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त्रिलोचन शास्त्री
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त्रिलोचन को पढ़ना आपको प्रौढ़ बनाता है। बहुत-बहुत पहले से उनकी कविताएँ
बाँध लेती थीं, जब छोड़तीं तो सब कुछ हल्का-हल्का, पूरा पूरा लगता, आज भी लगता है। उनकी कविता का स्वाद उस समय
के कवियों से अनूठा था। त्रिलोचन निराशा के नहीं, आशा के कवि बन कर हम नव युवकों को मोह लेते
थे। ऐसा वे जब मिलते, तब भी करते थे। त्रिलोचन अपनी राह चले, अपनी अदा से। अगर किसी परंपरा से वे जुड़ते
दीख भी पड़ते हैं तो एक हद तक निराला से और कुछ दूर तक नागार्जुन से। मिट्टी, सच, एका और मनुष्यता के वे हर हाल में साथ होते
हैं। तभी तो विपदाएँ उनकी आशा और उनके विश्वास के आगे पछाड़ खा-खाकर, हार जाती हैं। उनका दृढ़ कवि व्यक्तित्व हमें
अपनी ओर खींचता है, उन जैसा बनने को उकसाता है। वे कठिन कवि नहीं
हैं। लोक-समृद्ध कवि हैं। यह कह दूँ कि लोक भाषा का ऐसा समृद्ध उपयोग कहीं और न
मिलेगा। लगता है लोग शब्दों और लोक पगे मुहावरों में ही उनके सपने बसे हुए हैं।
त्रिलोचन का काई खेमा नहीं है। वे अपने में अकेले ढब के कवि हैं। साफ़, दो टूक, मन की बात कहना कोई उनसे सीखे। वे ‘अपने अंतर की अनुभूति को बिना रँगे चुने’ अपनी आत्मा की अतल गहराई में प्रवाहित भाव-जल
में सिझा कर कागज पर उतारते हैं कि उनका दर्द, उनके सपने और उनका आत्मविश्वास सब हमें
तत्क्षण् अपने-से लगने लगते हैं। त्रिलोचन का जीवन भटकावों से भरा था संघर्ष, उनके जीवन की सच्ची कहानी था। पर उनका लेखन न
तो कभी दयनीय बना और न ही आक्रोश की भट्ठी में जला-भुना। उल्टे वह सध्य और
सर्वमंगला बना, खरे सोने की तरह तप-तपकर और-और निखरता गया।
और त्रिलोचन की यह पंक्ति सच बनती चली गई कि ’लू लपटों में मिट्टी पक्की हो जाती है।’
त्रिलोचन भाषा के ऐसे सौदागर हैं जो सपने बेचता है। सपने, छोटे-छोटे; अपनाव के,निर्भयता के, गति के, साहबस के, प्रेम के। न जाने कितने सपने, किन-किन के सपने पर सच्चे और संवेदी सपने।
इसीलिए त्रिलोचन के लिए कविता विडंबनाओं का मातम करके ‘जीवन को खोना’ नहीं है - ‘कविता तो होना है’ - जीवन से, जीवन में, जीवन के लिए : मृत्यु त्रिलोचन के लिए जीने
की चुनौती है और नियति उनकी मुट्ठी में कैद है - ‘घबराना क्यों, जो होने को है/ वह होगा/धूप, ओस, वर्षा से/क्या कोई बचता है।’
त्रिलोचन जीवन के कवि हैं और जीना सिखाते भी हैं। ज़िंदगियों की उन्हें फ़िक्र
है। धरती (१९४५) से आगे तक वे जीने का ढंग बताते चले आए हैं। उनके यहाँ प्रकृति
और उसके उपकरण ज़िंदगी के उतार चढ़ाव का ही दृष्टांत बने हैं। अपनी, आपकी और हमारी मानवीय कमजोरियों को वे सदा से
जानते रहे हैं। ‘तुम्हें सौंपता हूँ’ (१९८५ : राधाकृष्ण) में १९३८ से लेकर १९४६ तक
की ग्यारह कविताएँ हैं और १९४७ से १९६२ तक की तेरह कविताएँ। ‘सबका अपना आकाश’ (१९८७ : राजकमल) में १९४८ से १९६३ तक की
कविताएँ संकलित हैं, जिनकी संख्या ५२ है। इनमें से चालीस कविताएँ
१९४८-१९५१ के बीच की हैं। ‘फूल नाम है एक’ (१९८५ : राजकमल) को ९१ कविताओं में से ६६ -
१९५४ तक हैं और १५ - १९६२ की। ‘सबका अपना आकाश’ को छोड़ कर शेष दो संग्रहों में शेष कविताएँ
७० और ८० के दशक की हैं।३ कहना यह है कि परतंत्र भारत के अमानवीय माहौल में
त्रिलोचन ने मानवता, मनुष्यता और एकता की भावना को स्वर दिया।
आजाद भारत के शुरुआती दस सालों में उनकी कविताएँ भारत की नई तस्वीर के प्रति
आशान्वित हैं तो उसके बाद की (१९६७ तक की) देश में पनप रही विडंबनाओं पर नज़र रखे
हुए हैं। इसके बाद त्रिलोचन आत्मलोचन की ओर मुड़ते हैं, गाँव-नगर के बदलावों को लखते हैं और जीवन की
आपाधापी में भूले मनुष्य की पड़ताल करते हैं। वे डगमगाते कहीं नहीं, कभी नहीं। डटने की उनकी मुद्रा रह-रह कर उनकी
काव्य-यात्रा में कौंध-कौंध जाती है। बाद की कविताओं में त्रिलोचन की भाषा
प्रयोगशील बनी है। उनकी भाषा का नयापन शुरू से ही उठान पर रहा है पर बाद में उस
भाषा में निराला जैसी संरचनात्मक तोड़ फोड़ और नागार्जुन जैसी लोक संबद्धता के
साथ कहन और संवाद की ही नहीं पत्र की शैली का भी कविता अच्छा खासा स्पेस बनाने
लगता है। वे प्रारंभ से ही चीज़ों को आत्मीय बना कर देखने वाले कवि रहे हैं,उनका ‘देखना’ नये कोण से देखना है जिसमें भाषा का वे अपनी
तरह से इस्तेमाल करते हैं। काव्य भाषा (कविता की परंपरागत भाषा) और बोलचाल की
भाषा दोनों पर उनका अद्भुत अधिकार है। इन्हें फेंटना भी वे जानते हैं और अलग
अलग कर गाँठना भी। कवि की मुखरता का त्रिलोचन अकेले उदाहरण हैं। वे खूब बोलते
हैं। पर सधे हुए स्वर में। उन्हें अपनी भाषा और अपने भावों पर पूरा भरोसा है। वे
मौन नहीं जानते और इसीलिए कविता में खुद डूबे रहने की मौनी कवियों की आदत उन्हें
नहीं रुचती। वे बात करना चाहते हैं, सब से। अपने मन की कहना चाहते हैं - ‘कवि हो तो अपने ही भीतर रहो न डूबे/डूब गए जो, सबसे वे, सब उनसे ऊबे।’ यह त्रिलोचन का वह काव्य सत्य है जो उन्हें
अनोखा कवि बनाता है - त्रिलोचन का कवि बहिर्मुखी है - वह आस-पास की सब चीज़ों, सब लोगों को बाहर से ही नहीं भीतर तक देखता
है। इस देखने में भाषा उनका साथ देती है। त्रिलोचन के सारे कविगुण (प्रेम, आस्था, विश्वास, दृढ़ता, संघर्षशीलता,जिजीविषा आदि) भाषा पर उनके अपरिमित अधिकार से जगर मगर करते हैं ; पढ़ें तो गहरे उतर जाते हैं - ‘चलना ही था मुझे - सडक, पगडंडी, दर्रे/कौन खोजता; पाँव उठाया और चल दिया/खाना मिला न मिला, बड़ी या छोटी हर्रे/नहीं गाँठ बाँधी, श्रम पर अधिक बल दिया।’
त्रिलोचन की कविता अपने पाठक से आम संवाद है, नज़दीकी बातचीत। इस बातचीत में इसीलिए वे अपने
लोगों का ‘तू’ या ‘तुम’ से संबोधित करते हैं ; ‘आप’ से कभी नहीं। सीधे संवाद का यह पाठ कई तरह के
जीवन सत्यों को भिन्न-भिन्न कलेवर में प्रकट करता है। एक कलेवर इसमें ‘गान’ का है। त्रिलोचन ने गीत, ग़ज़ल और सॉनेट तीनों लिखे। मुक्त छंद की
कविता तो लिखी ही। वे गीत की ताकत पहचानते हैं। गीत ही उनके यहाँ स्वर, लय, गान का पर्याय हैं और एकता के कारक भी - ‘अपने अपने कंठ किलाओ, गाओ, गाओ, गाओ।’ जीवन संगीत की एक तान स्वर साधना मनुष्य को
यह सीख भी देती है कि ‘उन्हें भेंट जो आगे आए।’ जो आगे बढ कर अपनत्व चाहे उसे गले लगाना, तभी संभव है भेद-भाव का मिटना और ऐसे समाज की
रचना जहाँ ‘अपनाव ही बने गई अवस्था।’ त्रिलोचन ‘मिलकर गाने’ को जीवन और समाज से अटूट जुड़ने का एक जरिया
मानते हैं। इस समूह गान में कहीं कहीं उनका लोक बिद्ध मन भी बिंबित है - ‘आज सुनाना/फिर मिलकर गाना है/शैली बिरहे वाली।’ ‘बिरहा’ भोजपुरी क्षेत्र की एक विरहाकुल शैली है जिसे
सुर, उठा उठा कर कई लोग गाते हैं - तब दुःख मानो
बँट जाता है और दर्द छँट जाता है। सब अपने हो जाते हैं; अपनों से भी अपने/कवि की प्रकार भी है कि ‘मेरे अपने, अपनों से भी अपने/खुले कंठ से गा तो/नए गीत
जीवन के।’ खुले कंठ, यानी अपनी अंतरंग की भीतरी पर्त से - जिसमें
न कोई दुःख हो, न बनावट और न ही अनमान मन/सब कुछ बस उन्मुक्त
हो, इससे कम कुछ भी नहीं/तभी तो ये जीवन गीत
बनेंगे, वह भी नये, नवेले,ताज़ा, टटके। इस जीवन गीत का न अंत है न इति। यह कभी
रुकता भी नहीं। साँस की तरह धड़कता रहता है - अनवरत/मरण आए, बिछोड़ा आए जीवन गीत चुकता नहीं, रुकता नहीं - ‘जो छूटे हैं/उनके लिए नहीं रुक जाता है,/गाता है/गति के गान।’ हंस के हवाले से प्रस्फुटित यह पंक्ति सुख
में दुख में चलते जाने, आगे बढ़ने और जीवन की गति को न रुकने देने का
प्रेरक संदेश है। गति ही जीवन है - यह परम सत्य यहाँ उजागर है। सब चलें, सब बढ़ें, ‘सब अपनी अपनी लय पाएँ’। एक दूसरे के साथ स्तर साधें। ‘कभी तुम्हारा स्वर दुहराएँ’ हम और कभी तुम हमारा। स्वर दुहराओ, कुछ इस तरह कि ‘एक लहर में लहराएँ फिर/कंठ कंठ के गान।’ तभी यह असंभव भी संभव हो पाता है कि ‘गीत कहीं कोई गाता है/गूँज किसी उर में उठती है।’ प्रेम,लगाव और एकता प्रेम की भावना के नतीजे को त्रिलोचन इन शब्दों में दिखाते हैं
- ‘गा कर अपने गान स्वरों से आसमान को/मुखर करेंगे और प्यार सबको परसेगा।’ प्रेम की आवाज़ को दिग दिगंत तक मुखरित करने
का ऐसा संकल्प विभोर करने वाला है, वही ले सकता है यह संकल्प जो औरों के साथ हो; दिन रात, अहर्निश, पल पल ‘मेरा दिन भी औरों के ही साथ कहीं है।’ एक आदमी की तरह साथ रहने और आदमी की तरह
पहचाने जाने की बड़ी छोटी सी अभिलाषा एवज में चाहता है कवि कि - ‘आदमी हम ऐसे हों/कि जिनके बीच रहते हैं/वे भी हमें आदमी कहें/और यों ही सदा
जानते रहें।’ आज के अलगाव, बिलगाव और विखंडन के उत्तर आधुनिक समय में
त्रिलोचन के इस भाव की फिर फिर पड़ताल और फैलाव ज़रूरी है।
त्रिलोचन जीवन की उत्कृष्टता के हामी कवि होने के साथ ही जीना सिखाने वाले
एक बिरले कवि हैं। उनकी कविताएँ इस मामले में मात्र इशारा नहीं करतीं, सीधी और साफ़ भाषा में जीने के गुर समझती हैं। ‘भर दे दुनियाँ को खिलखिल से’ कहने वाले त्रिलोचन अपने आत्मीयों (समस्त मानव
समुदाय उनके लिए आत्मीय है) को दुनिया जहान को खुशी देने का पाठ पढ़ाते हैं।
सिर्फ ‘देने’ का नहीं ‘खुशी’ से भर देने का, जिसके लिए उनका शब्द ‘खिलखिल’ - अपार और निश्च्छल प्रसन्नता ही खिलखिलाती है।
भय, मृत्यु, आलस्य का त्रिलोचन से बड़ा कोई दुश्मन नहीं -
साहस, अमरता, गति के वे पक्षधर हैं - ‘बाधाओं की भीड़ देख कर/आधे पथ से फिरना कैसा?/जाने दो जब मरण सदम है,/कायर का-सा मरना कैसा?/दिन न एक रस सदा मिलेंगे/संशय मन में भरना कैसा?’ इन पंक्तियों का एक एक शब्द कितना कुछ सिखा
जाता है - ‘कैसा’के प्रयोग से यह सीख निर्भय जीवन का हमारे
लिए पथ प्रशस्त कर देती है। और ये पंक्तियाँ हमें साहस, तेज और ओज के अगले पड़ाव पर ला खड़ा करती हैं
कि - ‘बाधाओं की ओर न आँख उठाओ/अत्याचारी को निस्तेज बनाओ/ पराजयों में गान विजय
के गाओ।’ त्रिलोचन जानते हैं कि तन-मन का आलस्य मनुष्य
को जल्दी घेर लेता है। आलस्य से शिथिल लोगों की जागृति ही उसे कर्मठता की ओर, संकल्पों ी ओर, विवेक की ओर मोड़ सकती है, सो, कवि ने पुकार लगाई है - ‘मत अलसाओ/मत चुप बैठो/तुम्हें पुकार रहा है कोई।’ और फिर ‘क्या’ संरचना में लिपटी ये पंक्तियाँ भी - ‘पछताना क्या, थक जाना क्या,/बलसाना क्या, भय खाना क्या,/जब तक साँसा तब तक आसा/यह मंत्र सुनाती हूँ।’ ‘संधा तारा’ के माध्यम से दिया गया यह जीवन मंत्र गाँठ
में बाँध लेने योग्य है। और इसी के साथ हताशा और दुःख की जगह जीवन में विश्वास, संकल्प और सुधि (विवेक) को अपनाने का आग्रह
करने वाले ये प्रेरक और उद्बोधक वाक्य - ‘कब कटी है आँसुओं से राह जीवन की/दीप सा
विश्वास ही है चाह जीवन की/साँस है संकल्प, सुधि है थाह जीवन की।’ इसलिए पग पग पर ‘जोत नई उकसाओ/पैर बढ़ाओं।’ इस तरह मानव जीवन को बिखरने न दे पाने की शपथ
ले कर चलने वाले कवि हैं - त्रिलोचन। मनुष्य को इतनी चिंता मेरे जाने और किसी
कवि ने नहीं की है - ‘सो गया था दीप/मैंने फिर जगाया है’ - जब लिखते हैं त्रिलोचन तो एक पल भी अविश्वास
नहीं होता। एक कविता को लगभग पूरा पढ़ा जाय, कवि की जीना सिखाने के सात्विक हठ को तफसील
से समझने और जीवन में धारने के लिए - ‘बढ़ो मृत्यु की ओर नज़र से नज़र मिलाओ/डर क्या
है, जीवन में जो कुछ कल होना है/आज अभी हो
जाय/तुम्हें यदि कुछ खोना है/तो अपने मन का भय/जड़ मूल से हिलाओ/इस दुर्बल तरु
को,धक्के अनवरत खिलाओ/इस उस क्षण में उखड़ जाएगा, जो कोना है/इसका अपना, वहाँ साहस बीना है,/फिर इस बिरवे को विवेक-जल सदा पिलाओ.../कितनी सार सँभाल रखो पर जीवन की
लौ/बुझती ही है ..... आगे फटती है पो,/कौन कहेगा तुमने सागर व्यर्थ थहाए।’ कोई संशय अब नहीं कि त्रिलोचन कबीर की काशी
में जितना रहे, रम कर हरे। प्रेम के बिना आदमी से कुछ न
बनेगा। प्रेम कबीर का भी बिंदु है मानवता का और त्रिलोचन का भी - ‘प्यार बीज है, मन बोता है/चीन्ह चीन्ह कर क्षेत्र; कहाँ से वह पाता था/ऐसे ऐसे बीज/बीज कोई खोता
है?’ प्रेम ही जीवन है। कवि त्रिलोचन से और इस
बहाने सभी कवियों से कहा प्रेम ने ‘कवि मुझको भूले न भूलना/जीवन को सर्वदा रूप
मैं देता आया।’
त्रिलोचन की कई कविताओं से उनका जीवन झाँकता है और उनकी सोच भी। आलोचकों ने
कहा है कि यह उनकी ‘आत्मपरकता’ है, ‘आत्मग्रस्तता’ नहीं। ‘निराला’ की तरह त्रिलोचन अपनी जंदगी के कड़वे मीठे अनुभवों
को ही नहीं प्रकटते; एक मोड़ पर खड़े होकर आत्मालोचन भी करते हैं।
इसके अलावा भी सर्जना के पड़ावों पर उन्हें बरग लाने वालों पर व्यंग्य रसे सराबोर
टिप्पणियाँ भी करते हैं। त्रिलोचन के इस जीवन सत्य में एक स्तर वह साहस, जुझारूपन और दृढ़ता वाला है जिन्हें साथ ले
कर चलने का आग्रह वे अपने प्रियजनों से भी करते रहे हैं - वही भाव ‘मैं’ के साथ इस तरह अभिव्यक्त हुआ है - ‘दूज का है चाँद, तम मेरा करेगा क्या/राह मैं चलता रहूँगा,/ठोकरें सहता रहूँगा,/गिर पडूँगा, फिर उठूँगा,/और फिर चलता रहूँगा;/ठोकरों से, हार से/कोई डरेगा क्या/साथ चाँदी है, न सोना,/कर्म के ही बीज बोना,/खेत काया है, बना है,/और यह अवसर न खोना;/हाथ बाँधे यह लहर कोई तरेगा क्या।’ आत्मालोचन के स्तर पर त्रिलोचन अपने जीवन का
लेखा जोखा करने हुए खोने के सत्य से घबराते या हताश नहीं होते, अपनी कमियों कमज़ोरियों से सबक लेकर, कलुष को धो पोंछकर आगे बढते रहने की ठान चलते
हैं - ‘जब अपना लेखा जोखा/किया, बात उतराई, खुल कर आगे आई,/इधर उधर में रहा,गाँठ का भी सब खोया।/दिन रहते मैंने सुधि पाई,/और नहीं, अब और नहीं, ढोया तो ढोया। दिन रहते सुधि पाने वाले कवि
हैं त्रिलोचन। सुबह के भूले की तरह शाम को लौट पड़ने का विश्वास लिए हुए। आदमी
दोषों का पुतला है, पर दोषों को न वह खुद देखना चाहता है; न उसे यह बर्दाश्त होता है कि कोई दूसरा उसके
दोषों पर उँगली दसे। त्रिलोचन ऐसे आदमी नहीं हैं - वे खुलकर कहते हैं कि ‘कड़वी से कड़वी भाषा में दोष बताओ/मुझको मेरे; सदा रहूँगा मैं आभारी।’ और अपनी गलतियों का उन्हें भान भी है, और इसका भी कि वे क्यों हुईं - ‘जहाँ जहाँ मैं चूका, थी मेरी लाचारी।’ लाचारी इसलिए कि ‘मेरे मन में एक और मन है जो सारी/बातें उल्ट दिया करता है, सब तैयारी/रह जाती है।’ मन की दुर्बलता किसमें नहीं होती? उसे तो जीतना ही होता है। कहा भी गया है - मन
के जीते जीत है मन के हारे हार। त्रिलोचन अपने दुचित्ते मन को जीत कर उलट गई
बातों को सीधी कर लेने को दृढ़ संकल्प हैं - ‘मैं फिर अपने को देखूँगा, फिर जो उतरन,/इधर उधर की, इनकी उनकी संचित की है/फेंक फाँक दूँगा।’ त्रिलोचन यह भी कहना चाहते हैं कि मानव मन
प्रकृतिकः मैला नहीं होता, वह कलुष बनता है बाहरी तत्वों और प्रभाव से।
दिन रहते त्रिलोचन इन उतरनों को चीन्ह तो पाए ही हैं, इन्हें फेंक फाँक देने को उद्यत भी हैं। यह
बाहर की मैल कवि त्रिलोचन को सर्जना का अलग बाना धारने को भी ललचाती रही है। वे
सामान्य आदमी थे, पर ऊँचे कवि। प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, साम्यवाद के पैरोकार उन्हें अपनी-अपनी ओर
खींचने का बहुविध यत्न करते हैं - ‘प्रतिभा नहीं चाहिए, मेरे गट में आओ, इधर उधर मत भटको।’ पर त्रिलोचन का उन्हें कहना है कि ‘आओ, इस प्रगतिवाद को छोड़ें/कविता की बात करें।’त्रिलोचन ने ‘कविता’ के सिलसिले में कभी समझौता नहीं किया और अपने
बहलाने फुसलाने वालों पर करारा व्यंग्य भी किया - ‘हो तुम भी घोचूँ ही/भाषा, छंद, भाव के/पीछे जान खपाते हो/पद गया
जमाना/इनका/छोड़ो भी/आओ, अब से मन माना/लिखा करो/गद्य ही ठीक है/अब
कटाव के/ढब बदले हैं/बोल चढ़े हैं भाव ताव को/ .....विषय नहीं सूझता?/अजी तुम लिख दो‘ढेला’/इसके बाद लिखो ‘हँसता था’/इसके आगे?/बहुत खूब, आ हा, ‘भीनी सुगंध उड़ती थी/फिर नभ में उमड़ा घुमड़ा मेघों का मेला,/सन्नाटा छा गया, धरा पर अंकुर जागे’/यह प्रयोग है, कलम जिधर चाहा मुड़ती थी।’ त्रिलोचन ‘वादों’ की सच्चाई से खूब वाकिफ़ हैं कि वे सब ‘पर्त बनाए/शब्द रचा करते हैं, - वही अर्थ उतराए/जिसकी आकांक्षा हो,/चाल दिखा जाते हैं।’ कविता त्रिलोचन के लिए समाजी यथार्थ को सही बदलाव
की ओर मोड़ने और लोगों के दुख-दर्द को पी पी कर जीने का उपक्रम है। वे आशा, विश्वास और साहस के कवि हैं। वे जीवन की
नश्वरत को बूझते हैं अतः निर्भय हैं। वे पंत की तरह दूसरे जीर्ण पत्रों के द्रुत
गति से झर जाने की अभिलाषा नहीं रखते और न ही निराला की तरह जीवन की सांध्य बेला
का मातम करते हैं। वे अंत को सहज देखते हैं और पौढ़े जीवन के दर्प के साथ कह पाते
हैं कि ‘बिछे बाग में थे पतझर के टूटे पत्ते,/ऊपर किसलय नई शान से लहराते े/वायु तरंगों में, रह रह कर दिखलाते थे। नई नई थिरकन।/.... हवा
बही, सूखे पत्ते बोले, चल, चल, चल/हम सब देख चुके हैं जो तू देख रहा है,/भोग चुके हैं, जिन भोगों की साध जगाए/तू जीवन से लगा हुआ है;/हमें खाद बनना है, विधि का लेख रहा है/इसी अर्थ का, ऊँचे थे हम नीचे आए।’ त्रिलोचन एक अलग किस्म के कवि लगते हैं तो
इसीलिए कि वे सच बोलते हैं, पूरे साहस के साथ। उनका कवि सर्वजन के साथ
फिरता है। उन्हें सच्चे सपने बेचता है। त्रिलोचन के ये सपने ही उन्हें धरती के
जनपद के कवि के रूप में मान प्रतिष्ठा दिलवाते हैं : सपने लो सपने लो/मन चीते
सपने लो/जिसका विश्वास टूट गया हो/साथ और कोई न हो/वह मेरे सपने ले/जिसका बल, अवसर पर, धोखा दे जाता हो/वह मेरे सपने ले/जिसको कुछ
करने की, भलीभाँति जीने की, इच्छा हो/वह मेरे सपने ले/गाँव-गाँव नगर-नगर
गली-गली डगर/मैं पुकार रहा हूँ/सपने लो सपने लो।’ सच, त्रिलोचन की कविताएँ यह सब करती हैं, ढाँढस बँधाती हैं, साथी बनकर दूर तक साथ चलती हैं, बल देती हैं, आत्मविश्वास बढ़ाती हैं, कुछ करते रहने को उकसाती हैं, खालिस जीवन जीने के गुर बतलाती हैं, स्वावलंबन बन कर सीना ताने जीने का साहस देती
हैं - ‘नहीं चाहिए, नहीं चाहिए मुझे सहारा,/मेरे हाथों में पैरों में इतना बल हैं,/स्वयं खोज लूँगा किस किस डाली में फल है।’ त्रिलोचन की कविताएँ थके हारों को भी मंजल तक
पहुँचने की शाम्र देती हैं - ‘दुनिया का रास्ता अपने पैरों चल लेंगे/मंज़िल तक पहुँचेगे तब जा कर कल लेंगे।’ त्रिलोचन का जीवट उनकी ज़िंदगी और उनकी कविता
में भी कूट कूट कर भरा हुआ दिपता रहा है। कविता और जीवन का फर्क चाहे कहीं और
मिली, त्रिलोचन की सर्जना में दोनों चंदन पानी की
तरह घुलमिल गए हैं।
त्रिलोचन की चार कविताएँ ‘फूल नाम है एक’ में नागार्जुन पर हैं। दोनों एक ही लगते हैं, कई स्थलों पर; कविता में भी, ज़िंदगी में भी। दोनों कभी डरे नहीं किसी से, जूझे और लड़े दोनों। फकीरी दोनों ने स्वेच्छा से वरण की, फिर भी तने रहे जीवन भर। दिखावे, दंभ, तामझाम को अपने पास भी फटकने नहीं दिया दोनों
ने। दलित, वंचित दोनों को जानते थे,अपना अपना मानते
थे। साफ़गो दोनों थे, जीवन के लिए मरते थे। अपनी अस्मिता का मान करते
थे। टूट जाँय, पर झुके दोनों नहीं कभी कहीं, जीवन भर। नागार्जुन के लिए जो भी लिखा त्रिलोचन ने वह सब का सब, जस का तस उन पर भी सच्चा उतरता है
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(१) कहा एक महिला ने, नागार्जुन तो कवि से/नहीं जान पड़ते/आए तो ज्यों ही आए/त्यों ही/घुलमिल गए/ढंग
ऐसे कब पाए/थे हमने कवियों के ..../एक मजूर ने कहा,नागार्जुन ने
मेरे/बच्चे को बहलाया फिर रोटियाँ बताईं/खाईं और खिलाईं/खुशियाँ साथ मनाईं/गम आया
तो आए/टीह टाह की/घेरे/खड़े रहे असीस बन कर/हठ हरा, फेरे/फिरे नहीं, चिंताएँ मेरी गनी गनाई।
(२) नागार्जुन क्या है, अभाव है/जमकर लड़ना/विषम परिस्थितियों से उसने सीख लिया है,/लिया जगत से कुछ
तो उससे अधिक दिया है ....../विपदा ने भी इस घर को अपना माना है,/इस विपदा पर कवि
ने लहर हँसी की छापी,/आँखों की प्याली छटा स्वप्न की खापी;/अपने पथ पर चलना
ही उसका बाना है।
(३) नागार्जुन जनता का है/जनता के बन में/आमग नहीं
दिखलाई देता/यह जनधारा/लिए जा रही है उसका .... /पल दो पल को यदि हारा/लोटा पोटा
भू पर और/ग्लानि को गारा।
(४) अपने दुख को देखा सबके ऊपर छाया,/आह पी गया, हँसी व्यंग्य की ऊपर आई ../कभी व्यंग्य उपहास कभी आँखें भर आईं/अत्याचार अनप
पर नागार्जुन का कोड़ा/चूका कभी नहीं, कोड़ा है वह कविता का/कहीं किसी ने जानबूझकर अनमल ताका/अगर किसी का तो कवि ने
कब उसको छोड़ा।
त्रिलोचन की अभिव्यक्तियों का संसार भी बहुरूपी और अनोखा है। कविता का सौंदर्य
आँकना भी उन्हें आता है और खुलकर कहना भी। खुलकर कहने में त्रिलोचन मुहावरों का
खूब प्रयोग करते हैं। हिंदी के कविता इतिहास में इतने सारे मुहावरों का ऐसा सधा
प्रयोग किसी कवि में नहीं मिलता। किसी हिंदी कथाकार के पास भी शायद ही इतने
मुहावरे मिलें। काव्य सौंदर्य बड़ी सरलता से त्रिलोचन पैदा करते हैं कि पंक्तियाँ
याद रह जाती हैं :
·
शिशिर काल के
कुहरे पर जब चित्र सुनहले/रवि अपने कर से लिखता है
·
उष्ण करों से
सूर्य धरा को सहलाता है
·
खेती के ऊपर
सोने का पानी छाया
·
चाँद/ढिबरी के गाढ़े धुएँ जैसे/बादलों में
था/
प्रवाह/बादलों का आज खर था/चाँद लुका छिपी खेलता सा/लगा/
हवा/ठंडी-ठंडी देह-मन
को जुड़ाती हुई/आती/जाती
·
बादल घिर आए/ताप गया पुरवा लहराई/
दल के दल घन
ले कर आई/जगीं वनस्पतियाँ मुरझाई
/जलधर तिर आए
·
बरखा, मेघ-मृदंग थाप पर/लहरों से देती हैं जी भर/
रिमझिम रिमझिम नृत्य ताल पर/पवन
अथिर आए
·
पुर-पुर गई दरार/शुष्कता कहाँ खो गई
लोक सिद्धता इन सुंदर प्रकृति चित्रों में भी त्रिलोचन की मुखर है। ढिबरी का
गाढ़ा धुआएँ शहरी प्रतीक नहीं है, लुकाछिपी का खेल, जुड़ाना क्रिया, पुरवा का लहराना, दरार का पुरना,लोक अनुभव की जमीन से उपजी अभिव्यक्ति हैं। ऐसे
ढेरों उदाहरण त्रिलोचन की कविताओं में मिलते हैं और सिर्फ़ उन्हीं में मिलते हैं।
लोक शब्दों, लोक अनुभवों, लोक जीवन को त्रिलोचन ने भाषा में कुछ इस तरह लपेट दिया है कि काव्यार्थ में
चमक आ गई है और अभिव्यंजना टटकी हो गई है। कविता में मुहावरेदानी का ऐसा ही लोक
सम्मत जादू त्रिलोचन जगाते हैं। ऐसा करने से भाव जाग जाते हैं, अनुभूतियाँ चौकन्नी हो जाती हैं और काव्य भाषा एक तरह के अद्भुत आस्वाद से
भरीपूरी हो जाती है :
·
दुख तो तिल से ताड़ जल्द हो जाते
हैं
·
जीवन में तुमने भी कितने पापड़ बेले
·
जैसी हाट, बाट वैसी है/क्यों फिर थोड़ी सी आस बाँध ली
पल्ले
·
होड़ा होड़ी जहाँ मची है
·
जिसकी तकदीर तान कर सोई है
·
तबियत खट्टी आज अहिंसा की है
·
शांति की सट्टी मंद पड़ी
है
·
डाँटा फटकारा चिंताओं को/’अब जाओ,/जहाँ तुम्हारा
जी चाहे, हुड़दंग मचाओ,/मेरी जान छोड़ दो/आह कहाँ कल पाई/मैंने पल भर को भी
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हाट पहुँच तो गए टेंट में दाम नहीं है
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अपना गला फँसाकर मैंने भर पाया है
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चाभो माल, बनाओ उल्लू, मौज से जियो
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ठोक बजा कर देख लिया, कुछ कसर न छोड़ी/दुनिया के सिक्के को
बिल्कुल खोटा पाया
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अचरज है मुझको कि त्रिलोचन कैसे/इतना अच्छा
लिखने लगा ... /एक फिसड्डी आकर अपनी धाक जमाये/देख नहीं सकता हूँ मैं यों ही मुँह बाये?
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पर यह कथन बहुत सच्चा है,/इसका अंश न कुछ कच्चा है
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खींचानोची मची हुई है अपनी अपनी
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कौर छीनकर औरों का जो खा जाते हैं
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यहाँ माल है जिसका
चोरना/वह दूकान चला
पाता है
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कसम जवानी की यदि/मैंने
पाँव हटाए।
जो काव्य पंक्तियाँ इस आलेख में यहाँ वहाँ उद्घरित की गई हैं उनमें भी
मुहावरेदानी मिल जाएगी। उन मुहावरों को त्रिलोचन ने तरजीह दी है जो आम जन की
व्यावहारिक भाषा का अहम हिस्सा बन चुके हैं। सबसे बड़ी बात है संदर्भ में वांछित
अर्थ पैदा करने और सकुशल पाठक तक पहुँचाने के लिए ढेरों-ढेर मुहावरों का कविता की
पूरी संरचना में सटीक संयोजन। क्योंकि कविता भाषिक तत्वों के जमान से नहीं, उनके परस्पर और समजस्वीकृत संयोग से बनती है।
त्रिलोचन का भाषा संसार अत्यंत समृद्ध है। संस्कृत से लेकर बोली तक की शब्द
शक्ति की उन्हें गहरी पहचान है। वे भाषा के भीतर रहने वाले कवि हैं। एक एक शब्द की
आत्मा उनकी पहचानी हुई है। नयापन उनकी काव्य भाषा की विशेषता है। विराम चिह्नों का
प्रयोग उनकी काव्य भाषा में खूब हुआ है, पदों और वाक्यों की तोड़ कर संयोजित करने में वे इनका कुशल प्रयोग करते हैं।
शब्दों की जात को पहचान कर उन्हें अर्थगर्म बनाना सिर्फ और सिर्फ त्रिलोचन ही
जानते हैं। भाषा की जातीयता त्रिलोचन के कवि के लिए पहली और आखिरी कसौटी है। अवधी
और भोजपुरी शब्दों की ताकत वे पहचानते हैं। बोली-शब्दों के उच्चरित रूप को
उन्होंने कविता की जय बनाने के लिए बखूबी शामिल किया है। अन्य स्रोतों के शब्दों
को भी वे लोक प्रचलित ध्वनि भेद के साथ अपनी कविता में ले आने में संकोच नहीं
करते। भाषिक विधान के कारण ही उनकी कविता औरों से हट कर लगती है। भाषा के आभिजात्य
में उनका तनिक भी विश्वास नहीं है। उनकी कविता ज़मीन की भाषा को अपनाती है। जिस
भाषा में वे सोचते हैं, उसी में लिखते हैं और जिस भाषा में वे लिखते
हैं उसे (उस) जनपद के लोग बूछते समझते हैं। कुल मिलाकर कहें तो त्रिलोचन की भाषा
के अपने निजी संस्कार हैं। यह भाषा आम कंठ की वाणी है जो कवि के स्वर में फूटी है।
त्रिलोचन की काव्य भाषा गहरे विश्लेषण की माँग करती है। फिलहाल कुछ नये नये से
भाषिक संगठनों को प्रकार के रूप में देखते चलें :
प्रकार : I
१. चुप हो जा/ऐसे मैं निकालता हूँ कि/दर्द तो भाई
अलग,/
तुझे मालूम भी न होगा,/कब आई और मोचनी खींच ले गई
(मोच)
२. मन इतना टेकी/रहा कि तड़पा किया (टेक धारण करने वाला)
३. वह ऐसी डाही है (डाह करने वाली)
प्रकार : II
१. बाहर का डर भीतर के खग को न तरासे/
शांति सुमति हो, दुःख कभी मन को नगरासे ...। मन में न हरासे (त्रासे, गासे, ह्रासे)
२. कैसा युग है, कहीं अकन लो, हाय हाय है (आँक लो)
३. सुबह सुहाई देख उधर तो (सुहावनी)
४. क्या इस जन से रूछे (रूढ़े, अलग)
५. मँजर गये आम
६. पत्ते पुराने पियरा चले
७. मैंने हहास सुना आसमान का (अट्ठहास)
८. ढर्रा नोखा है (अनोखा)
प्रकार : III
१. इन दिनों क्या कुछ नए झमेले/तुमको घर रहे हैं
२. अब ढहते हैं मन के/मोहक महल
३. तुमने महिमा की सर्वत्र कनात तनाई
४. सब कुछ स्वार्थ-सूत्र में नाधा
५. हाथ मैंने उँचाए हैं
६. डर नहीं है/हँसा जाऊँगा
७. सोच लो, जो बीज बोओगे तुम्हें लुनना पड़ेगा
८. अपराए हैं तो तराए भी हैं ये/आप आ
गए हैं बराए भी हैं ये
९. मौन रह कर टोया था/टीस जहाँ उठती थी
१०. आज प उठती थी
१०. आज अँगडा रही है
प्रकार : IV
१. तुम तो जैसे थके थकाए भरपाए हो
२. यह अपना घर है जिसमें टोटा/ही टोटा है
३. घोर घाम है, हवा रुकी है। सिर पर आ कर सूर्य खड़ा है
प्रकार : V
१. अभी चला क्या, बहुत, बहुत आगे, चलना है। दुबिधा छन ही जाएगी
२. ऊना मन, चू उठी नीरवता
३. खिसक चली रात/नखत चले,/उठा अलस/नियति
हिली,/हँसी प्रात
४. रामनाथ का मकान बैठ गया है
५. फेरे करते रहे, पाँव उनके खिया गए
६. धर्मशाला की कुर्सी ऊँची है
६. कोई राग तुम कढ़ा दो/आशा म नहीं जाएगी
प्रकार : VI
युतियाँ (युक्तियाँ), नाराज़ी (नाराज़गी), अथिर (अस्थिर), प्रात (प्रातः), अपनाव (अपनत्व), मुसका कर (मुस्कुरा कर), आकास (आकाश), जोत (ज्योति), अभिलाष (अभिलाषा),बरस (वर्ष), नश्वत (नक्षत्र)
त्रिलोचन की कविताओं का बड़ा हिस्सा छायावाद की छाया में पला पुसा है अतः
छायावादी शब्द समूह को उन्होंने पर्याप्त स्थान दिया ै जैसे - बादल, घन, जलघर, बरखा, पवन,दादुर, मोर, पपीहा, समीर, इंद्रधनु, कंठ, गान, पावस, मधु, संध्या, प्रात, राका, शारदा, ज्योत्स्ना, चाँदनी,लहर, उपवन, सुषमा, शरद, पारिजात, बेला, कपोत, दीप, ज्योति, स्नेह, मंजरियाँ, नीड़, खग, भोर, सरोवर,भौंरे, क्षितिज, उषा, विहग, नीरव, छाया, तम, व्योम, ओस, गुंजन, पुष्प, मझर, सरिता, सुमन दल, नव,प्राण, प्रभा, ज्योति पथ, धारा तिमिर, उमा, विजन, हास, बीन, लय, झंकार, तरंग, तारक, स्निग्ध, श्याम धन, उत्ताप, काकली, मौन, दृग, मलिन, दूब, किरण, पथिक, उद्भ्रांत, एकाकी, पंक, आनंद, रस, शतदल,सम्मोहन, निर्जन, वाणी, मधुगीत, पीडा, अश्रु, हास, पथ, निशा, उषा, अरुण, प्रभा, मेह, पिक पंकज, राव,गंध, तान, आभा, झंकार, आँसू, अमृत।
एक तो यह कि कवि को अपनी काव्य परंपरा के भाषिक उपादानों का भान होना चाहिए और
वह त्रिलोचन में अकूत है। दूसरे यह कि इस शब्द समूह को उन्होंने नये भावों की
उद्भावना के लिए नये अर्थ संधान के साथ अपनी काव्य भाषा में बुना है। अधिकांश कवि
नव्यता को परंपरा से कटाव और आधुनिकता को जातीयता से अलगाव के रूप में लेते हैं और
चुकते हैं। त्रिलोचन ने आधुनिक यथार्थ बोध को प्रकटाने के लिए परंपरा से पराप्त
शब्द भंडार को पड़ताल ी, और जाँच परख कर नये संदर्भ और नया काव्योन्मेष
पैदा किया। कुछ उदाहरण देखें -
·
पथ पर चल कर जो बैठ गए/वे क्या देखेंगे प्रात नए
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ये अनंत के लघु लघु तारे/दुर्बल अपनी ज्योति पसारे/अंधकार से कभी न हारे
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आओ,/अच्छे उमगे समीर,/जरा ठहरो/फूल जो पसंद हो उतार लो/शाखाएँ,टहनियाँ,/हिलाओ, झकझोरो,/जिन्हें गिरना हो गिर जाँय/जाँय जाँय
·
कहीं एक भी दुःख न रहने पाए/नई उषा आई है आज जगाने
·
गान बन कर प्राण ये कवि के
तुम्हारे पास आए
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अमृत प्राण का अति दुर्लभ
है देखो कहीं न चुकने पाए
·
मेघ ने सित छत्र
ताना/वायु ने चामर हिलाए/इंद्रधनु नत सूर्म ने दी/चंद्र ने दीपावली की/तुम न हारे देख तुमको दूसरे जन
भी न हारे
·
झूम रहे हैं धान हरे हैं, झरती हैं झीनी मंजरियाँ/खेल रही हैं खेल लहरियाँ/जीवन का विस्तार है आँखों के आगे
·
गया स्नेह भी और रह गए आप निखट्टू
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लतिका द्रुम में नूतन फूल
लगाओ
·
रस भरने को रस जीवन
का सुखा दिया है
त्रिलोचन के कथ्य और भाषा में जो लोच और लय है वह आम आदमी से उनकी रूहानी
प्रतिबद्धता का ही नतीजा हैं। वे किसानों और दलितों को अपना बना कर रचने वाले
हिंदी के कुछ गिने चुने कवियों में से एक थे। वास्तव में त्रिलोचन गँवई थे और वैसी
ही धजा में जिये भी। उनकी कविता भी गाँव के ठेठ देहाती की नज़र से देश, दुनिया और प्रकृति को देखते हुए बनी है। हिंदी के किसी कवि ने शायद ही कभी
लिखा हो कि ‘गीत गड़रियों के
सुन सुन कर दुहराऊँगा।’ इन गीतों को लोक भीनी खुशबू त्रिलोचन की कविता
में किसी न किसी स्तर पर रची बसी है। वे इस गड़रिये के गीत को दूर-दूर से सुन कर
मुतासिर नहीं हुए हैं - उसके जीवन को और खुद उसे भी अच्छी तरह जानते हैं - ‘गाता अलबेला
चरवाहा/चौपायों को साथ संभाले/ ... नए साल तो ब्याह हुआ है। अभी अभी बस जुआ छुआ
है/घर घरनी परिवार है आँखों के आगे।’उनकी एक कविता
में फेरू की कहानी है। वह ठाकुर साहब के यहाँ काम करता है। ठकुराइन काशीवास करके
लौटी हैं - ‘फेरू अमरेथू
रहता है/वह कहार है .../कहा उन्होंने मैंने काशीवास किया है/काशी बड़ी भली नगरी
है/वहाँ पवित्र लोग रहते हैं/फेरू भी सुनता रहता है।’ दलित विमर्श की इतनी मार्मिक और इतनी कम बोलने वाली कविता भी आज के शोर शराबे
वाली दलित रचनाओं में ढूँढनी पड़ेगी, मिल सकेगी, ऐसा लगता नहीं। उनकी एक और कविता ‘प्रेरणा’ (तुम्हें सौंपता हूँ) ऊपर कहे सब कुछ को उभार देती है - ‘मेरी कविता कल
मुसहर के यहाँ गई थी/मैं भी उसके साथ गया था जो कुछ देखा/लिखा हुआ है मेरे मन में
जब घर लौटा/तब मुझसे नाराज हुए जो बड़े लोग थे/उनकी वह नाराज़ी मैं चुपचाप पी गया/वे
समझे मैं समझदार हूँ इसी राह से/चला करूँगा जिस पर सब चलते आए हैं/पर मुझको उसकी
कुटिया ने और बुलाया/पाँव दबा कर अबकी उसके यहाँ मैं गया/टीहुर की बातें कानों पी
असी साल का/जाड़ा बरखा घाम खा चुकी थी वह वाणी/अब केवल साँसें थीं अब केवल वाणी थी।
अब केवल वह कुटिया थी जिसमें बैठा था।’ टीहुर की जाड़ा बरखा घाम खा चुकी अनुभवी वाणी ही त्रिलोचन की कविताओं का सरमाया
है। फेरू, टीहुर या घीसू, गोबर त्रिलोचन से यह मासूम-सा सवाल भी करते हैं कि ‘घर में
कविताएँ/क्या कभी काम आती हैं/क्या इनसे दाल छौंक सकते हैं/हल्दी का काम/क्या इनसे
चल सकता है।’ और त्रिलोचन का उन्हें जवाब मिलता है कि -
मैंने तो व्रत ले रखा है तुम सब के लिए; मिट्टी के पुतलों में दिव्य अभिमान भरने का और थोड़े संकल्प भी किए हैं - चाहता
हूँ तुम भी इन्हें शपथ, प्रण और व्रत की तरह अपने जीवन भर धारे रहो - ‘जो उठाई है
ध्वजा झुकने न देना/जो दिखाई है प्रगति रुकने न देना/जो जगाई शक्ति है लुकने न
देना/जो लगाई लौ कभी चुकने न देना।’
त्रिलोचन जैसा पर दुख कातर और जन उपकारी कवि ही यह कह सकता था कि ‘यही विनय मेरी
है, मुझे याद मत रखना/अपने किए सँजोए का संचित फल
चखना।’ कवि त्रिलोचन तुम्हें जानने मानने वाले हम सब
अपने कर्मों से बँधे अपनी-अपनी डगर चल रहे हैं। तुम्हारी कविताओं ने हमें जीने का
सहूर सिखाया है। पर क्षमा मिले गुरु, तुम्हें याद न रखने वाली तुम्हारी बात हम न मान सकेंगे। तुम शरीर से पास हो न
हो, तुम्हारा काव्य तुम्हारी ही तो छवि है। तुम्हें
याद रखने को वो ही बहुत है उस जमीनी काव्य की भलमानस बनावट को कैसे भूल सकेगा कोई।
तुम तो कह कर चल दिए। पर एक बात कह दें तुमसे; चाहे तो इसे अवहेलना ही समझो, तुम क्यों न अपनी कि
‘इन दिनों तुम
बहुत याद आये,/
जैसे धुन राग के बाद आये।’;
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