डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया
मैं पा रहा हूं तुझ में कुछ अपनी आहटें
अलीगढ़ गया था। यूनिवर्सिटी के ओरिएंटेशन कार्यक्रम में व्याख्यान देने। भाटिया जी अलीगढ़ में ही रहते थे। कुछ महीनों पहले कमरे में गिर गए थे, कूल्हे की हड्डी टूट गई। उम्र के कारण हड्डियाँ सूख गई थीं, कुछ किया न जा सका। बिस्तरे पर आ गए। फिर न जाने कैसे पक्षाघात भी हो गया। बेटी रचना (भाटिया) से उनका हाल मिलता रहता था। बेचैनी बढ़ जाती थी। मन उनसे मिलने को व्याकुल रहता था कि अलीगढ़ जाने का संयोग हुआ।
विश्वविद्यालय का पूरा हिंदी विभाग दुखी था। वे इसी में प्रोफेसर रहे थे। दूसरे दिन सुबह जल्दी निकल कर उनके घर पहुँचा। उनके डॉक्टर पुत्र से पहले ही तय कर लिया था, वे बाहर ही मिले। भीतर के कमरे में डॉ. भाटिया बिस्तर पर चादर ओढ़े चित लेटे थे। मुझे देखा तो जोर से मुस्कुराए। हाथ की उंगलियों में हरकत करके अपने पास बैठने का संकेत किया। मैंने चरण स्पर्श किया तो उनकी आँखों के दोनों कोरों से आँसू बह आए। मैं भी विगलित होने लगा था। एक कुर्सी उनके पलंग से सटा कर लगा दी गई थी, मैं बैठ गया। भावावेग में मैंने अपना हाथ उनके हाथ पर रख दिया। वे मुझे कुछ देर अपलक देखते रहे। फिर अस्पष्ट-सा कुछ बोले। उनके बेटे भाटिया जी के ये अस्फुट स्वर समझ लेते थे। उन्होंने बताया कि पूछ रहे हैं कि बहू और बच्चे कैसे हैं? मैंने उन्हीं के चेहरे पर आँखें गड़ा कर उत्तर दिया। सुन कर हल्का-सा हंसे।
इसी तरह देर तक उनसे बातें हुईं। उसी समय मेरी पुस्तक ‘हिंदी भाषा चिंतन’ आई थी, उन्हीं को समर्पित की थी। प्रकाशक से कहा था कि एक प्रति भाटिया जी को अवश्य भिजवा दें। उन्हें मिल गई थी। पुस्तक की तारीफ़ की। उनके बेटे ने बताया कि सुबह और शाम कोई-न-कोई उन्हें नई किताबों के कुछ पृष्ठ पढ़कर सुनाता है। धीरे-धीरे भाटिया जी मुखर हो रहे थे। मुझसे ढेरों बातें करना चाहते थे। उनके भृत्य, जो चाय लेकर आए थे बोले कि आपको देख कर आज बाबूजी बहुत खुश हैं। उनके बिना पूछे मैं उन्हें तरह-तरह की जानकारियाँ देता रहा। वे शांतचित्त सुनते रहे, कभी अपनी आँखें बंद कर लेते, कभी खोल लेते। मैं चलने के लिए उठा तो बोले – बैठो। उनका यह आग्रह मैं समझ गया था। अपने बेटे की ओर देख कर थोड़ी देर तक लड़खड़ाती जबान से कुछ बोलते रहे। उन्होंने कहा था कि इनसे पूछो कि आजकल क्या लिख-पढ़ रहे हैं, अपने संस्थान में नया क्या कर रहे हैं? मेरी आँख डबडबा आई थी। मैं बताता रहा, वे कान लगा कर सुनते रहे। उनके पास से उठने का मन नहीं कर रहा था। चलते समय चरण स्पर्श किया तो उनके नेत्र आशीर्वाद के भाव में हिले। बाहर निकला तो उनके बेटे ने कहा कि पिताजी बहुत कष्ट में हैं। ऐसी स्थिति में दर्द बहुत होता है। पर सहने की इनमें बहुत शक्ति है। आप फिर अलीगढ़ आएं तो जरूर आइए।
फिर जाना नहीं हुआ। तीन महीने बाद पूज्य भाटिया जी के देहावसान की खबर मिली।
कितनी-कितनी यादें बसी हैं डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया की मेरे अंतर्मन में। एक-से-एक, बहुमूल्य – एक-एक याद, उम्र का हासिल कहें जिसे। कहाँ से शुरू करूँ - उथलपुथल मची हुई है। उनका स्मरण अवसाद से नहीं भरता, आत्मबल प्रदान करता है। जीवन की राह पर कैसे चलें, इसकी सीख देता है। वे सिखाने वाली आत्मा थे। उपदेश नहीं, परामर्श। ये परामर्श उनका अपना जीवन-सत्य थे अतः गहरा असर छोड़ते थे। इन्हें मानने-अपनाने का मन करता था। भाटिया जी के प्रति विनत होने का भी। उनके साथ मेरा संबंध एकदम अलहदा था, जैसा उनके जैसे किसी अन्य वरिष्ठ के साथ नहीं था। उनके संसर्ग में मधुरता बरसती थी, प्रसन्नता नाचती थी। वे मुझे दिलीप पुकारते थे पर ‘आप’ सर्वनाम के साथ। मुझे दिलीप कहने वाले बस दो लोग और थे – पं. विद्यानिवास मिश्र और डॉ. रमानाथ सहाय। ये दोनों ही मुझे ‘तुम’ सर्वनाम देते थे। बस, इनके अलावा यहाँ तक कि रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, एस.के. वर्मा और नामवर सिंह भी मुझे ‘आप’ सर्वनाम देते हुए दिलीप जी कहते थे। भाटिया जी का - दिलीप आप शाम को मुझसे मिलिए. जैसे वाक्य कहना मुझे बहुत अच्छा लगता था। दिलीप के साथ ‘आपका’ मेल सिर्फ और सिर्फ वे ही मेरे लिए करते थे।
पहली बार मैं कब मिला उनसे? ठीक-ठीक याद नहीं पड़ता। शायद 1981 में, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा की एक बैठक में। उनकी पुस्तक प्रयोजनमूलक हिंदी आ चुकी थी। मेरी किताब व्यावसायिक हिंदी भी 1980 में आ गई थी। बैठकों में जैसा होता है, सबने अपनी-अपनी बात रखी। वे ‘चेयर’ कर रहे थे। ध्यान से सबकी बातें सुन रहे थे, नोटबुक पर कुछ टीप भी ले रहे थे। तब वे राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी, मसूरी में भाषा-विभाग के निदेशक थे। मैं संस्थान में ही था। शाम को उनसे मिलने गया। बड़े ही अपनत्व भाव से मिले। मेरी किताब की प्रशंसा की। बात ही बात में परामर्श दिया कि प्रयोजनमूलक हिंदी का क्षेत्र बहुत व्यापक है पर इस पर काम कम हो रहा है। आप जैसे लोगों को ध्यान देना चाहिए। अनुवाद के पाठ्यक्रम के साथ इसे जोड़ना चाहिए क्योंकि साहित्येतर अनुवाद ही हिंदी का भविष्य तय करेगा। फिर हम देर तक इधर-उधर की बातें करते रहे। इधर-उधर की याने तब हिंदी में पनप रहे शैलीविज्ञान पर, समाजभाषाविज्ञान पर, अनुवाद पर...। मैंने इंगित किया कि उनके सिरहाने रवींद्रनाथ श्रीवास्तव की ताज़ा-ताज़ा पुस्तक संरचनात्मक शैलीविज्ञान रखी हुई थी। हिंदी में या हिंदी के लिए कुछ नया हो तो उन्हें लगता था कि उनके जीवन में कुछ नया हो रहा है।
मैं ‘83 में आगरे से पुनः उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, हैदराबाद आ गया था। डॉ. भाटिया की बात मेरे ध्यान में थी। स्नातकोत्तर अनुवाद डिप्लोमा का पाठ्यक्रम बनना था। उनकी सीख को रूपाकार देने के लिए पाठ्यक्रम को दो खंडों में बाँटा गया - सैद्धांतिक तथा व्यवहारिक। व्यवहारिक खंड में वैज्ञानिक, प्रशासनिक, बैंकिंग, व्यापार-वाणिज्यिक पाठांशों के अनुवाद को जगह दी गई। श्रीवास्तव जी और एस.के. वर्मा ने पाठ्यक्रम को अंतिम रूप दिया था। पाठ्यक्रम की एक प्रति मैंने भाटिया जी को भिजवाई कि – ‘आपके सपनों को साकार करने का यत्न किया है, आशीर्वाद दीजिए।’ उनका पोस्टकार्ड मिला जिस पर आशीर्वादों की झड़ी लगी हुई थी। आशीर्वाद देने में भाटिया जी तनिक भी कोताही नहीं करते थे, मेरे लिए तो कभी ही नहीं।
कई वर्षों तक मैं आंध्र सभा की हिंदी मासिक पत्रिका पूर्णकुंभ का संपादक था। अंक उन्हें नियमित भेजे जाते। कोई अंक उन्हें पसंद आता तो अपनी प्रतिक्रिया अवश्य भेजते, हम उसे खुशी-खुशी छापते। फिर उनका एक पोस्टकार्ड आता। वे पोस्टकार्ड ही लिखते थे। नीली स्याही से चिट्ठी लिखते थे और फिर भूली-बिसरी बातें लाल पेन से, सारे हाशियों को अनुराग के रंग में रंग डालते थे। उन्हें पूर्णकुंभ के कई विशेषांक पसंद आए थे – हिंदी-उर्दू-हिंदुस्तानी वाला, मानकीकरण वाला, रवींद्रनाथ श्रीवास्तव वाला, और भी कई। हमें उनकी भरपूर आशीष मिली थी। पूर्णकुंभ के लिए वे मेरे अनुरोध पर लिखते भी थे। एक बार उनकी पाती आई तो हाशिये पर लाल रंग से लिखा था कि हमें पूर्णकुंभ का एक अंक डॉ. हरदेव बाहरी पर निकालना चाहिए। दोनों परम मित्र थे। दोनों कोशकार और हिंदी वैय्याकरण। इस अंक के निर्माण के लिए मैं उनसे सुझाव लेता रहा - खुद उन्होंने भी अपना एक लेख भेजा। उनकी सदाशयता का; मेरे लिए तो, कोई अंत ही नहीं था। कहाँ मिलेगा अब ऐसा सदाशय दानिशमंद। आप हिंदी के निमित्त कोई सार्थक काम शुरू कीजिए, वे आपके साथ हो जाएंगे।
एक बार, संभवतः 2000 में हैदराबाद में साहित्येतर अनुवाद पर एक बड़ी गोष्ठी आयोजित की गई थी – तीन दिन की। अनुवाद विज्ञान की भिन्न दिशाओं में कार्य करने वाले दिग्गज उपस्थित हुए थे। भाटिया जी भी आए। उन्हें और सुरेश कुमार जी को उस्मानिया यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में टिकाया गया था कि दोनों आराम से रह सकें। कुछ लोग सभा में ही रुके थे, थोड़े-से द्वारका होटल, लकड़ी का पुल में। पहले दिन सुबह दोनों को कार ले आई, खैरताबाद। खासी दूरी है। दोनों ने विद्वानों का जमघट देखा। भाटिया जी मुझसे बोले - दिलीप आप हमें भी यहीं रुका देते, सबका साथ रहता। वहाँ हम दोनों एकांत में पड़े हैं। मैं शरमा के रह गया। इस भव्य आयोजन से वे मुदित थे। सत्रों में खूब बोले। एक सत्र में रवींद्रनाथ श्रीवास्तव की पुस्तक हिंदी संरचना का विमोचन कार्यक्रम था। श्रीवास्तव की मृत्यु के बाद छपी इस किताब का संपादन भाटिया जी और सहाय साहब ने किया था। विमोचन के बाद भाटिया जी को किताब पर बोलना था। शुरू तो उन्होंने पुस्तक से किया पर जल्दी ही श्रीवास्तव जी की स्मृतियों में खो गए। संस्मरणों की बाढ़ आ गई। उनके हृदय का बांध मानो टूटने लगा था, उसके कोर-किनारे दरक चुके थे। अचानक सबने देखा कि वे सुबक रहे हैं। रो-रो कर बोल रहे हैं। बोलते-बोलते रो रहे हैं। चहुँओर सन्नाटा छा गया। बहुत भावुक थे भाटिया जी। जी हल्का हुआ तो थोड़े सयंत हुए - सुनते हैं कुछ रो लेने से, जी हल्का हो जाता है।
एक बड़ी प्रेरक और एक बड़ी मजेदार याद है उनकी। एनसीईआरटी की कार्यशाला थी। अन्य कई प्रोग्राम भी चल रहे थे। गेस्ट हाउस ठसाठस था। मेरा सौभाग्य कि मुझे और भाटिया जी को एक ही कमरे में ठहराया गया। वे जल्दी सो कर जल्दी उठते थे और मैं देर में सोकर देर से उठने वाला। हम भोजन करके आए तो मैंने आध-पौन घंटा टेबल पर काम करके उनकी सुविधा के लिए लाइट बंद कर दी। वे आँख बंद करके लेटे थे, उसी मुद्रा में बोले - दिलीप आप अपना काम कीजिए, मैं अपनी आँख पर तौलिया रख कर सो जाऊँगा। मैंने आनाकानी की, पर वे न माने। सुबह भी मुझे लगता है कि उन्होंने अपने दैनिक कर्म अतिरिक्त सावधानी के साथ किए होंगे क्योंकि मुझे कोई आवाज नहीं आई। एक हल्के-से खुटके से भी मेरी नींद उचट जाती है। कितना स्नेह भरा था भाटिया जी के हृदय में। खुद तकलीफ सहकर दूसरों को सुख देना, भला कितनों को आता है?
इसी कार्यशाला की बात है। हम दोनों शाम को कमरे में आए तो हाथ-मुँह धोने के बाद बोले - चलिए दिलीप, आज आपको बनारसी रंग की चीजें खिलाऊँ। उनका यह अलग रंग मैं पहली बार देख रहा था, पूछा – कहाँ? बोले, आपको अपने प्रकाशकों से मिलाऊँगा, दरियागंज चलेंगे। हम बस से दरियागंज पहुँचे। फिर रिक्शे से प्रभात प्रकाशन के दफ्तर। भाटिया जी की एकाधिक पुस्तकें यहीं से छपी हैं। खूब सत्कार हुआ। प्रकाशक से ही अपनी नयी पुस्तक हिंदी का शब्द सामर्थ्य मंगवा कर उन्होंने मुझे भेंट की। दरियागंज देसी खानपान का खास इलाका है। कटोरीनुमा पत्ते के दोने में दो-दो गरम-गरम गुलाब जामुन आए। छोले के साथ समोसा आया। पहले नमकीन फिर मीठा। वाणी प्रकाशन जाकर लस्सी पी गई। एनपीएच के यहाँ दो-दो स्पंजी रसगुल्लों का भोग लगा। गली-गली होकर पैदल ही दरियागंज मेन रोड से वापसी की बस पकड़ी गई। भोजन करने का तो सवाल ही नहीं था। कपड़े-वपड़े बदल कर हम दोनों बिस्तर पर लेट गए। उस दिन मैं भी भाटिया जी के समय से ही सो गया। मैंने देखा कि प्रकाशकों में उनका कितना सम्मान है। सब उनसे नई किताब देने का निहोरा कर रहे थे। हिंदी भाषा की इतनी महान विभूति और इतनी सरल? उस दिन भाटिया जी मुझे सिखा गए कि एक गहरे अध्येता को सरल और तरल किस भांति होना चाहिए।
डॉ. भाटिया हिंदी भाषा के धुनी थे। आठों पहर उन्हें हिंदी की धुन लगी रहती थी। कितना-कितना काम कर गए हैं वे। उनका अभिव्यक्ति कोश और व्यावहारिक हिंदी तो मील का पत्थर हैं। उन्हीं की तरह ‘सिखाने वाली’ दो शिखर रचनाएँ। मुझे याद आ रहा है कि गोवा में एक कार्यशाला थी। हिंदी की बारहवीं कक्षा के लिए एनसीईआरटी एक व्याकरण तैयार करवाना चाहती थी। दिल्ली में दो कार्यशालाएँ इस बाबत हो चुकी थीं। नाम भी तय कर लिया गया था - मानक हिंदी व्याकरण। गोवा में दो दिन के लिए श्रीवास्तव जी भी शामिल हुए। भाटिया जी और सहाय साहब भी थे। कुछ और विद्वान और मैं भी। पहले-दूसरे दिन खूब बहसें हुईं। श्रीवास्तव सहाय की टक्कर देख कर मजा गया। भाटिया जी को पुस्तक के अनुसार पाठवार ढाँचा बनाने का काम दिया गया। मैंने और सूरजभान सिंह ने उनका साथ दिया। दूसरे दिन ढाँचे पर बातचीत हुई। श्रीवास्तव जी ने भलीभाँति निर्देश देकर सभी को एक-एक पाठ तैयार करने को दे दिए। तय हुआ कि पाठों का सूक्ष्म अवलोकन करके भाटिया जी और सहाय साहब सामग्री का संपादन करेंगे। स्वीकृत पाठों के प्रश्न-अभ्यास बनाने का काम मुझे सौंपा गया। दूसरे दिन शाम को श्रीवास्तव जी चले गए। हम काम में जुटे, उसी क्रम से। मुझे पहली बार इन दो हिंदी वैय्याकरणों के साथ इतने निकट रहकर गंभीर बातचीत करने का अवसर मिला था। ढेरों-ढेर सीखने को मिला। भाटिया जी प्रश्न-अभ्यास देखकर प्रसन्न हो रहे थे। जहाँ कमी लगे मुझे सुधार के लिए सुझाव दे रहे थे। कितने मनोयोग से काम करते थे ये लोग। पढ़ने-पढ़ाने में श्रम करने और ईमानदार रहने का पाठ मुझे भाटिया जी जैसे सहृदय विद्वानों ने ही पढ़ाया है। मैं अपना चाम बेचकर भी इनका ऋण नहीं चुका सकता।
एक बार पुणे में भाटिया जी अपनी पत्नी हर्षनंदिनी भाटिया को साथ लेकर आए थे। तब वे सेवानिवृत्त होकर वृंदावन शोध संस्थान, वृंदावन में शोध-सलाहकार का दायित्व निभा रहे थे। ब्रजभूमि और राधा-कृष्ण उनके प्राणों में बसे थे। उनकी आध्यात्मिक आत्मा को अब एक दिशा मिल गई थी। सहधर्मिणी भी उन्हीं के रंग राची थीं। वृंदावन प्रवास में उनके साथ ही रहतीं। बहुत सात्विक विचारों की महिला थीं। संध्या को उन्होंने मुझे अपने कमरे में बुलाया। मैं अब थोड़ा-बहुत हिंदी जगत में जाना जाने लगा था। हर्षनंदिनी जी ने बताया कि उन्होंने भारत के वृक्ष परिवार पर एक पुस्तक लिखी है। पुस्तक मुझे भेंट की गई। पता चला कि इस पुस्तक के लिए श्रीमती भाटिया को वृंदावन के राधा-कृष्ण संप्रदायों से खूब सराहना मिली है। भाटिया जी की इच्छा थी कि इस पुस्तक पर हिंदी विद्वानों से लेख मंगा कर एक पुस्तिका निकाली जाय। दंपत्ति ने मुझसे भी एक लेख लिखने का अनुरोध किया। मैं मन ही मन उपकृत हो रहा था। रात में ही पूरी किताब पढ़ गया – अद्भुत। पीपल, वटवृक्ष, बेल, नीम, आम, जामुन, पलाश आदि के वृक्षों की पौराणिक, सांस्कृतिक और लौकिक व्याख्या। कुछ ही दिनों बाद मैंने उन्हें अपना लेख भेज दिया – पिपरा के पतवा सरीखे डोले मनवा। भाटिया जी का लाल-नीला पोस्टकार्ड तुरंत मिला।
एक बार मैं उनसे दिल्ली में मिलने गया था। उन दिनों वे अपनी बेटी के पास आए हुए थे। रचना केंद्रीय मुक्त विद्यालय संगठन में प्रवक्ता थी। मेरे आग्रह पर वही मुझे ले गई थी। भाटिया जी ड्राइंग रूम में ही बैठे थे। कुछ लिख रहे थे। मुझे देखते ही खिल उठे। बहुत स्वस्थ नहीं थे। हर्षनंदिनी जी उन्हें छोड़कर चली गई थीं। लगातार बातें करते रहे। स्मृतियों का खजाना था उनके पास। किशोरी दास बाजपेयी, धीरेंद्र वर्मा, रामविलास शर्मा, बाबू गुलाब राय की। श्रीवास्तव, भोलानाथ तिवारी, देवेंद्रनाथ शर्मा, हरदेव बाहरी की। स्मरणों की यह मंजूषा वे मेरे सामने अक्सर खोल कर बैठ जाते थे। उनके पास बातचीत की आकर्षक शैली थी। मन करता सुनते ही जायं। उनकी इस मंजूषा से मुझे अगणित माणिक-मोती मिले हैं। चाय के बाद वे भीतर के कमरे में चले गए और एक गंदली-सी फाइल लेकर आए। उन्होंने बताया कि इस फाइल में हिंदी भाषा पर काम करने वाले शीर्षस्थ लोगों का परिचय है, उनके काम का अंकन है। मैंने देखा आधा पेज, एक पेज, दो पेज की टिप्पणियाँ अलग-अलग समय पर भिन्न आकार और रंगों के कागज़ पर लिखी हुई थीं। ये कागज़ उनकी स्मरण शक्ति और अध्ययनशीलता के दस्तावेज़ थे। उन्होंने मुझसे कहा कि आप यह फाइल ले जाइए और इसे संपादित करके प्रकाशित कराने का यत्न कीजिए। उनकी यह बात सुनकर मुझे अपार कष्ट हुआ कि – ‘अब मुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि यह श्रम कर सकूँ।’ उनकी यह भी इच्छा थी कि पुस्तक ‘वाणी प्रकाशन’ से छपे। मैं उनसे क्या कहता। वापस चला आया। पन्ने-पन्ने की छनाई शुरू की। उचित क्रम दिया। अद्यतन सूचनाएँ भरीं और टंकित करा दिया। अपने हिसाब से एक शीर्षक भी दे दिया - हिंदी भाषा के अध्येता। उनके आदेश का पालन करने के बाद पांडुलिपि उन्हें भिजवा दी, इस अनुरोध के साथ कि वे ‘दो शब्द’ लिख दें। तुरंत पोस्टकार्ड आ गया। थोड़े दिन बाद पांडुलिपि और ‘दो शब्द’ भी मिल गए। ‘दो शब्द’ उन्होंने किसी से बोल कर लिखवाए थे। हाथ कांपने लगे थे। पोस्टकार्ड के अक्षर भी टेढ़े-मेढ़े थे। मैंने वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी से बात की। वे भी डॉ. भाटिया का बहुत आदर करते थे। किताब आकर्षक रूप में शीघ्र ही छप कर आ गई। ‘दो शब्द’ में डॉ. भाटिया ने मेरा नाम लेकर मुझे आशीर्वाद दिया है। यह आशीर्वाद आज तक मेरे जीवन का पाथेय है।
डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया मेरे लिए मात्र एक व्यक्ति या विद्वान नहीं हैं। साक्षात प्रेरणा हैं। प्रेरणाओं के पुंज। पिछले जनम के पुण्य से ही किसी को भाटिया जी जैसी सज्जन आत्मा का स्नेह मिलता है। मेरे जीवन के वे मधुर स्वर थे। उनके साथ होते हुए लगता था किसी वृक्ष की घनी छाया में बैठा हूँ। सुकून ही सुकून। खुशी ही खुशी। संतोष ही संतोष। सर्वांग पूर्ण जागृति। कि भीतर का सुप्त भी जाग उठे। हिंदी भाषा को भी उन्होंने इसी किस्म का जागरण दिया था। हिंदी भाषा की सोई हुई संभावनाओं को उन्होंने अपने स्नेह का स्पर्श दे-देकर मुखर बना दिया था। मुझे वे क्या-क्या नहीं दे गए हैं। ज्ञान ही नहीं संस्कार भी, दृष्टिकोण ही नहीं दृष्टि भी, सजगता ही नहीं सहजता भी। उनके उदात्त आचरण की छाया में यह सब अनायास ही मिलता चला जाता था। उनकी स्मृतियों का अंबार लगा है मेरे पास। सबको समेटने चलूँ तो पस्त हो जाऊँगा। इतना भर लिखने ने ही बेकस कर दिया है। मन हो रहा है कि छाती कूट डालूँ या सिर पीट लूँ। भाटिया जी मुझसे दूर जाकर; महसूस होता है, अपनी दी गई खुशियाँ ही छीन ले गए हैं। जीवन की जिस सुंदरता का एहसास उनके सान्निध्य में सतत् होता रहा है वह उजाड़-उजाड़ सा भासित होता है। लगता है वे मेरे लिए सारे जहाँ के हुस्न को वीराना कर गए।
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