् 1997 ई. में मैंने हैदराबाद
में प्रो. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव की स्मृति में एक संगोष्ठी आयोजित की। बड़ी
संगोष्ठी थी, बड़े-बड़े लोग आए थे। तीन दिन की थका देने वाली गतिविधियाँ थीं। उसमें पीछे
छिपकर चुपके-चुपके सब काम करते रहे। मैं भी गुपचुप उन्हें ’ऑबज़र्व’ करता रहा। फिर ’पूर्णकुंभ’ (दक्षिण भारत हिंदी
प्रचार सभा – आंध्र की मासिक पत्रिका। का रवींद्रनाथ श्रीवास्तव स्मृति अंक निकालने की
योजना बनी। उनसे जम कर काम लिया और कहा कि आपका नाम सहायक संपादक के रूप में
जाएगा। अभिभूत हो गए। फिर संयोग कि ’पूर्णकुंभ’ का संपादन मेरे जिम्मे आ गया। पाँच-छह साल हम दोनों
ने मिलकर उसके लिए काम किया। कितने ही विशेषांक निकाले। हर अंक को जानदार बनाया।
सच कहूँ, मैं
तो निमित्त मात्र था। सारी मेहनत उनकी होती थी। यहाँ तक कि ’संपादकीय’ लिखने के लिए भी वे मेरे पीछे
पठान की तरह पड़े रहते थे। कभी-कभी तो मुझे खाली देखते ही कागज़-क़लम लेकर हाज़िर हो
जाते कि सर, लिखा दीजिए, प्रेस में जाना है। इसी तरह पीछे पड़-पड़ के उन्होंने मुझसे बहुत कुछ लिखवा लिया
है। इस मामले में कई बार वे मेरे ’गणेश’ भी बने हैं। इसके लिए मेरा रोम-रोम उन्हें असीसता है।
हम दोनों ने कई अकादमिक कार्य साथ-साथ किए हैं। अनुवाद संगोष्ठी का आयोजन और
उससे संबंधित तीन क़िताबों की तैयारी। श्री मुनींद्र जी के अभिनंदन-ग्रंथ का
संपादन। अपने संस्थान और नगरद्वय की अनेक गोष्ठियों – कार्यशालाओं की योजना और उनमें
धमाकेदार शिरक़त। तथा संस्थान के पत्रकारिता डिप्लोमा पाठ्यक्रम को बनाने से लेकर
चलाने - सँवारने तक का काम। जानता हूँ कि मेरे हैदराबाद से धारवाड़ जाने का जितना
क्लेश उन्हें हुआ, शायद ही किसी को हुआ हो।
ऋषभदेव जी का मेरे साथ सांसारिक संबंध ही नहीं है, वे मेरी अकादमिक-आत्मा का भी एक
हिस्सा हैं; और जीवन के अंत तक रहेंगे। लिखते अच्छा हैं, बोलते उससे भी अच्छा हैं। उनकी आवाज़
में आवेश-जनित खनक होती है। मंच-संचालन भी वे बड़ी तन्यता के साथ करते हैं। कहा जाए,
ढीली-ढाली सभा में
भी उनका संयोजन जान डाल देता है। हम सब उनकी इस ताक़त को भकुआए ताकते रह जाते हैं।
वे अध्यापक, कवि और समीक्षक एक साथ हैं। अध्यापक वे कैसे हैं, यह तो उनके छात्रों से पूछिए।
कवि वे संस्कारी हैं। और समीक्षक गंभीर। इन तीनों ही रूपों में उनकी धाक है। पर
उनका सबसे उज्ज्वल गुण मुझे लगता है – नया सीखने और नया करने की उनकी अदम्य इच्छा। नया
लिखने, नए
विषयों पर शोध कराने का जब भी कोई काम उन्हें सौंपा, उन्होंने करके दिखाया, और अच्छा करके दिखाया।
निरर्थक गप्पें मारने तो वे कभी घर पर भी नहीं आए। जब आए, कुछ सीखने, कुछ करने, कुछ पढ़ने-लिखने। लगन के
साथ काम करने की दीवानगी ने ही शायद हम दोनों के बीच ’ट्यूेनिंग’ बना दी थी। मेरे हैदरबाद
से धारवाड़ जाने पर उनकी कमी मुझे बेतरह खलती रही – जैसे दाहिना हाथ कट गया हो। उनके
और अपने रिश्तों पर कितना लिखूँ, क्या क्या लिखूँ – कहि न जाय का कहिए।
उनकी कविताएँ मंच से कई बार सुनी हैं। तड़प कर सुनाते हैं। एक-एक शब्द स्पष्ट।
उनका उच्चारण बहुत साफ़ है। बोलते समय ध्वनि-लोप भी नहीं होता। औपचारिकता की हद तक
वे भाषा को परिष्कृत कर देते हैं। यहाँ तक कि बातचीत भी वे बातचीत के लहज़े में
नहीं कर पाते, भाषा का साहित्यिक रूप वहाँ भी सिर चढ़ा रहता है। उनकी यह ’अदा’ मुझे थोड़ी अटपटी भी लगती
है पर – जासे
जो सध जाय। ’पूर्णकुंभ’ में ’ताकि
सनद रहे’’ शीर्षक के अंतर्गत हर माह वे अपनी एक कविता देते थे। उन्हें संगृहीत कर ’ताकि सनद रहे’
(2002) शीर्षक से
ही पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया है। पूरी पांडुलिपि मैंने देखी थी।
प्रसन्नतापूर्वक ’भूमिका’ भी लिखकर दी थी।
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यहाँ पर पहले ‘तेवरी’ (देवराज : ऋषभ : 1982 ई.) और ’तरकश’ (ऋषभ : 1996 ई.) में छपी उनकी
तेवरियों पर बात करूँगा। तेवरी की घोषणा में तेवर वाली कविताओं की जो विशेषताएँ
गिनाई गई हैं उन्हें मैं कथ्य और भाषा दो स्तरों पर पाठकों की सुविधा के लिए बाँट
देता हूँ। कथ्य के स्तर पर यह कहा गया है कि अंसतोषजन्य आक्रोश इसका मुख्य भाव है,
रचनात्मक क्रांति
इसका लक्ष्य है, व्यवस्था के प्रति आक्रोश इसकी भावभूमि है, दुरभिसंधियों का पर्दाफ़ाश करना
इसकी मंशा है और जागृति प्राप्तव्य है। भाषा के स्तर पर इस घोषणा में शैली और
शिल्प दोनों पर विचार हैं कि – संप्रेषणीयता इसका मूल धर्म है, ऐसी भाषा जो पाठक की स्मृति में
स्थापित हो सके, जो अभिजात प्रवृत्ति से मुक्त हो, जो आम आदमी के मनोभावों से जुड़े, अभिव्यक्ति ’अक्खड़’ हो अर्थात् साफ़-साफ़
बेलाग बात कही जाए, भाषा ग़ैर-सांप्रदायिक, सार्वजनीन और समर्थ हो जो समाज के प्रत्येक स्तर पर संवाद
स्थापित कर सके, भाषा के उस रूप को विकसित करना जो सामान्य संपर्क की भाषा होगी। इस भाषा को
पाने का तरीक़ा होगा भीड़ के बीच से शब्द उठाना और अभिप्रेत होगा; (श्रोता/पाठक के)
मस्तिष्क में उसे बो देना।
इस घोषणा में कथ्य और रूप को समान महत्व देने वाली बात मार्के की है। और इससे
भी ज़्यादा समझदारी की बात है इन दोनों को पाठक से सीधे जोड़े रखने की चाहत। अन्यथ
इन दोनों को अलग-अलग देखने और बहसने वालों की कमी कभी नहीं रही है। रामचंद्र शुक्ल
का यह कथन इस प्रकार की अलगाववादी मनोवृत्ति वालों पर ज़ोरदार टिप्पणी है –
“वे समझते हैं कि
विचारों का कर्ता एक पुरुष हो सकता है और वाणी या भाषा का दूसरा। ... सो ’विचार’ और ’शब्द’ किसी-किसी की समझ में दो
पृथक वस्तुएँ हैं। भाषा के लोकसिद्ध, बेलाग और संवादी होने वाली बात भी कम महत्वपूर्ण
नहीं है क्योंकि व्यापकता की दृष्टि से बोलचाल की भाषा में कविता लिखना विशेष
उपयोगी है। (मैथिलीशरण गुप्त)।“ ऋषभदेव जी की इन तेवरियों की भाषा नपी-तुली है। उनके विचार
भी पारदर्शी हैं और भाषा भी। हिंदी की कविताओं में अक्सर यह दीखता है कि विचारों
में धुँधलापन व्याप्त होता है जिसकी छाया भाषा में भी दिखाई देने लगती है और कविता
आम पाठक की समझ से बाहर हो जाती है। ॠषभदेव जी संप्रेषणीयता को अगर कविता का मूल
धर्म मानते हैं तो अपने लेखन में इसका निर्वाह भी करते हैं – इसे निबाहने में कई जगह
सपाटता भी आ गई है या बेतरह बात का बतंगड़ बनाने की प्रवृत्ति भी। पर अधिकतर उनकी
ये रचनाएँ समय के अनुरूप हैं और उनके शब्द भावों के अनुरूप। यही गुण उनके
काव्य-संसार को निराला की त्रि-आयामी कसौटी पर खरा सिद्ध करता है : (आदर्श कविता
वह है) जिसमें कविता का स्वाभाविक प्रवाह, कल्पना की उन्मुक्त गति और स्वतः स्फूर्त भाव गुंथे
हुए हों।
’घोषणा’ के अनुसार ही इस पाठ की समीक्षा की जाए तो ऋषभ जी के लिखने
की तर्ज़ (स्टाइल), भाषा-प्रयोग में उनकी स्वच्छंदता तथा उनकी कल्पनाशक्ति (इमेजिनेशन) की परख की
जा सकती है। और उनकी वैचारिकता भी जाँची जा सकती है जिसमें टुच्ची राननीति,
धर्मांधता,
सांप्रदायिकता और
अपसंस्कृति; अर्थात् क्रूर व्यवस्था के विरुद्ध गुस्सा भी है और भविष्य के लिए उम्मीद भी।
प्रतिरोध, इन तेवरियों के मूल में है। और हमारा समय इनमें मुहरबंद है – जब भाषा, धर्म, जाति, क्षेत्र को लेकर घोर
संकीर्णतावाद और सनक उभार पर है। हिंसा का वर्चस्व है। सब ओर हत्याएँ हैं।...
खाते-पीते संसार में असहमति अपराध है (परमानंद श्रीवास्तव)। अपने विचारों को स्वर
देने में ऋषभ की कविताएँ यह सुखद एहसास कराती हैं कि यहाँ लिखी भाषा और बोली जाने
वाली भाषा का अंतर कम से कम है। तभी तो संप्रेषणीयता के मूल धर्म का निर्वाह वे कर
पाते हैं।
संप्रेषण, भाषा का मूल दायित्व है। ऋषभ ने आम आदमी से संप्रेषण-सूत्र बनाने की ठानी है।
हिरनी की आँखों में प्रतिशोधी ज्वाला है, आदमी की बौनसाई पीढ़ियों को/रोज़ गमलों में उगाया जा
रहा है, हो
गया पत्थर निवाला देख लो, मैं पंक्ति में पीछे खड़ा विराम की तरह, बोझ कितने ही गधों का ढो
गया मेरा शहर, एक दूसरे की तरफ़ भौंक रहे हैं लोग, मिमियाना छोड़ो तुम शेर हो गुर्राओ, जैसी पंक्तियाँ स्वतः
संप्रेषणीय हैं – इनका टोन (तेवर) आम आदमी की सोच से संबद्ध है। सबसे ख़ास बात है शब्दों का
संयोजन – एक
तरह का शरारतपूर्ण सहसंयोजन (लक्ष्मीकांत वर्मा) भी, जिसके पीछे से व्यंग्य भी झाँकता
है। ऋषभ के इस पूरे पाठ में वाग्वैदग्ध्य (विट), वक्रोक्ति (आयरनी) और व्यंग्य
(सटायर) का फिंटा भाषारूप बनता-रचता रहता है। उनके शरारतपूर्ण सहसंयोजन में मात्र
आक्रामकता नहीं है, उन्होंने अपने व्यंग्य को नया सामाजिक आशय भी दिया है इसीलिए वह गंभीर है और
उसमें जीवित भाषा की गरमाई (परमानंद श्रीवास्तव) भी है। इस व्यापक संप्रेषणीयता की
सिद्धि की पहली शर्त है कि (काव्य-कथन) पाठक की स्मृति में स्थापित हो और कविता
अपनी ज़मीन से जुड़ी हुई हो। ऐसा तभी संभव है जब पाठ का ढाँचा सादगी में पगा हो और
उसकी जड़ें यथार्थ में हों। काँख में खाते दबाये आ गया मौसम, आग लगाकर हाथ सेंकने लड़वाने में
माहिर हूँ, तेरी क़लम क़लम नहीं युग की ज़बान है, यह क़लम है खुरपी नहीं/छीलना घास बंद करो, आँखों में आँज दिया
कुर्सी ने धुँआ-धुँआ, राजनीति के धनुष से संप्रदाय के तीर, कुर्सी की शतरंज में हत्यारी गोट – जैसी पंक्तियाँ ज़बान पर
चढ़ जाती हैं – काँख में दबाना, हाथ सेंकना, समय की ज़बान होना, घास छीलना, आँज देना, राजनीति का धनुष, संप्रदाय के तीर, कुर्सी की शतरंज, हत्यारी गोट जैसी
अभिव्यक्तिया ज़मीनी हैं। कविता को सीधे जनता के बीच ले जाने के लिए लोक संवेदना की
पहचान और उस पर गहरी पकड़ ज़रूरी है। ये दोनों क्षमताएँ ऋषभ में हैं। (उन्होंने)
जनभाषा और साहित्यिक भाषा का भेद मिटा दिया है (परमानंद श्रीवास्तव)। तेवरी की
भाषा अभिजात प्रवृत्ति से मुक्त हो और आम आदमी के मनोभावों से जुड़े, ये दोनों शर्तें
लोकानुभूति और जन-साधारण से जुड़ाव के माध्यम से ही पूरी हो सकती हैं – जाति पूछ कर बँट रही
लोकतंत्र की खीर, क्या पता था खेल ऐसे खेलने होंगे/रक्त-आँसू गूँथ पापड़ बेलने होंगे, बाज़ों के मुँह ख़ून लगा
है/ रोज़ कबूतर ये मारेंगे, जूझने का जुल्म से संकल्प दे/आज ऐसी पाठशाला लाइए, उन सबको नंगा करो जिनके
मन में खोट, आ गई हाँका लगाने की घड़ी/क्यों अभी तक तू खड़ा खामोश है। ये पंक्तियाँ अपने समय
के रू-ब-रू हैं। यह जान लें कि रचना एक समय-यात्रा भी है, पर संवेदन-स्तर पर (प्रेमशंकर)।
ऋषभ जी के पाठ में संवेदन का यह स्तर लोक-संवेदना (मिथ) से भी लबरेज है। ये मिथक
घोषणा के अन्य पक्षों को भी पूरा करते हैं – अभिजात से मुक्त, आम आदमी के मनोभाव और
अपनी ज़मीन से जुड़ी संवेदना मिथकीय संरचना में ढलकर सम्प्रेषणीयता और स्मरणीयता
वाले लक्ष्य को भी बख़ूबी साधती है – एक ओर ऋषभ के पाठ में पौराणिक मिथक हैं जो आज लोगों
की रग-रग में बसे हैं – कई प्रह्लाद लेंगे आग हाथों पर, रावणों की वाटिका में भूमिजा
सीता, राहू
चला गुलेल, रावण की नगरी बना आज राम का देश, अश्वमेध वालों से कह दो/अबकी तो लगकुश आये हैं,
देव तक्षकों के
रक्षक हैं, जनमेजय ने एक बार फिर नागयज्ञ की ठानी है, चीर दी फिर किस जनक ने भूमि की
छाती, वोटों
का भस्मासुर पीछे पड़ा हुआ है, भीष्म-द्रोणाचार्य सारे रोटियों पर बिक रहे/अर्जुनों का मोह
टूटे एक ऐसा युद्ध हो। दूसरे कुछ मिथक लोककथा के रास्ते से भी आए हैं, ये लोक कथाएँ जो
दादी-नानी की कहानी के रूप में लोक को घुट्टी में मिलती चली आ रही हैं – क्रूर भेड़िए छिपकर बैठे
नानी की पोशाकों में, न्याय को बंधक बनाकर बंदरों का/ वे मिटायेंगे लड़ाई बिल्लियों की। कुछ मिथक
इतिहास और साहित्य से भी संबद्ध हैं – मत जयचंदों को दोरंगा होने दो/मेरा शहर गया
होरी/खुरपी ले आए धनिया/जग जाएँ गोबर – झुनियाँ/’खुसरो’ कैसे घर जाएगा रैन हुई चहुँ देश।
अक्खड़ अभिव्यक्ति या बेलाग कहने और कथा-संवाद स्थापित करने वाली भाषा के अनेक
उपरूप (सब फ़ार्म्स) इस पाठ में मिलते हैं। यहाँ भावों की भिड़ंत (मैथिलीशरण गुप्त)
भी दर्शनीय है और सीधा-सादा दृढ़ बयान (परमानंद श्रीवास्तव) भी, दोनों मिलकर ऋषभ की
रचनाशीलता को घनीभूत करते हैं। भावों की टकराहट और बयानों की सुदृढ़ता की वजह से
ही कई भावों, अनुभूतियों और विचारों का ही नहीं, बिंबों-प्रतीकों का भी दुहराव है इस पाठ में।
अक्खड़ता और साफ़-साफ़ बेलाग बात कहने के संदर्भ में इस दुहराव को देखें –
1) बौनी जनता, उँची कुर्सी; एक ऊँचा तख़्त जिस पर भेड़िया आसीन है।
2) देव तक्षकों के रक्षक हैं; मत तक्षक को ऐसे उन्मुक्त विचरने
दो।
3) केंचुओं की भीड़ आँगन में बढ़ी/आदमी अब रीढ़ वाला लाइए;मैंने कहा कि हे प्रभो!
मैं केंचुआ बनूँ/बदले में सीधी रीढ़ की मुझको सज़ा मिली।
4) श्वेत टोपियाँ पहनकर उगल रहे है रोग;/टोपियों के हर महल के द्वार छोटे
हैं;/टोपीवाले
नटवर नागर! मेरे तुम्हें प्रणाम;/टोपी वाले बाँट रहे हैं मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे;/कुर्ते का टोपी का कोई
विश्वास नहीं।
5) सूर्य की किरणें चलीं लावा बहाने के लिए;जम गया है मोम सारी देह
में/गर्म फौलादी निवाला लाइए; जब नसों में पीढ़ियों की हिम समाता है/शब्द ऐसे ही समय तो
काम आता है, सूर्य उगा है अब पिघलेगा शहर तुम्हारा।
यही दुहराव संवाद स्थापित करने में भी प्रकट है पर एक अलग तरह से। श्रोता/पाठक
को अपने सामने खड़ा करके, उन्हें सम्मिलित करके ऋषभ ने इस पाठ को गुफ़्तगू बनाया है।
आइए साहब, मित्रवर, भैया, भैया जी जैसे संबोधन पाठक के लिए हैं और ये पंक्तियाँ –
मित्र! श्वेत टोपी वालों की स्याही में डूबा मन है, टोपियों का चूर कर दें राजमद,
बुझे हुए चूल्हों
की तुमको फिर से आँच जलानी होगी, फिर क़यामत आज बनकर छाइए साहब, रोटी के हक़ की ख़ातिर तलवार उठाओ
रे, तलघरों
की क़ैद को तोड़ें चलो, जो फसल में ज़हर भरती उस हवा को चीर डालो।
यहाँ पाठ-विमर्श की दृष्टि से कुछ बातें ख़ास हैं। एक तो यह कि इन तेवरियों की
विषयवस्तु राजनैतिक छल, सांप्रदायिकता और
सामाजिक-सांस्कृतिक विघटन से उपजी छटपटाहट है। और इन सबके पीछे यह यथार्थ कि
राजनीति लुच्चे-लफंगों का अंतिम आश्रय बन गई है (प्रेमशंकर)। दूसरे यह कि ये विचार
इस पाठ में ख़ून की तरह दौड़ते हैं। तीसरे यह कि इनका प्राप्तव्य है जागृति –
बस समाज पर एक
भयानक चुप्पी छाई है (रघुवीर सहाय) की हालत में कुछ सार्थक बचा लेने की कोशिश
(परमानंद श्रीवास्तव) है यह पाठ, जिसमें कविता का ताप भी है गहन मानवीय संवेदना भी। निश्चित
ही इस चुप्पी को तोड़ने, जागने-जगाने, कुछ सार्थक बचा पाने के लिए ज़रूरी है ऐसी भाषा का
चयन जिसके शब्द भीड़ के बीच से उठाए गए हों और जिनका गहरा प्रभाव जनमानस पर पड़े
(मस्तिष्क में उसे बो देना)। ’जागृति’ के आद्य-प्रारूप (आर्कीटाइप) के रूप में ऋषभ ने सूर्य,
किरण, धूप, दोपहरी, प्रकाश, रोशनी, रोशनदान को चुना है और
इनके माध्यम से अनेक अर्थच्छटाएँ बिखेरी हैं जिनका संबंध सत्य की प्रतिष्ठा,
मानव-जीवन और
सामाजिक विद्रूपताओं से है – अँधियारे युद्धों में किरणों का मर खपना, रोज़ धूप का क़त्ल हो रहा,
दोपहरी इनकी रखेल
है/अपने तो साथी साये हैं, रोशनी का इक दुशाला लाइए, बालियों पर अब उगेंगे धूप के
अक्षर/सूर्य का अंकुर धरा में कुलबुलाता है, खिल जाय धूप गाँव में हो जाय
सवेरा, उग
रहा सूरज अँधेरा चीर कर फिर से, मैं सूरज को खोज रहा था संविधान की पुस्तक में/ मेरा बेटा
बोला-पापा, रोशनदान ज़रूरी है।
यहाँ ताप भी है, ललकार भी और क्षीण ही सही, आशा की एक किरण भी। ऋषभ का पाठ कहीं-कहीं बड़बोला भी लग सकता
है पर यह घुमावदार नहीं है। वह बोलना चाहता है, दुरभिसंधियों का पर्दाफ़ाश करना
चाहता है और अ-व्यवस्था के प्रति अपना आक्रोश दर्ज़ करना चाहता है – मैं बोलना चाहता हूँ/वो
मेरी ज़बान पकड़ लेताहै : इस तरह मत बोलो/ मैं उँगली दिखाता हूँ कि उधर देखो/उधर ग़लत
हो रहा है/वह रोकता है कि उँगली मत दिखाओ/यह ख़तरनाक है (राजेश जोशी : मैं बोलना
चाहता हूँ)। ऋषभ अपनी तरह से बोलते हैं, लोकभाषा का सहारा लेकर; लोकभाषा की यह ठसक और
स्पष्टोक्ति उनकी पंक्ति-पंक्ति में प्रवाहित है – शीश अपने आग धरती (धरना-रखना –
क्रिया एकाधिक
जगहों पर प्रयुक्त है), मेह बरसो रे, साँझ परती, छाँह बरगदी, भोर से अंटा चढ़ा कर सो गया मेरा शहर, बहुत मरखनी हो गयी डालो
इसे नकेल, उनके पास न कानी कौड़ी फूटा नहीं छदाम, हर कोई बावन गज़ का, पानी उतर चुका सबका, भूख में होता भजन यारो
नहीं, कब्र
में पाँव लटके हैं कंठ में प्राण हैं अटके, क्या उत्ती के पाथोगे, ऐसी होली खेलियो खींच
मुखौटे यार, घर में आग लगाय जमालो, गाल बजाये जाते हैं – जैसी ख़ास देसी रहेटरिक्स,
मुहावरों और
लोकोक्तियों से बिंधी ये अभिव्यक्तियाँ घोषणा के एकाधिक बिंदुओं के सफल निर्वाह का
स्वतः साक्ष्य हैं।
ऋषभ अपनी बात चाहे जैसे कहें सोचते जनहित की हैं – अबकी अगर घर लौटा तो/हताहत
नहीं/सबके हिताहित को सोचता/पूर्णतर लौटूँगा (कुंवर नारायण)। ऋषभ का कविता-पाठ
सामाजिक अनुभव के प्रति हमें सचेत करता है। उनकी बातों में सार है। उनकी अभिव्यंजना
कई स्थलों पर हृदय को हिला देती है। उनका पाठ केवल प्रचार, घोषणा और वक्तव्य नहीं है,
वे खुद भी इसमें
गहरे रमे हैं – तभी उनका स्वर अलग-सा है – तल्ख़, व्यंग्यभरा, सीधा और तीक्ष्ण। ऋषभ जी की कविता के लिए डॉ. प्रेमशंकर के
शब्द उधार ले रहा हूँ जो उन्होंने नागार्जुन की कविता पर विचार करते हुए लिखे हैं,
ऋषभ के पाठ के
संदर्भ में भी ये सोलह आने सही उतरते हैं : ‘’वे एक निश्छल मन की सहज भावुक अभिव्यक्तियाँ हैं जिन्हें
बिना किसी लागलपेट के रख दिया गया है। वहाँ आक्रोश प्रधान है। ... उसका मुख्य आशय
अपनी बात जनता तक पहुँचाना है, कबीरी ढंग से।‘’
:: 3 ::
अब बात करें उनके तीसरे कविता संग्रह ’ताकि सनद रहे’ (ऋषभ : २००२) की।
सामयिक घटनाओं को पैनी अभिव्यंजना में बाँधकर एक दस्तावेजी संदर्भ देने की
कोशिश है ’ताकि सनद रहे’। तात्कालिकता की क्षणभंगुरता के खतरे से इन कविताओं को साफ़ बचाते हुए कवि ऋषभ
देव शर्मा ने इनमें भविष्य के अनगिन सपने भर दिए हैं। चुनौती, साहस, संघर्ष और चेतावनी के भावों में
पिरोया इस संग्रह का हर मनका अपने में अनूठा है, आबदार है जिसे पैदा करने के लिए
भाषा और शिल्प के मँजाव की जिस प्रक्रिया को अपनाया गया है वह कवि के सच्चे और साझे
अनुभव की तस्वीर है। कविताओं में मिथकीय धरातल भी यहाँ खूब उभरे हैं।
कृष्ण-अर्जुन, दुष्यंत-शकुंतला, नल-दमयंती, कामधेनु, कल्पतरु, प्रह्लाद-होलिका, रावण और नचिकेता एक संसार रचते हैं यहाँ। दंगे, नारी राजनीति और कारगिल जैसे
बहुलिखित विषय भी इस संग्रह की कविताओं में वस्तु/काव्य बोध की दृष्टि से टटके
लगते हैं। भाषा
का तो अचरजकारी प्रयोग है। हिंदी भाषा की बहुस्रोतीय संभावनाओं को कवि ने खन डाला
है – फिर
बोए हैं अपनी अनुभूतियों के बीज और पोस-पोस कर उगाई हैं कविताएँ। शैली-शिल्प
अध्ययन के लिए, मैं समझता हूँ, सभी कविताओं में अकूत संभावनाएँ हैं। सही मायनों में ये कविताएँ हैं क्योंकि न तो ये झंडाबरदारी
करती हैं और न ही विद्रोह, क्रांति या कुंठा का छद्मे ओढ़ कर किसी ख़ास पाँत में बैठने
को आतुर दीखती हैं। सही, सजग और सन्नद्ध कविता का माकूल ख़ाका है – ’ताकि सनद रहे’।
सामाजिक सत्य से भरेपूरे इस काव्य संग्रह को पढ़कर आपको ज़रूर लगेगा कि केवल
विचारधारा या ’इमोशंस’ ही कविता को कविता नहीं बनाते; कविता बनती है – भाषा, शैली और पद के ठेठपन से, ठोस अनुभवों से।
आधुनिकताबोध की सरमायेदार बनी ज़्यादातर हिंदी कविताओं में आज लोक और संस्कृति
से जुड़ाव कम हो गया है। कड़वाहट और आक्रोश ने कविता के ऊपरी स्वर को तो तीखा बनाया
है, लेकिन
कविता बनने का सुख इनसे छिन गया है। यही वजह कविता के जनमानस से दूर होते जाने की
भी है। जब हम कवि-रूप में अपने को आम आदमी से ऊपर उठा हुआ मानकर गर्वीले दर्प के
साथ और भाषा के ऐसे छलावे भरे रूप में बात करेंगे जिससे जमीनी रिश्ता ही नहीं हो,
तो ऐसी कोई भी
कृति आस्वाद और टीस दोनों पैदा नहीं कर सकती। इस लिहाज से ’ताकि सनद रहे’ की कविताओं में संभावना
दिखाई देती है।
एक तो कवि ने आज के माहौल की सारी विसंगतियों को परखा है और इसके संदर्भों को
भारतीय पुराणैतिहासिक कथाओं से संबद्ध करने का अच्छा प्रयास किया है। ऐसा करने से
काव्यार्थ की दिशाएँ भी फैली हैं और पाठक के लिए उनकी पकड़ भी आसान हुई है।
दूसरी बात यह कि इन कविताओं े विषय सीधे हमारे आसपास की घटनाओं से लिए गए हैं
या हमारी बहुत जानी-बूझी समस्याओं से उठाए गए हैं। इनकी ज्वलंतता में कोई संदेह
नहीं है, लेकिन
इन्हें अनदेखा करने, इनके प्रति उदासीन रहने की प्रवृत्ति पर चोट करने के कारण भी इन कविताओं का
महत्व बढ़ जाता है।
तीसरी बात यह कि किसी भी रचना के लिए पठनीयता का होना, और सिर्फ़ पठनीयता का ही नहीं,
संप्रेषण और
प्रवाह की निरंतरता का होना बहुत ज़रूरी है जिसके लिए भाषा के सधाव और शैलीय
वृत्तियों के कलात्मक उपयोग से कवि को दो चार होना पड़ता है। इन कविताओं में हिन्दी
भाषा की व्यापक अभिव्यक्ति क्षमता को कुशलता के साथ इस्तेमाल करने का भाव दिखाई
देता है जो और भी मँजकर अधिक अच्छे परिणाम दे सकता है।
ऋषभ देव शर्मा की ये कविताएँ छंदमुक्त होते हुए भी लय की निरंतरता से बँधी हुई
हैं। गति के साथ भावों-प्रतिभावों का उन्नयन प्रभावशाली बन पड़ा है। कविता और
गद्यभाषा के बीच का संतुलन भी अपेक्षित अनुभूतियों को संप्रेषित करनें में कई
जगहों पर सहायक बना है।
इन कविताओं की भावनापरक ऊर्जा कथनों में लिपटकर भी प्रकट हुई है और शाब्दिक
छवियों के संश्लिष्ट रचाव से भी। जहाँ एक भाव टूटकर स्थिर होना चाहता है, वहाँ ये दोनों ही
प्रक्रियाएँ रंजक तत्व का काम करती हैं। कथनों में मुहावरों का आलोक भी छिपकर
झाँकता है जिनमें हिंदी-उर्दू दोनों की साझा विरासत को सम्हाले रखा गया है। कफ़न
धारण किए हैं, मूल्य जिनकी उँगलियों पर नाचते हैं, साजिशों में कैद है, कील हम जड़ने चले हैं, बो रहा है आग वह,
चीख के होठों पड़ा
ताला, सत्य
ने खतरा उठाया, मौत से पंजा भिड़ादें, कयामत टूट पड़े तुम्हारे ऊपर, डुबकी लगा गए तुम तो, चोर नज़रों से तुम्हारी
ओर देखा – जैसे कथन काव्यसंदर्भ या पूरी कविता की बुनावट में अर्थ भर देते हैं।
इसी तरह इन कविताओं में कई ऐसी शाब्दिक छवियाँ भी उभरी हैं जहाँ दो नितांत
भिन्न जातियों के शब्दों का संयोजन विस्तृत भावभूमि को प्रकाशित कर देता है। ऐसे
प्रयोग अर्थ की छवियों को भी नया आयाम दे देते हैं। भावबद्धता का यह क्रम
काव्यशिल्प को भी प्रखर बनाता है जिसे कवि का भाषाकौशल मानना चाहिए। लाल जबड़े
कड़कड़ाती, कुर्सी
के कंठ हकलाए हुए हैं, लोभ के पंजे पसारे, चले हम धोने रंज मलाल, कुर्सियों के कान में कलरव पड़ा,
मैंने किताबें पहन
रखीं थीं, झूठ की चादर लपेटे जल रही होली, वह कामधेनु भी हुई परती-से जो शब्दछवियाँ बनती हैं,
वे चित्रात्मक
होने के साथ ही भाव के उद्रेक को भी द्विगुणित कर देती हैं। अच्छी बात यह है कि इस
तरह के काव्यभाषिक ढलाव में कवि ने भाषा के लोकपक्ष की भी सुध ली है। ऐसा करने से
भाव प्रखर हुए हैं और वह कहा जा सका है जो आभिजात्य भाषा उतनी प्रभावी बनकर न कह
पाती। क्यों बवाल उठाते हो, जनगण करें धमाल, भींज कर पाँखें, जब शून्य ताके, दूधों नहाई, पौध धान की, नाव काठ की, देह का बाना, जलाकर धर दिया, अपना नाम गोदने के लिए,
बैर मत रोपो,
बौरा उठे आम्रवन –
यह बताते हैं कि
लोक भाषा का सही जगह पर एक कोने में किया गया प्रयोग भी पूरे संदर्भ को प्रकाशित
कर देता है।
कविताओं के भाव सामयिक हैं और हार्दिक उद्वेग के साथ प्रकट हुए हैं। इसीलिए
भावोद्वेलन में सिमटे लघु भाव पुनरावृत्ति से प्रकट करने की जैसी दक्षता कवि ने
दिखलाई है, वह इस बात का भी संकेत है कि एक बड़े भाव को किस तरह अभिव्यक्ति के टुकड़ों में
बाँटकर फिर से उन्हें संश्लिष्ट करके ’महाभाव’ में परिणत किया जाता है। इस प्रकार की कुछ पंक्तियाँ
उद्धृत करना चाहूँगा :
यह बिंदु है बदलाव का
यह बिंदु है भटकाव का
यह बिंदु है बहकाव का
*****
और हमारा धर्म?
हमारा धर्म क्या है??
क्या ह हमारा धर्म????
***
छ्त गिरा दो
छीन लो छतरी,
मटियामेट कर दो झोंपड़ी भी,
छप्परों को
उड़ा ले जाओ भले।
***
पहली बार छुआ-
महकती हुई धरती ने,
गमकती हुई हवा ने,
लहराते हुए पानी ने,
सहलाती हुई आग ने
और गाते हुए आकाश ने।
इन कविताओं में व्यंग्य, प्रहार, आक्रोश, तल्खी, क्रोध, जुगुप्सा के भाव अंतर्निहित हैं, लेकिन एक अंतर्धारा की तरह।
सामाजिक सच्चाइयाँ हैं जिनमें परिस्थितियों ने विसंगतियाँ भरी हैं, लेकिन इनके ऊपर भी ऐसा
बहुत कुछ है जिससे बँधकर कलुष को पार किया जा सकता है। ऐसे ही बदलाव की तलाश है ये
कविताएँ, जो
नारों में समाधान नहीं ढूँढतीं। ये मुड़ती हैं जड़ों की ओर। ये परखती हैं अपने
आदर्शों और मूल्यों को; और चेताती हैं भटकाव के उन रास्तों के प्रति जिनका अस्तित्व
ही खोखला है। इस पृष्ठभूमि में ’ताकि सनद रहे’ की कुछ पंक्तियाँ देकर अपनी बात कहूँगा :
आदमी तो
भूमि का बेटा,
भूमि पर वह लोटता,
धूलि में सनता,
निखरता धूप में है।
देह से झरता पसीना,
गंध बहती रोम कूपों से उमड़कर।
ये पंक्तियाँ मनुष्य के श्रम और उस श्रम से निर्मित पहचान को उकेरती हैं जहाँ
श्रम का संतोष ही आदमी को माथा उठाकर जीने की टेक देता है। व्यंग्य की दो
पंक्तियाँ यह जताती हैं कि राजा निर्दोष और प्रजा को दोषी माननेवाली रीति का भीतरी
सच क्या है, इस सच की परख कवि ने प्रह्लाद के जरिये की है :
मुकुट तो गलती नहीं करता
केवल प्रजा दोषी रही है।
जो श्रम के भागी नहीं हैं और जो समस्त दोषों से भी मुक्त हैं, उन्हें भी कवि ने
चेतावनी दी है कि वे ज़मीन पर उतरें, सबके साथ चलें :
जो चढ़े सिंहासनों पर
भूमि पर उतरें अभी,
हल धरें कांधे,
जो धरा जोते ’जनक’ वह,
वही शासक धरा का
वह धराधिप हो!
कहीं कहीं कविताओं में सामयिक संदर्भ भी प्रमुख बने हैं लेकिन यहाँ भी
स्पष्टता और परंपरा से जुड़ाव ने नई काव्यभंगिमा प्रस्तुत कर दी है।
’आपरेशन विजय’ के दो संदर्भ हैं :
युद्ध है अभिशाप
लेकिन
भूमिजा की लाज का जब
हो रहा अब
अतिक्रमण है;
- युद्ध तो अनिवार्य है।
***
साधुवेशी रावणों ने
हरण सीता का किया है,
जाल फैलाया हिरण का,
वध जटयू का किया है।
ये कविताएँ सपनों और आदर्शों का भी अलग धरातल ढूँढती हैं जहाँ एक ओर सामाजिक
बोध की स्वीकृति है :
तुम समझने लगे थे अब
माँ और गुड़िया के फ़र्क को।
चाभी के खिलौने और
बाप का अंतर.......
तो दूसरी ओर भविष्य को कुछ दे जाने का संकल्प:
आज यह संकल्प लेकर
रोपता हूँ बीज तुममें,
कल्पतरु अब तुम उगाओ।
कहीं यहाँ ’नीम’ के
बहाने पिता की याद है और कहीं ’रंग’ के साथ सकल सृष्टि के सपनों की बात है।
यह देखकर अच्छा लगता है कि ये कविताएँ बिना किसी लागलपेट के खुद बोलती हैं और
बहुत साफ बोलती हैं। यह सफाई कुछ कविताओं की संबोध्यता से भी आँकी जा सकती है। कभी
पंक्तियाँ सीधे पाठक को संबोधित हैं :
हाथ में रथचक्र लेकर
व्यूह से लड़ने चले हो!
***
तुम न दुहराना कहीं
गाथा वही,
हो न जाए फिर कहीं
अहसास की हत्या!
इंद्र पर भी पाप यह भारी पड़ा।
***
सावधान! होशियार!
कोई अपने घर से बाहर न निकले,
कोई खिड़कियों से झाँकने की
ज़ुर्रत न करे!
***
गलतफहमी है आपको।
सिर्फ़ आधी आबादी नहीं हैं वे।
बाकी आधी दुनिया भी
छिपी है उनके गर्भ में।
वे घुस पड़ीं अगर संसद के भीतर
तो बदल जाएगा
तमाम अंकगणित आपका।
***
कुछ ऐसा करो
कि वे चीखें, चिल्लाएँ,
आपस में भिड़ जाएँ
और फिर
सुलह के लिए
हमारे पास आएँ।
कहीं कविता में अवस्थित पात्र को :
ओ छली दुष्यंत
तुमको तापसी का शाप।
***
घेरकर अभिमन्यु को
तुम मार सकते हो,
किंतु
अर्जुन के
’विजय अभियान’ का
बस एक प्रण है-
अब विजय है – या मरण है;
- युद्ध अब अनिवार्य है!
***
जूझ रहा था जिस समय पूरा देश
समूचे पौरुष के साथ
हर रात
हर दिन
नए नए मोर्चों पर;
बताओ तो सही
तब तुम कहाँ थे, दोस्त?
कहाँ थे?
***
पिता,
जबसे तुम गए हो
बहुत याद आता है
गाँव वाले अपने घर का
वह नीम
जो तुम्हारी उमर का था।
’ताकि सनद रहे’ कविता में पूरे मनुष्य को देखने वाला संग्रह है।
पूर्ण पुरुष की संभावना कहाँ होती है, लेकिन कमियों से लड़-जूझ कर ही नई दिशाएँ खुलती हैं –
ऋषभ की इन सभी
कविताओं में मानवीयता का यह पक्ष सर्वोपरि है; और जो साहित्य मानव और मानवता की
धुरी से ही छिटका हुआ हो उसे कविता मानने का मैं तो कोई कारण नहीं देखता।
कवि में एक पाठक की तरह मुझे कई स्तरों पर भावप्रवणता दिखाई दी है। मैं आशा
करता हूँ कि भविष्य में यह कवि अपने इस भावबोध को सच्चे भारतीय बोध की नसैनी पर
चढ़ाने का प्रयत्न करेगा; और यह भी कि इस पठनीय और रस बोध से युक्त काव्य का हिंदी का
साहित्यप्रेमी समाज स्वागत करेगा।
:: 4 ::
ऋषभ देव शर्मा के चौथे कविता संग्रह ‘देहरी’ (ऋषभ : 2011) में उनकी चर्चित ‘स्त्रीपक्षीय’ कविताएँ
प्रकाशित हैं.
संवेदना यदि कविता का उत्स है तो ऋषभ देव शर्मा की ये कविताएँ संवेदनापरक
अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट उदाहरण मानी जाएँगी. कुछ कविताओं में संवेदना की
स्मृतिजन्य उपस्थिति में भावुकता भी दिखलाई पड़ती है. यह ख़ास इसलिए है कि भावुकता
प्रकट करने वाली भाषिक अभिव्यंजना आज की कविता से क्रमशः दूर होती जा रही है.
कहने को तो ये कविताएँ स्त्रीवादी कविताएँ हैं; और अपनी विषयवस्तु में हैं भी.
लेकिन ये स्त्री के इर्द गिर्द आकर ही ठहर नहीं गई हैं. इनमें पारिवारिक संरचना के बदलते स्वरूप की परख
है, सामाजिक
ढाँचे और मूल्यों के विघटन की आवाज़ है. पुराकथाओं के जरिये पुरुष-स्त्री संबंधों
की, और
स्त्री की, यातनागाथा की अभिव्यक्ति जैसे घटक भी इस तरह मिलाए हुए हैं कि इनमें स्त्री एक
अलग इकाई की तरह नहीं बल्कि धुरी की तरह चित्रित है गोकि उसकी शोषणक्रिया के अनुष्ठान कम ही बदल पाए हैं. कविताएँ इन्हें बदलना चाहती
हैं. जो कविताएँ स्त्री की ओर से प्रथमपुरुष में लिखी गई हैं, उनमें बदलाव की यह
तड़प अधिक मुखर है.
स्त्री की अनेक छवियाँ इन कविताओं में उभरी हैं. आदिवासी से लेकर घर परिवार की,
महानगरों की,
गाँवों-कस्बों की
स्त्रियों की - घुटन, भीतर भीतर पक रही अनपूरी
चाहें जब उनकी ललकार और चुनौती में बदलती
हैं तो यह अलग-अलग कविताओं का संग्रह प्रबंध काव्य का गठन पाता सा लगता है.
कवि ने अनुभूत ही लिखा है इसलिए हर
कविता सच्ची है. झूठ इनमें इतना ही है जितना आए
बिना कोई अच्छी कविता बनती भी
नहीं.
'देहरी' संग्रह की कविताएँ देहरी के भीतर वाली स्त्री के अनेक रूपों
का चित्र खींचती हैं और देहरी के बाहर निकल सकने की उसकी इच्छाओं, और इसके बावज़ूद
नागपाश की तरह जो सामाजिक रूढ़ियाँ उसे जकड़े हुए हैं उन्हें तोड़ने की जद्दोजहद,
को दर्ज करती हैं. साथ ही, देहरी के भीतर जाने और फिर बाहर न निकल पाने की एकतरफा
आमद को इस संग्रह की कविताएँ दृढ़ता से नकारती हैं.
- प्रो. दिलीप सिंह
कुलसचिव, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास
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