गुरुवार, 22 दिसंबर 2022

स्मरण में है आज जीवन: 1

प्रो. एम.वेंकटेश्वर

तुम न जाने किस जहाँ में खो गए

अचानक चले गए वेंकटेश जी। मैं उन्हें इसी तरह संबोधित करता था। दक्षिण भारत (चेन्नई) से मैं 2014 में अमरकंटक आ गया। मेरे इस निर्णय से वे बहुत दुखी हुए थे। खिन्न भी हुए। पर फोन पर लगातार बतियाते रहे - उन्हें मुझसे और मुझे उनसे बात करके बड़ा सुख मिलता था। अस्पताल से फोन पर बताया उन्होंने कि उनकी तबीयत ठीक नहीं है। मुझे यकीन ही नहीं आया। वे बीमार भी हो सकते हैं कभी जाना ही न था। स्वस्थ शरीर और मन के मालिक थे वे – सर्वप्रसन्न, खुशदिल और किताबों की दुनिया में जीने वाले। कुछ दिनों बाद मैंने फोन किया। चिंता लगी हुई थी। संतोष हुआ कि वे घर आ गए हैं। खुश थे। आवाज में भी खनक लौट आई थी कि दो ही दिन बाद मनहूस खबर मिली कि...। तकलीफ चिरे घाव-सी पीड़ा देने लगी। बात हुई थी कि मैं अगस्त में हैदराबाद आने वाला हूँ। बोले - जल्दी आइए डॉक्टर साहब। जल्दी आने का अवसर उन्होंने नहीं दिया।

वेंकटेश जी और मेरे संबंध बहुत पुराने थे और बहुत-बहुत आत्मीय भी। कई डोरें थीं जिन्होंने हम दोनों को मजबूती के साथ बांध रखा था। एक डोर थी – अध्ययनशीलता। वे खूब पढ़ते थे। हिंदी, अंग्रेजी, तेलुगु का साहित्य। अंग्रेजी साहित्य में इतना गहरे तक डूबा और कोई हिंदी अध्यापक मैंने नहीं देखा। बोलचाल की अंग्रेजी पर भी उनका पूर्ण अधिकार था। फर्राटे से बोलते थे। उनकी हिंदी सुनकर तो कहीं से भी नहीं लगता था कि वे हिंदीभाषी नहीं हैं। प्रांजल, साफ और सही अनुतान और बलाघात के साथ हिंदी बोलते थे। प्रभावशाली हिंदी। मंच पर उनकी हिंदी और भी प्रखर, और भी सजीली हो जाती थी। हिंदी की तीनों शैलियाँ उनकी उंगलियों की पोर पर नाचती थीं। उन्हें सुनकर, उनसे बात करके सम्मोहन हो आता था।

वेंकटेश जी बस पढ़ते नहीं थे, गुनते थे। पढ़े हुए को मथते थे। किताबों के भीतर पैठने की उनकी अपनी ही रीति थी। मैंने उन्हें किसी रचना को हल्के में लेते नहीं देखा। जो हल्के में देखते थे, उनकी वे अच्छी खबर लेते थे। कोई समझौता नहीं। साहित्य की हेठी होते देख बिफर पड़ते थे। सेमिनारों में कई बार मैंने उन्हें उथले विचारों से टकराते हुए देखा है। साहित्य और भाषा के प्रति यह उनकी सत्यनिष्ठा थी, जिस पर मैं रीझा रहता था। वे भी इस बात को जानते थे। भाषाविज्ञान में मेरी निष्ठा और समर्पण का वे आदर करते थे। एक दीवाना ही दूसरे दीवाने का दर्द पहचानता है। साहित्य और भाषा के लिए यह दीवानगी भी हमें आपस में बांधने वाली एक मजबूत डोर थी। इस नजरिए से मैं उन पर मुग्ध था और वे मुझपर। ऐसा मोह-छोह रखने वाला अब मुझे कहाँ मिलेगा? वेंकटेश जी मेरा आत्मबल बढ़ाने वाले परम सखा थे। अपने साथ वे मेरे आत्मबल का एक अंश लेकर चले गए हैं।

वेंकटेश जी की स्मृतियों का अंत नहीं है। वे मेरे अंतरंग ही नहीं, मुझसे अभिन्न थे। मेरे भीतर समाए हुए। हम दोनों सिनेमा के रसिया थे। उनसे सिनेमा पर बात करके आनंद आ जाता था। हिंदी सिनेमा उनकी रग-रग में बसा हुआ था। हम दोनों सिनेमा पर सोचते थे और सिने-कला की बारीकियों पर बहस करते थे। वे तो अंग्रेजी और तेलुगु सिनेमा के भी मर्मज्ञ थे। हिंदी फिल्मों के संगीत पर हम दोनों मुग्ध थे। वे अपनी कार में मुझे कहीं ले जाते तो स्टीरियो चालू कर देते - पुरानी हिंदी फिल्मों के गाने। कैसी परिष्कृत रुचि थी उनकी। फिर हम उन गीतों के इतिहास में जा पैठते। गीत की भाषा और लय के माधुर्य पर चर्चा करते चलते। रास्ता चुटकियों में कट जाता। मेरी तो कम, पर उनकी अंग्रेजी फिल्मों पर भी गहन पकड़ थी। निधन से कुछ ही माह पूर्व उन्होंने अपनी सद्य प्रकाशित पुस्तक – विश्व साहित्य और हॉलीवुड मुझे भिजवाई थी। विश्वविख्यात तेईस क्लासिक उपन्यासों पर आधारित अंग्रेजी में निर्मित फिल्मों पर वेंकटेश जी ने इसमें तबसिरा किया है। साहित्य और सिनेमा से उनके गहरे लगाव का यह किताब स्वतः प्रमाण है। मैंने उन्हें फोन करके पुस्तक को ‘अद्भुत’ कहा तो सकुचा गए। ऐसा वे अक्सर करते थे, उनकी सराहना करता तो झेंप जाते, बात बदल देते।

वेंकटेश जी के इसरार पर मैंने कई तेलुगु फिल्में भी देख डालीं। मुझे याद है, एक बार फोन पर उन्होंने मुझसे 1957 की तेलुगु फिल्म माया बाज़ार देखने का इसरार किया। कहानी भी बता गए और यह भी कि इसमें युवा एन.टी.रामा राव, अक्कीनेनी नागेश्वर राव, जेमिनी गनेसन, सावित्री और एस.वी.रंगा राव ने अभिनय किया है। इतना ही नहीं, इस फिल्म पर अपना एक लिखा एक लेख भी ई-मेल कर दिया। मैंने फिल्म देखी। ‘महाभारत’ के एक प्रसंग को दर्शाती इस फिल्म ने मुझ पर जादू सा कर दिया था। ऐसे अनेक उपकार वे मुझ पर करते रहते थे - कभी कोई किताब या लेख भेज कर, कभी कोई फिल्म भेज कर तो कभी हिंदी की किसी पुरानी रचना की समीक्षा भेज कर। भाषा और साहित्य के अध्येताओं में बहुत कम ही ऐसे होंगे, वेंकटेश जी की तरह जिनके प्राण सिनेमा में बसते हों। इस ‘स्मरण’ का शीर्षक मैंने जानबूझ कर हिंदी सिनेमा के गीत की पंक्ति से दिया है। सज़ा (1951) फिल्म का गीत है जिसे साहिर लुधियानवी ने लिखा था, एस.डी. बर्मन ने धुन बनाई थी और लता मंगेशकर ने गाया था - तुम न जाने किस जहाँ में खो गये / हम भरी दुनिया में तनहा हो गये। यह गीत वेंकटेश जी को बहुत प्रिय था। एक बार उनकी गाड़ी में यह गाना बज रहा था तो उन्होंने अति उत्साह के साथ मुझे बताया था कि लंदन के एल्बर्ट हॉल में लता मंगेश्कर ने इस गाने को गाया था और यह भी कि इस कार्यक्रम के पहले एल्बर्ट हॉल में किसी भारतीय का परफॉर्मेंस नहीं हुआ था। कार्यक्रम दो दिन का था। दिलीप कुमार और मुकेश भी ट्रूप के साथ गए थे। पहले दिन मुकेश और लता ने कुछ ड्युएट्स और कुछ अपने सोलो गीत गाए। उसी रात मुकेश को दिल का दौरा पड़ा और उनका देहांत हो गया। दूसरे दिन सुबह ही उनके पार्थिव शरीर को भारत भेज दिया गया। दूसरे दिन शाम के कार्यक्रम की शुरुआत अपने “मुकेश भैया” को याद करते हुए लता जी ने इसी गीत से की थी। मुकेश जी को वे अपना बड़ा भाई कहती और मानती थीं। मैं चकित था। ऐसी न जाने कितनी अतिरिक्त जानकारियाँ फिल्मी गीतों के बारे में, फिल्मों के बारे में, साहित्यिक कृतियों के बारे में वे मुझे देते रहते थे।

हम दोनों ने एक साथ बहुत काम किया। कई बरस तक। कोई अकादमिक कार्य हो, हम दोनों अभिन्न थे। सेमिनार-वर्कशॉपों की कोई गिनती नहीं है। सभा की पाठ्यपुस्तकों के नवीकरण, दूरस्थ शिक्षा के लिए बी.ए. और एम.ए. स्तर के पाठ तथा बी.एड. के लिए पुस्तक निर्माण जैसे कामों में वे प्राणपण से मेरा हाथ बंटाते थे। ग्रुप के अन्य सदस्यों से खूब बहस करते थे, इसके बाद ही कोई निर्णय लिया जाता था। सामग्री उत्कृष्ट हो, नयी हो, नया दृष्टिकोण हो, इन बातों के वे हिमायती थे। सभी लोग उनकी इस प्रवृत्ति की सराहना करते थे। अकादमिक कामों के साथ उनका लगाव संक्रामक था। खाने जा रहे हैं, खाना खा रहे हैं, खा कर वापस लौट रहे हैं - विषय का सूत्र उनसे छूटता नहीं था। उनका यह ‘पैशन’ अन्य सबके लिए उत्प्रेरक का काम करता था।

हिंदी साहित्य उनका ओढ़ना-बिछौना था। वे उस्मानिया विश्वविद्यालय में रहे, विदेशी और अंग्रेजी भाषा संस्थान में रहे - उनकी सदैव यह इच्छा रहती थी कि हिंदी के मूर्धन्य हिंदी लेखक-आलोचक हैदराबाद पधारें। नामवर सिंह, मैनेजर पांडेय, राजेंद्र यादव, शैलेश मटियानी, अशोक वाजपेयी, और भी कई उनके और मेरे प्रयास से हैदराबाद आए। वेंकटेश जी के लिए तो मानो भगवान आ गए। उनका सामाजिक आचरण अत्यंत शिष्ट था। बड़े-बड़े लोग उनके मोहपाश में बंध जाते थे। मैं उनके हर कार्यक्रम में अनिवार्यतः रहता था और वे मेरे। हम दोनों का एक-दूसरे के बिना काम नहीं चलता था।

मेरा वे बहुत ध्यान रखते थे। किसी काम से हम दिल्ली गए थे। नामवर जी से मिलने का कार्यक्रम बना। दूरी बहुत थी। रास्ते भर वेंकटेश जी मेरी सुध लेते रहे। आधे रास्ते पर जबरन मुझे मुसम्मी का रस पिलाया। उनका प्रेम, स्नेह, आदर और सत्कार मुझ पर बरसा करता था। अब यह बारिश थम गई है। सूखा पड़ा हुआ है। क्या करूं? मेरे लिए वेंकटेश जी रसधार थे। खाने के शौकीन थे, मैं भी था। बताते थे कि रविवार को सब्जी लेने के लिए मंडी वे स्वयं जाते हैं - ताज़ी-ताज़ी अपने पसंद की तरकारी। ‘हैदराबादी क्विज़ीन’ हम दोनों की कमजोरी थी। वे इनके सारे अड्डे जानते थे। पैराडाइज़, थ्री-एसेज़, ब्लू फॉक्स और न जाने कितने देसी ढाबों में उन्होंने मुझे जिमाया है। भोजन करना उनके लिए एक उत्सव होता था। पाक कला में भी वे पारंगत थे। ‘डिशेज़’ की ऊँच-नीच समझते थे। खाते समय भी उस व्यंजन के गुण-दोष पर टिप्पणी करते चलते थे। ज्यादा गड़बड़ लगी तो मैनेजर को बुला कर समझाते भी थे कि उसे अपने रेस्त्रां की ‘रेप्युटेशन’ का ध्यान रखना चाहिए। एक बार ‘पैराडाइज़’ के बैरे से बोले कि बिरयानी देग के बीच से निकाल कर ले आना। मैंने पूछा ऐसा क्यों? तो कहने लगे कि मसाला और अन्य तत्व बीच में आकर स्थित जाते हैं। किनारे से निकाल कर ले आएगा तो ज़ायका कमज़ोर हो जाएगा। वेंकटेश जी हर बात में परफेक्शन चाहते थे। सामान्य और विशिष्ट दोनों का वे तल तक जाकर अन्वेषण करते थे। उन्हें छिछले-उथले रूप में कोई भी चीज़ रास नहीं आती थी।

यह गहराई या गंभीरता उनके लेखन में दीख पड़ती है, उनके वक्तृत्व में भी थी। उन्हें सुनते हुए लगता था कि वे विषय को झकझोर डालेंगे। उनके व्याख्यान हमें सोचने का उकसावा देते थे। एक बार एम.फिल. के पाठ्यक्रम के लिए ‘मनोवैज्ञानिक आलोचना’ के दृष्टांत के रूप में विश्लेषण के लिए जैनेंद्र कुमार की कहानी ‘पाजेब’ चुनी गई थी। हिंदी उपन्यासों के मनोवैज्ञानिक अध्ययन पर भी उनका विशेष कार्य है, यह सोच कर मैंने उनसे यह अनुरोध किया कि यह पाठ वे ही लिखें। मैं रात में भोजन के लिए जाने को उनके कमरे में गया तो वे ‘पाजेब’ कहानी सामने रख कर ‘नोट्स’ बनाने में जुटे हुए थे। यह थी उनकी कार्यनिष्ठा। वे हमेशा इसी तरह लिखते-पढ़ते थे। कभी आप यह पाठ पढ़ेंगे तो जान सकेंगे कि वह कितना अनमोल है।

कई पत्रिकाओं के विशेषांकों का उन्होंने संपादन किया - इसी निष्ठा के साथ। हिंदी विभागों और हिंदी की प्रतिष्ठित संस्थाओं के लिए जुट कर काम किया - इसी निष्ठा के साथ। अनेक सम्मान अर्जित किए, यूरोप में हिंदी का परचम लहराया, हिंदी भाषा और साहित्य के वैविध्य में अपने को रचाया-बसाया तो इसी निष्ठा के कारण। वे काम नहीं करते थे, जूझ जाते थे। स्वयं को उसमें खपा देते थे। अपने को उसी में मगन कर लेते थे। साहित्य और भाषा का काम उन्हें परमानंद प्रदान करता था। मैं अनगिनत बार उनके इस विभोर-भाव का साक्षी रहा हूँ। उनका यह दुर्लभ गुण मेरे अंतर को भी बांध लेता था। वे खुल कर बात करते थे – बेबाक। कुछ लोगों को उनकी यह बेबाकी रास नहीं भी आती थी। पर ऐसे लोगों की वे परवाह नहीं करते थे। वेंकटेश जी भाषा, साहित्य, सिनेमा, आलोचना पर वाद-विवाद-संवाद करना चाहते थे। अपनी मनमानी चलाने वालों को उनका यह तरीका पसंद नहीं आता था। जब वे इनसे बहस करते तो ये सब अपने खोल में दुबक जाते। और एक मैं था कि उनकी इसी अदा पर फिदा था। मैं उनके साथ दो-चार करने के लिए मैदान में उतर पड़ता था - उन्हें मज़ा आ जाता था, वे लहकने लगते थे।

मेरे साथ उनके घरेलू संबंध बन गए थे। भाभी जी महिला महाविद्यालय, कोठी में शिक्षिका थीं। मुझे अपने यहाँ बुलाती रहती थीं। वेंकटेश जी जब चेन्नई आते तो एक-दो शाम घर पर ज़रूर आते थे। मेरी पत्नी अंग्रेजी में एम.ए. हैं। इन दोनों की खूब पटती। मेरी बेटी निधि हर तरह का अंग्रेजी साहित्य पढ़ती थी। जासूसी और थ्रिलर उसे विशेष पसंद थे। ‘मर्डर इन दि ओरियंट एक्सप्रेस’ (अगाथा क्रिस्टी), ‘एडवेंचर्स ऑफ शरलॉक होम्स’ (सर आर्थर कॉनन डॉयल), ‘दि साइलेंस ऑफ दि लैंब्स’ (थॉमस हैरिस), ‘दि दा विंची कोड’ तथा ‘एंजेल्स एंड डीमंस’ (डैन ब्राउन) वह न जाने कितनी-कितनी बार पढ़ चुकी थी। वेंकटेश जी उसकी इस रुचि को जानते थे। दोनों में बहस छिड़ जाती। दोनों अपना-अपना नज़रिया रखते। जब वे चले जाते तो निधि अचरज से पूछती कि – पापा, अंकल हिंदी के प्रोफेसर हैं या अंग्रेजी के? ऐसी ही खुली चर्चा वे पत्नी के साथ गंभीर अंग्रेजी साहित्य और अंग्रेजी आलोचना पर करते थे। अद्भुत मेधा थी उनकी।

अभी जब उन्होंने ‘विश्व साहित्य और हॉलीवुड’ पुस्तक भेजी तो मेरी छोटी साली दिल्ली से आई थी। कुछ ही दिनों बाद उसे वापस जाना था, सो उसने किताब हथिया ली। उसके जाने के बाद पत्नी उसका पारायण करने लगीं। मैं किताब की सिर्फ ‘भूमिका’ ही पढ़ पाया था। फोन किया तो उन्होंने पूछा कि - आपने किताब पढ़ ली? मैंने झेंपते हुए वस्तुस्थिति से अवगत कराया। खिल उठे, बोले - भाभी जी से कहिएगा कि पढ़ने के बाद मुझे फोन करें। अब तो मैंने भी पूरी पुस्तक पढ़ ली है। पर उन्होंने तो फोन करने का मौका ही नहीं दिया। उठ कर न जाने कहाँ चले गए। उनकी किताब पर विस्तार से लिखने का मन था। पर अब तो वह उछाह ही बैठ गया है।

मुझे वे भर-भर के आदर स्नेह और प्यार देते थे। मुझे अपने साथ पा कर वे निहाल हो जाते थे। हैदराबाद पहुँचते ही मैं उन्हें फोन करता था। दिन-भर वे मेरे साथ ‘कार्यशाला’ करते। शाम को हम कहीं भटकने निकल जाते - कभी टैंक बंड, कभी बिरला मंदिर, कभी पब्लिक गार्डन तो कभी नेकलेस रोड। मन करता तो हम लॉन्ग ड्राइव पर सिकंदराबाद तक निकल जाते। मधुर, पुराने हिंदी फिल्मों के गीत सुनते हुए। किसी दिन नामी रेस्त्रां में डिनर लिया जाता। वेंकटेश जी अभिजात रुचि के मनुष्य थे। परिष्कृत। यही परिष्करण उनकी अध्ययन वृत्ति ने भी था। सबसे अलग। सिनेमा पर हम दोनों के पास ढेरों किताबें थीं। वे मेरी रुचि जानते थे। वर्कशॉप में आए तो बोले कि दिलीप कुमार की आत्मकथा आई है (DILIP KUMAR : The Substance and the Shadow – An Autobiography)। लंच के बाद मुझे अपनी कार से एबिड्स ले गए। संतोष-सपना थियेटर के पास वाले बुक-स्टोर बेस्ट बुक सेंटर से यह साढ़े चार सौ पृष्ठों की किताब खरीदी गई। वापस आए तो कार्यशाला ठप-सी पड़ी थी, सारे सदस्य हम दोनों को रहस्य भरी नज़रों से देख रहे थे। गुरुदत्त, नौशाद, देव आनंद, सचिन देव बर्मन पर छपी किताबें मैंने हैदराबाद के अलग-अलग प्रवास में वेंकटेश जी के साथ ही खरीदी हैं। वे मुझे ये किताबें खरीदवाते हुए परम प्रसन्न होते थे। उनकी वह प्रसन्नवदन छवि इस समय मेरे मन मानस में तैर रही है।

लोग चले जाते हैं पर उनकी यादें नहीं जातीं। वेंकटेश जी जैसों की स्मृतियों का तो कोई ओर-छोर ही नहीं। कितनी जगहों पर, कितने-कितने दिन वे मेरे साथ रहे हैं। रात-दिन का साथ रहा है। उनकी हँसी, उनकी मुस्कान, उनका गांभीर्य और उनके खुले व्यवहार की अनंत छवियों को समेटा नहीं जा सकता। इनमें से कोई कभी तो कोई कभी यहाँ-वहाँ सूर्य की किरणों की भाँति छिटकी फिरती हैं। स्थूलकाय और हमेशा सुरुचिपूर्ण वस्त्रों में सज्जित वेंकटेश जी आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। उनकी शारीरिक और मानसिक उपस्थिति हमें आश्वस्त करती थी। उनकी मुलायमियत भी मुझे प्रिय थी और उनकी कठोरता भी। ज्ञान के क्षेत्र में अडिग और कठोर हुए बिना काम चलता भी नहीं। हमारी वैचारिक सघनता कुछ भी स्वीकार कर लेने से हमें बार-बार बरजती है। व्यापक अनुभव और विस्तृत अध्ययन ने उन्हें वैसा बनाया था, जैसे वे थे। मेरे लिए वे कर्मठ सहयोगी, बहसों के साझीदार, सहृदय मित्र और संयत अध्येता थे। अपने इन्हीं रूपों की विविध आकृतियों में वे मेरी यादों में बसे हैं और बसे रहेंगे। सेमिनारों और कार्यशालाओं में बिना मुझे बताए तो वे कभी अपने कमरे में भी नहीं गए। फिर इतनी दूर मुझसे पूछे बगैर कैसे चले गए। क्यों चले गए। यह आपने अच्छा नहीं किया वेंकटेश जी।

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