स्मरण में है आज जीवन
निःशेष जीवन
जीवन के इस पड़ाव (सत्तर वर्ष) तक आते-आते मेरे अनगिन आत्मीय ब्रह्मलीन हो गये हैं। बरसों से मन इन सबकी स्मृतियों को संजोने को व्याकुल था – ‘निराला’ की एक पंक्ति “मेरे प्रिय सब चले गये” का शीर्षक भी सोच लिया था। पर बाद मे यह पंक्ति मुझे विलाप जैसी महसूस हुई। मृतात्माओं के नाम पर विलाप करना हमारे संस्कार में नहीं है। मरण तो जीवन का पुनरारंभ है। भारतीय जीवन दर्शन मृत्यु को उत्सव मानता है। मृत्यु का दर्शन चाहे कुछ भी हो, जानेवाले की याद सालती तो है। जी कचोटता है पर एक अलहदा किस्म का सुख भी मिलता है – जो नहीं है, जो कभी वापस नहीं लौटेगा, उसके साथ होने का, उसके स्मरण में होने का। तो अब ‘निराला’ की ही यह पंक्ति शीर्षक के लिए सर्वथा उपयुक्त लगी – “स्मरण में है आज जीवन”। अपना जीवन आज उनका स्मरण कर रहा है जो कभी हमारे जीवन का अंग थे। आज भी तो हैं। इनकी स्मृतियों से मुक्ति कहाँ, कौन छूटना भी चाहता है उनसे? इन स्मृतियों से भी छूट गये तो फिर बचा ही क्या रह जाएगा जीवन में – एक मूठी छार।
नागार्जुन ने कहीं लिखा था कि – स्मृतियाँ हिरन के छौनों की तरह कुलांचें भरती हैं। सच, कोई भी याद सीधे-सीधे तो चलती ही नहीं। कभी आगे, कभी पीछे। प्रारंभ, मध्य और अंत का कोई सिलसिला ही नहीं। आड़ी-तिरछी, पर असंबद्ध कतई नहीं। दिवंगत आत्मीयों की स्मृतियाँ और भी बेतरतीब ढंग से घेरती हैं।
अभी-अभी, इसी महीने मेरे परमप्रिय सखा प्रो. एम.वेंकटेश्वर का देहांत हो गया है। ऐसी कोई सुनगुन नहीं थी। अचानक। किसी प्रिय का बिछोह मुझे अजीब किस्म के अवसाद से भर देता है, भरता रहा है – मेरे तईं आकाश कुछ मटमैला-सा हो जाता है। वायु अठखेलियाँ करना बंद कर देती है। वृक्ष अवाक् खड़े रह जाते हैं। शाखें थिर हो जाती हैं। फूल बेरंग और धरती गंधहीन।
वैसे तो मेरे इस जीवनकाल में बहुतेरे प्रियवर दिगंत में विलीन हो चुके हैं। सभी का अभाव कसमसा कर रख देता है। इन सभी के जाने पर एक-सा अवसाद मेरे वजूद पर छाया है। सब पर लिख पाना सहज नहीं है। इस श्रृंखला में पच्चीस आत्मीय आत्माओं की यादें आप तक पहुँचाऊंगा। एकदम निजी। इनमें से कुछ मेरे परम आदरणीय हैं। कुछ समव्यस्क बुद्धिजीवी हैं। कई खुले दिलवाले यार हैं तो कुछ जीवन जीना सिखाने वाले महानुभाव हैं...। कैसे-कैसे रंग की कितनी-कितनी स्मृतियाँ बस गयी हैं मन में। किन रास्तों से, कब, कहाँ, कैसे फूट पड़ती हैं कि क्या कहूँ। इनके आने और जाने का अपना ही ढंग है। अपना ही ढब है।
यहाँ नामवर सिंह भी होंगे और शुकदेव सिंह भी। कैलाशचंद्र भाटिया भी आएंगे और भोलानाथ तिवारी भी। शिवप्रसाद सिंह भी कौंधेगे और परमानंद श्रीवास्तव भी। विद्यानिवास मिश्र भी जाग उठेंगे और रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव भी। बालगोविंद मिश्र की भी यादें होंगी और रमानाथ सहाय की भी। हैदराबाद के भी अनेक दिलकश मित्र यहाँ मेरे स्मरण में पुनर्जन्म लेंगे।
यादों का यह सफर प्रो. एम.वेंकटेश्वर की यादों से शुरू कर रहा हूँ। उनके जाने के बाद एक ‘स्मृति-लेख’ लिखने को तड़प रहा था कि मन हुआ कि यहीं से ‘स्मरण में है आज जीवन’ को प्राण दिया जाय। बरसों से अटकी स्मृतियों को जीवन मिल जाएगा। प्रो. एम.वेंकटेश्वर जब हमारे बीच थे तो कई मामलों में वे मेरे प्रेरणास्त्रोत बने हैं। निबुहरे देस (वह देश जहाँ से कोई वापस नहीं आता) में पहुँच कर भी आज वे इस स्मृति-पाठ को संपन्न करने की प्रेरणा देते हुए मेरे समक्ष खड़े हैं। नमस्ते वेंकटेश जी !
एक के बाद एक ये सब लोग आपसे मिलेंगे। इन्हें पृष्ठों पर उतारने का मकसद मात्र इतना ही है कि – हम इन्हें भूलें नहीं, इनके काम को जानें, इन्हें भीतर-बाहर से पहचानें और इन सबको मेरी निगाह से भी देख पाएँ।
मेरे लिए आसान न होगा अपने भीतर के स्मरण को बाहर उंडेलना। पर इतने वर्षों की आनाकानी के बाद अब जाके मन बंधा है। ‘स्त्रवंती’ के पाठकों को मेरी यह भावविह्वल आत्माभिव्यक्ति इन आत्माओं के व्यक्ति और कृत्य के माध्यम से कुछ भावभीने पल दे सके, यही प्रार्थना कर रहा हूँ।
- प्रो. दिलीप सिंह
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