प्रो. दिलीप सिंह ने एक समाजभाषावैज्ञानिक और शैलीवैज्ञानिक होने के नाते समकालीन हिंदी समीक्षा को विभिन्न प्रकार के साहित्यिक पाठों के विश्लेषण द्वारा सुनिश्चित रूप से समृद्ध किया है। इस विश्लेषण में वे सिद्धांत और व्यवहार का सुंदर सामंजस्य साधने में सिद्धहस्त हैं। कविता हो या गद्य की कोई भी विधा, उसके पाठ में व्याकरण, अर्थ, शैली, सामाजिक संदर्भ और प्रोक्ति जैसे विविध स्तरों पर जहाँ कहीं भी सौंदर्य निहित है, वे निष्ठापूर्वक उसका अनुसंधान और उद्घाटन करते हैं और कई बार तो पाठक को इन उपलब्धियों के द्वारा चमत्कृत कर देते हैं। उनकी ये विश्लेषणात्मक समीक्षाएँ पाठ के अध्ययन को कलावाद माननेवालों को भी पुनर्विचार के लिए प्रेरित करने में समर्थ हैं।
‘पाठ विश्लेषण’ (2007) प्रो. दिलीप सिंह की ऐसी ही साहित्य समीक्षाओं का गुलदस्ता है। बेहिचक इसे हिंदी में पाठ विश्लेषण का व्यावहारिक प्रारूप कहा जा सकता है। इस विश्लेषण का आधार यह मान्यता है कि वैज्ञानिक और तटस्थ आलोचना के लिए साहित्य को साहित्य के रूप में ग्रहण किया जाना वांछित है जिसका केंद्रक 'पाठ' है और पाठ के भीतर पैठकर ही किसी साहित्यिक कृति में निहित प्रसंग, संदर्भ और साभिप्रायता के संयोजन को आत्मसात किया जा सकता है।
पाठ विश्लेषण की विविध प्रणालियाँ मूलतः कृति केंद्रित आलोचना की प्रणालियाँ है जिनमें यह माना जाता है कि रचना भाषा के ‘द्वारा’ तो जन्म लेती ही है परंतु अधिक महत्वपूर्ण यह है कि वह भाषा के ‘भीतर’ जन्म लेती है इसलिए उनमें पाठ की अद्वितीयता और उसकी अर्थ छाया के उद्घाटन पर सर्वाधिक बल दिया जाता है। प्रो. दिलीप सिंह के लिए पाठ विश्लेषण का लक्ष्य है - पाठ को निकट से पढ़कर शिल्प और भाषाकौशलों के विश्लेषण के माध्यम से कृति को आलोकित करना। वे यह मानकर चलते हैं कि हर रचना अपने अस्तित्व में एक विशिष्ट भाषिक संरचना होती है अतः उसकी रचनात्मक अथवा कलात्मक विशिष्टता को भाषिक उपलक्षणों के माध्यम से ही जाना-पहचाना जा सकता है। इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि पाठ विश्लेषण में कृति के संवेदना पक्ष की उपेक्षा की जा सकती है, बल्कि सच यह है कि इस पद्धति द्वारा भाषा विश्लेषण के माध्यम से रचना में आबद्ध मानवीय संवेदना और कलात्मक संवेग की पड़ताल अधिक प्रामाणिकता के साथ की जा सकती है जैसा कि इस कृति में किया गया है। प्रो. दिलीप सिंह ने बखूबी चयनित पाठों के माध्यम से साहित्य भाषा की सामाजिकी तथा उसकी सांस्कृतिकता की परख करते हुए पाठ विश्लेषण के अनेक ऐसे प्रारूप इस पुस्तक में घटित करके दिखाए हैं जो वस्तुनिष्ठ आलोचना के प्रतिमान बन सकते हैं।
‘पाठ विश्लेषण’ दो खंडों में संयोजित है। पहला खंड है ‘कविता संदर्भ’ जिसमें आठ समीक्षात्मक और शोधपरक आलेख हैं.। दूसरा खंड है ‘गद्य संदर्भ’ और इसमें सोलह आलेख सम्मिलित हैं। इन सभी आलेखों की विशेषता यह है, या इसे इस पुस्तक की विशेषता भी कहा जा सकता है कि लेखक ने पाठ विश्लेषण के सिद्धांतों को अलग से रखने के बजाय आलेखों में इस प्रकार पिरोया है कि पाठ विश्लेषण से संबंधित तमाम वैचारिकी व्यावहारिक समीक्षा के रूप में पाठ के प्रतिफलन के माध्यम से उजागर हो सकी है। इस विवेचना का प्रमुख उद्देश्य यह रहा है कि रूप को वस्तु की आभ्यंतर संरचना के पर्याय के रूप में प्रतिपादित किया जा सके। लेखक की समीक्षा प्रणाली में सिद्धांत और व्यवहार के परस्पर गुँथे होने के कारण यह सहज ही संभव भी हो सका है।
भक्तिकाल से लेकर आज तक के हिंदी साहित्य ने साहित्य भाषा के जो अनेक प्रारूप विकसित किए हैं, इस पुस्तक में उनके वैविध्य के दर्शन किए जा सकते हैं। सूर के काव्य की भाषा का विश्लेषण करके लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि भक्ति काव्य में और विशेष रूप से कृष्ण काव्य में मनुष्य और समाज की केंद्रीयता ने भाषा को ऐसी समाज सापेक्षता प्रदान की कि इस युग के कवि भाषा को पंडित वर्ग के एकाधिकार से निकालकर जनभाषा की सहायता से संपूर्ण देश में, जन-जन में प्रसारित करने का साहस कर सके।
साहित्य जगत में घटित होने वाले परिवर्तनों की व्याख्या करते हुए डॉ. दिलीप सिंह की यह निष्पत्ति ध्यान देने योग्य है कि कविता को बदलना भी, कविता को सुंदर बनाने का ही दूसरा नाम है और इसे एक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में ही लिया जाना चाहिए। इसी आधार पर वे यह कहते हैं कि छायावाद को उसके शिल्प के माध्यम से ही आलोचना की घिसीपिटी धारणाओं से मुक्त कराया जा सकता है क्योंकि छायावादी काव्य भाषाप्रयोग का एक अद्भुत समूह है। इसी क्रम में वे पंत की कविताओं में भाव और भाषा का सामंजस्य दिखाते हैं तथा निराला की भाषिक अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता, सजहता, शब्द चयन, द्वंद्व या तनाव और अभिव्यंजना के वैशिष्ट्य के आधार पर परखते हैं । उन्होंने अज्ञेय से लेकर केदारनाथ सिंह तक के उद्धरणों के विश्लेषण द्वारा यह प्रतिपादित किया है कि आज के कविता विमर्श में भाषा, शिल्प, अभिव्यंजना, तद्भवता, भाषा के लौकिकीकरण और मँजाव पर विशेष बल दिया जा रहा है। ‘सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ भाषा’ में लेखक की यह स्थापना ध्यान खींचती है कि आसान भाषा से तात्पर्य भदेस होना नहीं है बल्कि आम भाषा का परिष्कार भी आज की कविता का अहम काव्य - लक्ष्य है। उल्लेखनीय है कि विगत पच्चीस वर्षों की हिंदी कविता के पाठ विश्लेषण द्वारा प्रो. सिंह ने इसकी निम्नलिखित दस विषेषताएँ गिनवाई हैं जो इस पूरे कविता परिदृश्य को समझने में सहायक हो सकती हैं -
1. फ्री वर्स में तुक-लय पर ध्यान
2. भाषा संरचना में कसाव
3. कविता के रूढ़ शब्द तिरोहित हुए हैं
4. कविता कहन में ज्यादा स्पष्ट और सरल हुई है
5. भाषा के पेंच खम, आलंकारिता कम हुई है
6. कवि नैरेटर बना है
7. आंचलिक भाषा का प्रयोग सजग हुआ है
8. नास्टेल्जिया अर्थात् व्यतीत को अभिव्यंजित करने वाली भाषा के कई शेड बने हैं
9. संवेदना को धार देने वाले विषय अपनी भाषिक संपदा के साथ व्यक्त हो रहे हैं, जैसे चिड़िया, पेड़, नदी, बच्चा, लड़की, माँ-पिता, घर, गाँव आदि-आदि और ...
10. सभ्यता समीक्षा पर खास जोर है। यहाँ परिष्कृत भाषा सर्वाधिक प्रयुक्त है।
धूमिल की लंबी कविता ‘पटकथा’ का विश्लेषण काव्य भाषा के इस अध्ययन को नया आयाम देता है। इस रचना के रूप विधान में लेखक ने यथार्थ और गति के मेल को महत्वपूर्ण माना है। वे बताते हैं कि यह एक मनोवैज्ञानिक नियम है कि गति हमेशा यथार्थ को स्थापित करती है - खींचना, धकेलना, फेंकना, लोकना, पटकना, चाँपना, बुहारना, झाड़ना जैसी अनगिन क्रियाएँ गति का ही प्रक्षेपण हैं। उन्होंने ‘पटकथा’ को
किसी फिल्म की पटकथा के रूप में भी विश्लेषित किया है और ऐसी अभिव्यक्तियों की क्रमबद्ध शृंखलाएँ खोजकर प्रस्तुत की हैं जिनके माध्यम से (1) हिंदुस्तान का सत्यबोध, (2) नेतृत्व के काइयाँपन और जनता की मूढ़ता का परिणाम तथा (3) व्यवस्था की अमानवीय तस्वीर का बोध उभरकर सामने आता है। वे ‘पटकथा’ को कहानी, नाटक और काव्य की परस्पर टकराहट का परिणाम मानते हैं।
‘गद्य संदर्भ’ हिंदी कहानी की भाषा से आरंभ होता है और ‘वरुण के बेटे’, ‘तमस’, ‘अप्सरा’, ‘कुल्लीभाट’, ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘अनामदास का पोथा’, ‘वयं रक्षामः’, ‘रोज़’, ‘प्रायश्चित्त’, ‘गोदान’, ‘बंदे वाणी विनायक’, ‘अशोक के फूल’, ‘कुटज’, हिंदी के संस्मरण साहित्य, महादेवी के रेखाचित्र, शुक्ल जी की आलोचना और गणेशशंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता जैसे वैविध्यपूर्व पाठों के विश्लेषण द्वारा आधुनिक गद्य साहित्य की समीक्षा के नए मानदंड स्थापित करता है। इन आलेखों को देखकर विस्मय होता है कि पाठ विश्लेषण के इतने अधिक आयाम और इतने भिन्न-भिन्न प्रारूप हो सकते हैं - जिसमें जिसकी रुचि हो और जो समीक्ष्य पाठ पर लागू हो सके उसे चुना जा सकता है!
साहित्यिक पाठों का यह गहन विश्लेषण हिंदी भाषा के संबंध में यह प्रमाणित करता है कि ‘वह साहित्यिक-सांस्कृतिक चेतना की संवाहिका है, सामाजिक व्यवहार की स्तरीकृत भाषा है, सामाजिक नियंत्रण का सशक्त माध्यम है, सामाजिक दायित्वों के निर्वाह का कारगर औजार है तथा भारत की सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम है।’
इसमें संदेह नहीं कि ‘पाठ विश्लेषण’ के माध्यम से प्रो. दिलीप सिंह ने काव्य भाषा, कथा भाषा, आलोचना की भाषा, निबंध की भाषा, संस्मरणों की भाषा आदि की अंतरंग पड़ताल द्वारा भाषाविज्ञान और समीक्षा की सैद्धांतिकी के लगातार परिवर्तित होते संदर्भों को भली प्रकार उजागर किया है और साहित्य को भाषा पर झेले गए सौंदर्य के रूप में रेशा-रेशा विश्लेषित करने की नई-नई दिशाएं उद्घाटित की हैं।
(अंततः ‘हिंदी की कहानी’। यों तो संदर्भ आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र की भाषा दृष्टि का है, लेकिन यहाँ इसे भाषा की राजनीति के नए चिंताजनक उभार के संदर्भ में विमर्श हेतु उद्धृत करने की अनुमति चाहता हूँ -
‘‘हिंदी और भारतीय भाषाओं का विकास एक दूसरे पर आधारित है। अगर हिंदी के अस्तित्व और अस्मिता पर चोट पड़ेगी तो उसके निशान भारतीय भाषाओं पर भी दिखेंगे और भारतीय भाषाओं का यदि अहित होगा तो हिंदी भी क्षत होगी।’’)
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